दिसंबर 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी पर डोमनिक लैपियर की किताब ‘फाइव मिनट्स पास्ट मिडनाइट’ काफी चर्चित रही है।
गैस त्रासदी के पीड़ितों की मुश्किलों के बारे में उन्होंने हमारी संवाददाता श्रीलता मेनन से बात की। दिलचस्प बात है कि भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से भी नवाजा जा चुका है।
आपने भोपाल गैस त्रासदी पर किताब लिखी है और साथ ही इस घटना के शिकार लोगों को देखने के लिए 84 से लेकर अब तक लगातार भोपाल का दौरा करते रहे हैं। उस वक्त और अभी के हालात में क्या फर्क है?
कई सारी समस्याएं अब भी जस की तस बनी हुई हैं। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि इस घटना के शिकार जीवित बचे लोग और न्याय के लिए लड़ रहे कार्यकर्ता अगर प्रधानमंत्री से अपील करने की कोशिश भी करते हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। (5 मई को इन लोगों को प्रधानमंत्री के आवास के सामने विरोध-प्रदर्शन करते वक्त इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था)
मेरे ख्याल से कई मसले ऐसे हैं, जिनका जल्द से जल्द समाधान करने की जरूरत है। मसलन गैस लीक होने वाली जगह की सफाई का मुद्दा सबसे अहम है। सफाई के अभाव में इस इलाके के भूजल में जहर फैल गया है और लोग यह पानी पीने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे मानना है कि इन लोगों को शुध्द पेय जल का हक मुहैया कराया जाना चाहिए।
गलती कहां हुई? भोपाल गैस पीड़ितों की समस्याओं पर इतने लंबे अर्से में भी सुनवाई क्यों नहीं पूरी हो सकी?
मुझे इस बारे में नहीं पता, लेकिन यह काफी चिंता का विषय है। पीड़ितों के सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास की जरूरत है। संभावना ट्रस्ट में गायनकोलोजी क्लिनिक बनाने के लिए मैंने अपनी किताब की रॉयल्टी से प्राप्त होने वाली राशि दे दी।
सुना जाता है कि यह ट्रस्ट रोज 160 लोगों का इलाज मुफ्त करता है?
हां। गैस पीड़ितों में कई लोग ऐसे हैं, जिनका कभी कोई इलाज नहीं हुआ। जहरीले गैस के लोगों के शरीर के भीतर पहुंचने की वजह से पैदा हुई बीमारी के इलाज के लिए इन लोगों के पास एस्पिरिन के अलावा कोई दवा नहीं थी। यह गैस घातक है। यह लोगों की जीन में पहुंच चुका है।
हमें नहीं पता है कि इसका असर कितनी पीढ़ियों तक रहेगा। आज भी जो बच्चे पैदा हो रहे हैं, उन पर इस गैस का असर देखा जा सकता है। साथ ही महिलाओं में भी कैंसर की शिकायत देखने को मिल रही है। यह काफी चिंता का विषय है।
इस पूरे मामले में भारतीय मीडिया का क्या रोल रहा है?
मुझे इस बात को कहते हुए काफी दुख हो रहा है कि भारतीय मीडिया इस त्रासदी को नजरअंदाज कर रहा है। जब मैंने इस त्रासदी पर किताब लिखने के मद्देनजर रिसर्च शुरू किया था, तो मीडिया उस वक्त मुझसे यह पूछने में लगा था कि आपने अपने किताब के लिए भोपाल को ही क्यों चुना? यह सवाल सुनकर मैं हतप्रभ था। अगर मीडिया इस मामले में जमकर आवाज उठाता तो सरकार लोगों की तकलीफ पर ऐसा रवैया नहीं अपनाती।
क्या आपको लगता है कि भोपाल गैस त्रासदी के मसले को इसलिए नजरअंदाज किया गया, क्योंकि इसके पीड़ित लोग काफी गरीब थे?
बिल्कुल सही। अगर इससे अमीर लोग प्रभावित हुए होते, तो मीडिया और सरकार का रवैया अभी के मुकाबले बिल्कुल अलग होता। बीते रविवार को मैं पीड़ितों के साथ जंतरमंतर पर धरने पर बैठा था, लेकिन इस बारे में अखबारों में एक लाइन भी नहीं लिखा गया।
आपने यूनियन कार्बाइड के वॉरेन एंडरसन की तुलना ओसामा बिन लादेन से की है और कहा है कि एंडरसन ओसामा से ज्यादा लोगों की हत्या के लिए जम्मेदार है और इसके बावजूद वह भगोड़ा है। डाउ के बारे में आप क्या सोचते हैं?
डाउ को यूनियन कार्बाइड के लिए जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। मैं इस बारे में बिल्कुल आश्वस्त हूं। उन्हें कम से कम विषैले पदार्थों की सफाई करनी चाहिए।
उनका कहना है कि कार्बाइड का अपनी जिम्मेदारियों से निपटने का अपना तंत्र है।
मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं सिर्फ यह जानता हूं कि डाउ को कचरों की सफाई की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
क्या आपने डाउ से बात की है?
नहीं, कभी नहीं। लेकिन मैं भविष्य में बात कर सकता हूं।
आपने भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण स्वीकार किया है, जबकि भोपाल त्रासदी मामले में कोई कदम नहीं उठाने पर आपने इसकी काफी आलोचना की थी।
मैं इस मामले को लेकर दुखी हूं न कि आलोचनात्मक। एक बाहरी आदमी होने के मद्देनजर मुझे आलोचनात्मक होने का कोई हक नहीं है। अगर मुझे मौका मिलता है, तो मैं पीड़ितों के बारे में सरकार से बात कर सकता हूं। हालांकि यह काफी दुख की बात है कि पीड़ितों की आवाज सरकार तक नहीं पहुंच पा रही है।