शरद पवार कई बार राजनीतिक तौर पर मिलेजुले संकेत देते हैं। वह स्पष्ट बातें तभी करते हैं जब चर्चा घरेलू सत्ता के खेलों से इतर बातों की हो। उदाहरण के लिए उनका यह कहना कि चीन भारत की घेराबंदी का प्रयास कर रहा है।
इसमें दिक्कत केवल इतनी है कि यह पूरा सच नहीं है। चीन भारत की घेराबंदी की कोशिश नहीं कर रहा है। बल्कि फिलहाल वह सफलतापूर्वक ऐसा कर चुका है। वह अपना शिकंजा कसता जा रहा है।
चीन की प्रोपगंडा मशीनरी जून 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प के वीडियो एक के बाद एक जारी कर रही है। वीडियो दिखाते हैं कि कैसे भारतीय सैनिकों को तीन दिन तक बंदी बनाकर रखा गया था। इसके अलावा अन्य भड़काऊ दृश्य और धमकियां भी हैं। ग्लोबल टाइम्स में युद्धोन्मादी बातें छप रही हैं और मनोवैज्ञानिक रूप से नुकसान पहुंचाने वाले अन्य हथियार आजमाए जा रहे हैं। उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की अरुणाचल यात्रा पर चीन की प्रतिक्रिया भी अनपेक्षित नहीं थी। अंतर केवल तीव्रता और शब्द चयन का था। यह सब हो रहा है लेकिन इसे घेराबंदी नहीं कह सकते। वह कहीं और हो रही है। इसमें पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और अब अफगानिस्तान शामिल हैं। चीन ईरान, तुर्की और मध्य एशिया के कुछ देशों के साथ रिश्ते मजबूत कर रहा है।
अभी-अभी चीन के सरकारी मीडिया ने भूटान के साथ सीमा समझौते पर हस्ताक्षर की बात कही। उसने सांकेतिक रूप से कहा कि भारत के बावजूद यह समझौता हो चुका है। भूटान को बताया जा रहा है कि कैसे उसने डोकलाम मामले में चीन के साथ रिश्तों में भारत को शामिल होने देकर अपना अहित किया। चीन हर देश को बताने का प्रयास कर रहा है कि इस क्षेत्र का नेता या कहें मोहल्ले का दादा कौन है। पूर्वी लद्दाख मामले में चीन ने कोर कमांडर स्तर की 13वीं वार्ता में कड़े रुख के साथ भागीदारी की। उसने कुछ इस तरह के बयान दिए हैं मानो कह रहा हो कि जो मिल रहा है वह ले लो वरना यह भी नहीं मिलेगा।
मनोवैज्ञानिक युद्ध जारी है और वह काफी स्पष्टता बरत रहा है। सवाल यह है कि चीन क्या और क्यों हासिल करना चाहता है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विजयादशमी को अपने भाषण में चीन-पाकिस्तान, तालिबान-तुर्की गठजोड़का उचित ही जिक्र किया है। उन्होंने बीमारी तो सही पकड़ी लेकिन इलाज को लेकर उनका सुझाव सही नहीं। हम बात करेंगे कि ऐसा क्यों है? रूस पर कम से कम एक दशक तक और रहने वाली सैन्य निर्भरता तथा जटिल रिश्ते के कारण भारत वहां से उभरती चिंताओं के बारे में ज्यादा नहीं बोलता। लेकिन अब व्लादीमिर पुतिन शी चिनफिंग या चीन के प्रशंसक की तरह बात करने लगे हैं। पिछले दिनों उन्होंने कहा कि चीन को ताइवान पर कब्जे के लिए बल प्रयोग की भी जरूरत नहीं। चीन इतना शक्तिशाली है कि ताइवान पर शांतिपूर्ण कब्जा होना ही है।
ये बातें भारत और मोदी सरकार के लिए सामरिक तस्वीर को गंभीर बनाती हैं। सन 2014 में शी चिनफिंग के साथ शानदार सौदेबाजी की शुरुआत पूरी तरह नाकाम रही है। चीन ने कभी भारत को अपनी बराबरी का नहीं माना। अब वह हमें अहसास करा रहा है कि दोनों देशों के बीच का यह अंतर और बढ़ गया है। सरसरी तौर पर रणनीतिक संतुलन चीन के पक्ष में झुका दिखता है। संभव है उसने लद्दाख में कुछ भूभाग पर कब्जा किया हो या न भी किया हो, लेकिन यह तय है कि वह भारत को उसकी गश्त वाले बड़े हिस्से में नहीं जाने दे रहा है। उसने सेंट्रल सेक्टर में बाराहोती के मैदान तथा पूर्व में तवांग के शांत इलाकों में हलचल बढ़ा दी है। लद्दाख में उसकी तैनाती बढ़ी है और अब स्थायी नजर आने लगी है। इसके बावजूद भारत के साथ उसका व्यापार अधिशेष बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 के महज नौ महीनों में उसने अपना व्यापार अधिशेष 47 अरब डॉलर कर लिया है और वह 63.05 अरब डॉलर का रिकॉर्ड तोडऩे को तैयार दिख रहा है। चीन ने लद्दाख में चाहे जो हासिल कर लिया हो लेकिन पहला कदम उठाकर बढ़त लेने की उसकी क्षमता अन्य जगहों पर बहुत सीमित है। तवांग में उसकी सेना को यह पता चला होगा। भारतीय सेना को काफी खर्च और तनाव का सामना करना पड़ता है लेकिन वे तैयार हैं।
चीन की ऐसी हरकतें भारत को अमेरिका के करीब और रूस से दूर ले जा रही हैं। चीन के चलते ही मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरंडम ऑफ एग्रीमेंट तथा अन्य रणनीतिक साझेदारी समझौतों पर हस्ताक्षर के लिए प्रेरित किया। चीन के व्यवहार के चलते भारतीय रणनीतिक प्रतिष्ठान, राजनीतिक जगत और टीकाकारों के बीच चीन का व्यवहार वह कर रहा है जिसे हम शायद असंभव मानते रहे हों: सात दशकों पुरानी अमेरिका विरोधी भावना के प्रति धीरे-धीरे नकार का भाव। सी. राजा मोहन जिन्हें मैं दशकों से भारत की रणनीतिक बहस में एक नवाचारी और विद्वान व्यक्ति के रूप में मानता हूं, उन्होंने मुझसे कहा कि अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स समझौता होने के बाद भारत ने फ्रांस के साथ भी ऐसा ही समझौता किया। अब यह इतना आम हो गया है कि मीडिया भी इस पर ध्यान नहीं दे रहा। हमें शी चिनफिंग का शुक्रिया कहना चाहिए कि उन्होंने हमारी आंखें खोलीं।
मैंने व्यापार के जो आंकड़े पेश किए वे भारत के लिए बुरे हैं। लेकिन यह बढ़त कम समय के लिए साबित हो सकती है। आत्मनिर्भरता को लेकर हमारे मन में अभी भी शंका है। लेकिन चीन अब भारत के दूरसंचार और उच्च प्रौद्योगिकी क्षेत्र से पूरी तरह बाहर है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया के अधिकांश देशों ने चीन की 5जी तकनीक को नकार दिया है। चीन ने लद्दाख में भारत की जमीन भले हथिया ली हो लेकिन उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। उसके सबसे बड़े बाजारों में से एक हाथ से निकलता जा रहा है। शी चिनफिंग के लिए तस्वीर कैसी है? चीन की अर्थव्यवस्था को कई झटके लगे हैं, कर्ज भी उनमें से एक है। अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए उन्होंने प्रौद्योगिकी क्षेत्र, सोशल मीडिया, एडुटेक क्षेत्र, शीर्ष उद्यमियों के खिलाफ कदम उठाए और अब पश्चिमी निवेशक चीन से बच रहे हैं। उसका अहम सहयोगी और हमारा पड़ोसी पाकिस्तान भी तीन दशकों में सबसे बुरी स्थिति में है। उसका सकल घरेलू उत्पाद तमिलनाडु से भी कम है। अमेरिकी उप विदेश मंत्री वेंडी शर्मन के बयान को देखें तो लगता नहीं कि अब अमेरिका उसे आईएमएफ, विश्व बैंक या अन्य संस्थानों की मदद से उबारेगा। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लडख़ड़ाई हुई है, रुपया औंधे मुंह गिरा हुआ है, मुद्रास्फीति में तेजी है, चीन कभी प्यार या वफादारी की कीमत पैसे से नहीं चुकाता। तुर्की भी बहुत मदद नहीं कर सकता। ऐसे में पाकिस्तान फिलहाल भारत से उलझने की स्थिति में नहीं है।
चीन की घेराबंदी कड़ी होती जा रही है। आरएसएस प्रमुख ने खतरे की पहचान सही की है लेकिन उन्होंने सीमा पर सुरक्षा मजबूत करने का जो हल सुझाया है वह सही नहीं है। उन्हें इतिहास से यह पता होना चाहिए कि भारत के हजारों वर्ष के इतिहास में रक्षात्मक रहने वाले हमेशा हारे हैं, भले ही वे कितने ही सुरक्षित गढ़ों में और कितने ही बहादुर लड़ाके रहे हों।
लड़ते हुए मर जाने वालों को जीत नहीं मिलती। असमान चुनौतियों का सामना करते हुए बचाव करने वालों को साझेदारों की जरूरत होती है। इसमें समय लगता है। इसके लिए शांति और स्थिरता जरूरी है। अपने घर के भीतर नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस जैसी पुरानी आग भड़काकर यह नहीं किया जाता। आप एक दिन हिंदुओं और मुस्लिमों को समान बताएंगे और अगले दिन यह चिंता करने लगेंगे कि किसकी आबादी तेजी से बढ़ रही है। ऐसा नहीं चल सकता।
हम चुनावी मजबूरी समझते हैं और यह भी भाजपा को उत्तर प्रदेश में कुछ माह बाद होने वाले चुनाव में कम से कम 50 फीसदी हिंदू वोट चाहिए। उसके लिए ध्रुवीकरण करना होगा, मुस्लिम साथियों को दूसरे पाले में डालना होगा। राष्ट्रीय, रणनीतिक हितों के विपरीत आपकी घरेलू राजनीति ऐसेे ही चलती है। जीडीपी आकार में पांच गुना अंतर होने के बावजूद भारत चीन से लड़ सकता है लेकिन आपसी विभाजन के साथ नहीं।
