मामलों का समय रहते समाधान करने के लिए सरकार को राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण में अधिक क्षमता विकसित करनी होगी। बता रहे हैं राजेश कुमार
हाल के कुछ मामलों ने ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता(आईबीसी) के असरदार रहने पर सवाल खड़े कर दिए हैं। उदाहरण के लिए वीडियोकॉन समूह की समाधान प्रक्रिया एक ऐसा ही मामला है। इस समूह की समाधान योजना में सफल रही बोली समूह की परिसंपत्तियों के मूल्य (लिक्विडेशन वैल्यू) के लगभग करीब थी और बैंकों को 95 प्रतिशत से अधिक नुकसान सहना पड़ता।
कुछ कर्जदाताओं ने इस योजना पर आपत्ति जताई है और अब राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) ने समाधान प्रक्रिया रोक दी है। आईबीसी प्रक्रिया के तहत समाधान योजना सफल होने की औसत दर कमतर रही है और मोटे तौर पर आंकड़े बताते हैं कि 2016 के बाद बड़ी संख्या में मामलों में अंतत: परिसंपत्तियों की बिक्री करनी पड़ी। हालांकि तब भी एक उपयुक्त संदर्भ में आईबीसी का प्रदर्शन खंगालना महत्त्वपूर्ण है।
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में यह सबसे बड़े सुधारों में एक रहा है। इस संहिता ने कर्ज में डूबी परिसंपत्तियों के समाधान की दिशा में पेश आने वाली समस्या दूर की है और एक पारदर्शी प्रक्रिया बहाल की है। एक बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में कंपनियों के लिए बाजार में आसानी से आना और बिना अधिक झमेले के बाहर निकलना काफी महत्त्वपूर्ण है। इससे पूंजी का उपयोग उपयुक्त रूप में किया जा सकता है। पूरे तंत्र के लिए संकट में फंसे कारोबार का पुनर्गठन करना और ऋणदाताओं को उनकी अधिक अधिक से अधिक रकम दिलाने में सक्षम होना जरूरी है। आईबीसी के क्रियान्वयन से पहले ये बातें लगभग असंभव थीं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने आईबीसी के क्रियान्वयन से पहले संकटग्रस्त परिसंपत्तियों के समाधान के लिए कई योजनाएं जैसे रणनीतिक कर्ज पुनगर्ठन योजना, 5:25 योजना और स्कीम फॉर सस्टेनेबल स्ट्रक्चरिंग ऑफ स्टे्रस्ड ऐसेट्स आजमाई थीं लेकिन इनसे खास सफलता नहीं मिली।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली में फंसे ऋणों का अंबार लगने के बाद एक आधुनिक दिवालिया कानून की जरूरत और अधिक महसूस की जाने लगी थी। वैश्विक वित्तीय संकट से पहले और बाद में बैंकों ने दोनों हाथों से खुलकर ऋण बांटे थे और इस वजह से बैंकों के खातों में फंसे ऋण की तादाद खासी बढ़ गई थी। आरबीआई ने जब 2015 में परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा शुरू की तब जाकर असली सूरत सामने आई। भारतीय वित्तीय तंत्र में दूसरी समस्याएं भी थीं। प्रवर्तकों को लग रहा था कि प्रदर्शन कैसा भी रहे लेकिन उनका नियंत्रण कायम रहेगा और जो समस्याएं आएंगी वे बैंकों, खासकर, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को झेलनी होगी। दूसरी तरफ बैंकों ने अपने बहीखाते दुरुस्त दिखाने के लिए कर्जदारों से ब्याज लेना जारी रखा और मूलधन जस के तस रहे। सरकार को भी इससे चिंता नहीं हुई क्योंकि फंसे ऋण बढऩे से उसे बैंकों में पूंजी डालनी पड़ती थी। मगर नियामकीय दबाव और आईबीसी के क्रियान्वयन के बाद चीजें बदल गईं। संभवत: पहली बार प्रवर्तकों को ऐसा लगा कि वे उनकी कंपनियों से निकाले जा सकते हैं। सरकार भी उस समय बैंकिंग प्रणाली दुरुस्त करने का मन बना चुकी थी। उदाहरण के लिए 2017 में सरकार ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन किया जिसके बाद आरबीआई ने बैंकों को आईबीसी के तहत चूककर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का निर्देश दिया।
कंपनी ऋण शोधन अक्षमता समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) दिसंबर 2016 में प्रभाव में आई। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार मार्च 2021 तक कुल 4,376 ऐसे मामले शुरू किए गए हैं। इनमें 2,653 मामले बंद हो चुके हैं। 348 मामलों में समाधान योजनाएं स्वीकृत हुई हैं, जबकि 1,277 मामलों में परिसंपत्तियां बेचने के आदेश दिए गए। शेष मामले वापस ले लिए गए या उनका निपटारा हो गया। हालांकि यह ध्यान में रखना अहम है कि समाधान के लिए गए सीआईआरपी मामलों में 75 प्रतिशत औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्गठन में गए पुराने मामले थे। इनमें ज्यादातर मामलों में परिसंपत्तियों का मूल्य कम हो गया है। जिन मामलों में समाधान योजना मंजूर की गई है उनमें वित्तीय ऋणदाताओं को कुल दावे की 40 प्रतिशत रकम मिली है। हालांकि औसत वसूली दर विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में कम रही है लेकिन तब भी यह आईपीसी पूर्व की योजनाओं से अधिक कारगर रही है।
उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2019-20 आईबीसी प्रक्रिया के तहत व्यावसायिक बैंकों के लिए वसूली दर 45.5 प्रतिशत रही थी और सिक्योरिटाइजेशन ऐंड रीकन्सट्रक्शंस ऑफ फाइनैंशियल ऐसेट्स ऐंड इन्फोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट ऐक्ट (2002)पुनर्गठन में यह दर 26.7 (पिछले वर्ष 15 प्रतिशत) प्रतिशत रही थी। ऋण वसूली कम रहने के पीछे कई कारण रहे होंगे। यह तो समझना पड़ेगा कि ये अभी शुरुआती दिन हैं और संस्थागत क्षमताएं तैयार करने में थोड़ा समय लगता है। बैंकिंग क्षेत्र में अधिक दबाव के कारण आईबीसी प्रणाली को अधिक संख्या में मामलों से निपटना पड़ा। एक सक्षम समाधान प्रणाली का अभाव भी एक वजह थी। इसके अलावा आर्थिक हालात पर भी विचार करना जरूरी है। कोविड-19 महामारी आने से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ गई थी और यह विदित है कि कंपनियां कमजोर माहौल में निवेश भी करना नहीं चाहती हैं। ऐसे में मांग कम रहने से फंसी परिसंपत्तियों के मूल्य पर असर हो रहा है।
इसके अलावा इस संहिता का प्रदर्शन दूसरी संस्थागत परिस्थितियों पर भी निर्भर है। बैंकों, खासकर, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में उधारी मानक सुधारने की जरूरत है। जब तक इन बैंकों का प्रदर्शन नहीं सुधरता है तब तक आईबीसी प्रणाली के बाहर किसी संकटग्रस्त खाते का पुनगर्ठन विश्वसनीय नहीं दिखेगा। इसका नतीजा यह होगा कि दिवालिया न्यायालयों में मामले आते रहेंगे और इनसे मूल्यांकनएवं वसूली दोनों पर असर होगा। इसके अलावा वसूली परिसंपत्तियों पर भी निर्भर करती है। अगर बैंक ऋण देते वक्त इस बात का ख्याल नहीं रखते हैं तो इससे वसूली पर असर पडऩा तय होगा। पिछले सात वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने 8 लाख करोड़ रुपये मूल्य से अधिक के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए हैं। यह रकम इसी अवधि के दौरान सरकार द्वारा बैंकों को दी गई रकम से दोगुना अधिक है। हालांकि इसका यह मतलब भी नहीं कि आईबीसी प्रणाली पूरी तरह सटीक है। समाधान योजना पूरी करने में औसतन 400 दिन लग जाते हैं। इसे कम करने की जरूरत है और इस संहिता में यह बात कही भी गई है। मामलों का समय रहते समाधान करने के लिए सरकार को राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण में अधिक क्षमता विकसित करनी होगी। सरकार और बैंकिंग नियामक दोनों को संयम एवं नुकसान सहने का स्तर भी कम करना होगा क्योंकि इससे फंसे खातों की समाधान योजना को नुकसान पहुंचेगा।
