सन 2016 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेता राम माधव और केंद्र में मोदी-शाह के नेतृत्व ने सर्वानंद सोनोवाल को आगे बढ़ाया और वह असम के मुख्यमंत्री बने। इस बार ऐसी कोई घोषणा नहीं की गई है। राम माधव भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से बाहर दोबारा आरएसएस में हैं और नरेंद्र मोदी या अमित शाह मुख्यमंत्री पद के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं।
सवाल यह है कि सोनोवाल का क्या होगा?
युवावस्था में सोनोवाल ने राजनीति में प्रवेश के साथ ही पहचान की राजनीति को अपना लिया था और वह सन 1992 में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) के अध्यक्ष बन गए थे। वह सन 1999 तक इस पद पर बने रहे। इसके बाद उन्होंने अगला कदम उठाया और 2001 में असम गण परिषद (अगप) में शामिल हो गए। उसी वर्ष वह विधायक भी बन गए।
आसू और अगप की राजनीति असम की जमीन से जुडऩे की राजनीति थी। सोनोवाल ने इसे परिष्कृत किया और इसका विस्तार करते हुए आदिवासी छात्र समूहों को असमिया पहचान में शामिल किया ताकि असम की स्थानीय पहचान का दबदबा कायम हो सके। कोशिश यह थी कि कांग्रेस की उस दलील का मुकाबला किया जा सके जिसके मुताबिक अली (मुस्लिम), कुली (चाय बागान कर्मी) और बंगाली (बंगाली हिंदू जो प्राय: क्लर्क थे, और छोटे मोटे कारोबारी जो बांग्लादेश के निर्माण के समय असम आए थे) जब तक कांग्रेस के साथ हैं, उसे हराया नहीं जा सकता।
लेकिन अगप एक डूबता जहाज था और नेतृत्व के कई हिस्सों में बंटा होने के कारण सोनोवाल ने बतौर पेशेवर राजनेता अपने समक्ष मौजूदा इकलौता विकल्प चुना और वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए। इसके बाद अगप में उनके साथ रहे कई नेता भाजपा में आ गए। सन 2012 में उन्हें भाजपा की असम इकाई का अध्यक्ष बनाया गया। यह काफी तेज पदोन्नति थी लेकिन ऐसा हो भी क्यों न आखिर आरएसएस की वर्षों की मेहनत के बावजूद भाजपा असम में कोई जगह नहीं बना पाई थी। इस लिहाज से देखें तो वह अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा के नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा की उपज हैं।
बाकी की कहानी से सब वाकिफ हैं। सोनोवाल ने अवैध प्रवासी (पंचाटों द्वारा निर्धारण) अधिनियम को चुनौती दी थी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने सन 2005 में असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था।
सन 2014 में लोकसभा में वापसी तक सोनोवाल असम भाजपा के प्रमुख बने रहे। उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार में राज्य मंत्री बनाया गया। राज्य विधानसभा चुनाव के एक वर्ष पहले 2015 में उन्हें दोबारा असम भाजपा का अध्यक्ष बना दिया गया।
इस समय उन्हें एक हल्का झटका लगा। भाजपा नेतृत्व ने अपनी समझदारी में कांग्रेस से हिमंत विश्व शर्मा को पार्टी में लाने का निर्णय किया। लगभग उसी समय लुई बर्गर नामक अमेरिकी कंपनी ने अमेरिका की एक अदालत में यह स्वीकार किया कि उसने दुनिया भर में परियोजनाएं हासिल करने के लिए सरकारों और राजनेताओं को रिश्वत दी है। कंपनी ने कहा कि उसने भारत के गोवा और असम में जल विकास परियोजनाएं हासिल करने के लिए 2010 में अधिकारियों को रिश्वत दी है। यह वह समय था जब हिमंत विश्व शर्मा राज्य में संबंधित मंत्रालय संभाल रहे थे। गोवा में चचिल अलेमाओ को गिरफ्तार किया गया। असम में किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया और फाइल ‘गुम’ हो गई। सोनोवाल और किरण रिजिजू ने इन आरोपों को प्रमुखता देते हुए संवाददाताओं को संबोधित किया। ये दोनो नेता पूर्वोत्तर के थे। इतना ही नहीं सारदा घोटाले और उसमें विश्व शर्मा की भूमिका को लेकर सवाल खड़े करने का प्रयास भी किया गया।
जनवरी 2016 में सोनोवाल को भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री का प्रत्याशी घोषित किया गया। यह पुरानी परंपरा से विचलन था। चुनाव में पार्टी को 45 प्रतिशत मत मिले। विश्व शर्मा को भले ही लगा कि उनके साथ धोखा हुआ लेकिन वह खामोश रहे।
बहरहाल, इस बार पार्टी यह नहीं बता रही है कि अगर वह सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री कौन होगा। भाजपा की असम इकाई के अध्यक्ष रणजीत सिंह ने चुनाव के पहले समाचार चैनल एनडीटीवी से कहा, ‘विश्व शर्मा चुनाव लडऩे के इच्छुक नहीं थे लेकिन पार्टी ने यह तय किया कि सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में पेश नहीं किया जाएगा और भाजपा सोनोवाल और विश्व शर्मा के संयुक्त नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी।’
विश्व शर्मा अत्यधिक सक्रिय रहे हैं। उन्होंने ही वह विधान प्रस्तुत किया जो असम मेंं सूक्ष्म वित्त संस्थानों पर रोक लगाने वाला है। सूक्ष्म वित्त कंपनियों के ऋण नहीं चुका पाना राजनीति में एक बड़ी बाधा थी। खासतौर पर भाजपा के प्रभाव वाले इलाकों में ऐसा था। वह एक के बाद एक ऐसे संकेत दे रहे हैं कि अब उनकी बारी है। राजनीति का उनका सफर भी सोनोवाल से बहुत अलग नहीं है। वह भी आसू के जरिये राजनीति में आए। लेकिन विश्व शर्मा खुशकिस्मत थे कि भृगु फुकन उनके गुरु रहे, हालांकि 2001 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने गुरु को ही पराजित किया।
परंतु अब हालात अलग हैं। यह सही है कि कांग्रेस अपने सबसे अहम नेता तरुण गोगोई को खो चुकी है लेकिन अब उसने बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाले ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट से स्पष्ट और निर्णायक गठजोड़ कर लिया है।
असम में भाजपा के मत प्रतिशत में प्रभावशाली वृद्धि हुई है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में भी पार्टी मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी की घोषणा करने में क्यों हिचक रही है?
