यह सच है कि 2014 के चुनाव के पहले उम्मीद बढ़ी थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आर्थिक सुधार होंगे। बीते सात वर्षों में यकीनन कुछ बड़े सुधार हुए हैं जिनमें दिवालिया तथा अप्रत्यक्ष कर सुधार शामिल हैं। परंतु व्यापार और औद्योगिक नीति के कुछ मोर्चों पर अहम नाकामियां भी हुई हैं। हाल के कुछ वक्तव्यों से संकेत मिला है कि सरकार स्थगित व्यापार वार्ताओं को दोबारा शुरू करना चाहती है। इसके लिए महामारी के बाद की जरूरतें और भूराजनीतिक दबाव वजह हैं।
संबंधित नीति ने कई बार कई विरोधाभासी दिशाओं में रुख किया। एक ओर सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठता कायम की और यह स्पष्ट किया कि वह अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखना चाहती है, वहीं दूसरी ओर राजस्व संबंधी जरूरतों ने उसे सरकारी परिसंपत्ति के मुद्रीकरण पर विचार करने पर विवश किया। उसने नए व्यापार समझौतों से दूरी बनाई और पुराने निवेश समझौते ठप किए। इस बीच दावा किया गया कि वह देश के निर्यात बाजार को सब्सिडी और प्रोत्साहन के जरिये आगे बढ़ाना चाहती है। उसने कर चुकाने के तरीकों को आसान किया जबकि इस बीच करदाताओं के खिलाफ अधिकारियों के मनमानेपन का दायरा बढ़ाया ताकि कर वंचना रोकी जा सके। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर उसने किसानों के विरुद्ध बड़े किसानों का साथ दिया, ई-कॉमर्स में बड़े कारोबारियों के सामने छोटे दुकानदारों का साथ दिया और अनिवार्य वस्तुओं की जमाखोरी के मामले में छोटे कारोबारियों के समक्ष उपभोक्ताओं का साथ दिया।
सरकार ने विदेशी निवेश भी चाहा और एमेजॉन या मास्टरकार्ड जैसी विदेशी कंपनियों के समक्ष घरेलू कंपनियों को भी वरीयता दी। युवाओं की व्यापक बेरोजगारी के हल के रूप में उसने सूक्ष्म उद्यमिता, मेक इन इंडिया यानी व्यापक विनिर्माण रोजगार और सरकारी नौकरियों को बढ़ावा दिया। उसने रिजर्व बैंक को मौद्रिक नीति के लक्ष्य तथा स्वतंत्रता को लेकर एक वैधानिक ढांचा दिया फिर कार्मिक चयन के जरिये उस ढांचे को सीमित किया और केंद्रीय बैंक पर अप्रत्यक्ष रूप से घाटे की भरपाई करने का दबाव बनाया। उसने केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं का आकार कम करने का प्रयास किया ताकि राज्यों को नीति निर्माण की ज्यादा छूट मिल सके। इसके बाद उसने वित्त आयोग के अधिकार क्षेत्र की मदद से राज्यों की नीति निर्माण प्रक्रिया को रोकने का प्रयास किया।
जाहिर है सरकार के पास वह खाका नहीं है जो एक आर्थिक विचार मुहैया कराता है। उसने जो लक्ष्य तय किए हैं वे भी दृष्टिसंपन्न नहीं दिखते। यह अनिश्चित व्यावहारिकता निरंतरता और अनुमानों की जगह नहीं ले सकती। नीति निर्माताओं के लिए व्यवहारिकता उपयोगी होती है लेकिन अनिश्चितता के माहौल में नीतिगत स्थिरता की आवश्यकता होती है।
देश के दो सर्वाधिक दिक्कतदेह वृद्धि संबंधी गतिरोध हैं उत्पादकता और निवेश। इसके बावजूद बिना समुचित और एकीकृत विश्व दृष्टि के विनिर्माण, निर्यात, रोजगार, व्यापार घाटा, वेतन भत्तों में ठहराव और राजकोषीय गुंजाइश, मुद्रास्फीति, सकल मांग आदि सब अलग-अलग नजर आएंगे और सबके लिए अलग हल तलाशने होंगे। सरकार इनसे ऐसे ही निपट रही है और यही वजह है कि नीतिगत उपायों को लेकर सुसंगतता नहीं है। व्यापार घाटे से निपटने के लिए हम व्यापार समझौतों से बाहर हैं और निर्यात को बढ़ावा नहीं दे रहे, इसकी कीमत मुद्रास्फीति और उत्पादकता के क्षेत्र में चुकानी पड़ रही है। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए मौद्रिक नीति का प्रयोग किया जा रहा है जिसका असर दरों, निवेश और विनिर्माण पर पड़ रहा है। विनिर्माण के लिए प्रोत्साहन योजना लाई गई है जो राजकोष पर असर डाल रही है। राजकोषीय गुंजाइश को कर प्रवर्तन और ईंधन करों के माध्यम से बढ़ाया जा रहा है जिसका असर समग्र मांग पर पड़ रहा है। यदि उत्पादकता और निवेश ही तात्कालिक गतिरोध हैं तो सरकार का प्रयास इन क्षेत्रों में बेहतरी लाने का होना चाहिए।
उत्पादकता में सुधार के लिए मानव संसाधन का इस्तेमाल बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए कौशल विकास और प्रवासी श्रमिकों की मदद आवश्यक है ताकि लोग उच्च उत्पादकता वाली जगहों पर आ-जा सकें। कल्याण योजनाओं को नए सिरे से डिजाइन करना होगा ताकि मानव संसाधन बढ़ाया जा सके। उत्पादकता बढ़ाने के लिए सही प्रोत्साहन और कंपनियों को अवसर मुहैया कराना भी जरूरी है। वे सरकार के पीछे छिपकर प्रतिस्पर्धा से बच नहीं सकतीं या अनुत्पादक कामों के लिए सब्सिडी की अपेक्षा नहीं कर सकतीं। उन्हें वित्तीय, स्वामित्व, रोजगार और स्थान के मामले में भी उचित चयन करने होंगे ताकि वे विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें। उन्हें सरकारी बैंकों से बेहतर संसाधन की जरूरत है। कर्मचारियों को रखने-निकालने की आजादी और बिजली जैसे कच्चे माल की कीमत और उपलब्धता भी अहम है। भूमि बाजार भी खुला और नियंत्रण रहित होना चाहिए।
निवेश बढ़ाने के लिए यह समझ जरूरी है कि भविष्य में मांग किस क्षेत्र से आएगी। मौजूदा क्षमता, मांग और वृद्धि के हिसाब से भारतीय उपभोक्ताओं के चलते निवेश में तेजी की आशा व्यर्थ है। निवेश बढ़ाने के लिए वैश्विक मांग की पूर्ति पर ध्यान देना होगा। इसके लिए व्यापार समझौतों को लेकर रुख बदलना होगा। निजी निवेश बढ़ाने के लिए कर नीति, नियामकीय नीति में स्थिरता की जरूरत है। विवाद निस्तारण की गति तेज करनी होगी और पारदर्शिता लानी होगी।
जरूरी है कि सरकार विवादों में पक्ष न बने क्योंकि निवेशक जानते हैं कि वे भारत सरकार से नहीं जीत सकते। सरकार दावा कर सकती है कि देश के उद्योगपतियों की मांग प्रत्यक्ष वित्तीय प्रोत्साहन और शुल्क संरक्षण की है। लेकिन उसे इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि जो उद्योगपति बच जाते हैं और सोचते हैं कि वे इस माहौल में प्रगति कर सकते हैं, ये वही हैं जो प्रत्यक्ष नकदी प्रोत्साहन की मांग भी करेंगे।
सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि वह बिना राह भटके व्यवहारिकता एवं लचीलेपन का समावेश कर सके।