इस बात को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है कि कैसे कंपनियों के बोर्ड में शामिल स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका पर्याप्त नहीं है। बहुत समय पहले कश्यप ऋषि ने कहा था, ‘जब ईमानदार लोग बोलने की अपनी भूमिका निभाने में चूक जाते हैं तो वे धर्म को क्षति पहुंचाते हैं और उन्हें दंडित किया ही जाना चाहिए।’
मैं 34 वर्षों तक कंपनियों के बोर्ड में रहा हूं। आरंभ में मैं यह मानता था कि एक अच्छा बोर्ड दरअसल शीर्ष पेशेवरों का जमावड़ा होता है। निश्चित रूप से नियमन भी इसी मान्यता पर आधारित है। यकीनन अफसरशाही और प्रबंधन के विशिष्ट पेशेवरों को प्रभावी बोर्ड सदस्य बनाया जाना चाहिए। परंतु मैंने पाया है कि इसकी तैयारी केवल उनके मस्तिष्क में ही रहती है।
श्रेष्ठ लोगों को भी प्रभावी होने के लिए संगठित होने की आवश्यकता होती है। उन्हें एक टीम के रूप में काम करने की जरूरत होती है, ठीक वैसे ही जैसे खेलों में। निष्क्रियता तब उत्पन्न होती है जब आप ‘व्यक्तिगत रूप से परिपूर्ण होते हैं लेकिन आपके साथ वाले पेशेवर तैयार नहीं होते।’ किसी भी खेल की टीम में प्रशिक्षक और सलाहकार होते हैं, बोर्ड में नहीं।
बोर्ड में संसद की तरह शोरशराबा हो सकता है और वे अक्सर विरोधाभासी विचारों के कारण निष्क्रिय भी हो सकते हैं। यह काफी हद तक व्यक्तित्व पर भी निर्भर करता है। कुछ लोग बोलते ही नहीं हैं, कुछ यह काम बहुत विनम्रतापूर्वक करते हैं जबकि कुछ अन्य लोग जोर देकर बहस करते हैं। जरूरी नहीं कि बोर्ड में सौहार्दपूर्ण माहौल हो, भले ही हमारी मिथकीय कथाएं ऐसी छवि को बढ़ावा देती हों। जब मैं बोर्ड में अपने बीते वर्षों को याद करता हूं तो मेरे मस्तिष्क में बोर्ड पर मानव व्यवहार का प्रभाव कौंध उठता है। यहां तीन उदाहरण देना प्रासंगिक है।
ढेर सारे निदेशकों वाली एक कंपनी में प्रबंधन के ऐसे प्रस्ताव पर लंबे समय तक चर्चा चली जिसमें विदेशी उर्वरक कंपनी में निवेश किया जाना था। निदेशकों के बीच निवेश किए जाने वाले देश में स्थिरता को लेकर व्यक्तिगत स्तर पर छिपे पूर्वग्रह के बावजूद कई महीनों तक असंगत ढंग से बहस चलती रही। निदेशकों ने यह माना कि चेयरमैन निवेश के इच्छुक हैं। आखिरकार जब चेयरमैन ने भी उस देश को लेकर आशंका जाहिर की तो हर कोई उनके सुर में सुर मिलाने लगा और प्रस्ताव पर आगे विचार करना बंद कर दिया गया। एक अन्य बोर्ड में चेयरमैन ने खुद एक असंबद्ध विविधता वाले काम में निवेश के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया। ऐसे में बड़े नाम वाले निदेशक भी प्रस्ताव का विरोध करने में हिचकिचा रहे थे। एक तेजतर्रार और तर्क करने में माहिर निदेशक जिन्हें चेयरमैन का करीबी माना जाता था, ने प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया जिससे अन्य निदेशकों को राहत मिली। एक तीसरी कंपनी में एक महत्त्वाकांक्षी सीईओ ने अपने बोर्ड के बीच यह धारणा बना दी कि उसके प्रस्ताव को एक शक्तिशाली प्रवर्तक की सहमति हासिल थी। एक दिन उन्हें पता चला कि वे तमाम योजनाएं धोखाधड़ी थीं। दुखद बात यह है कि ऐसी धोखाधड़ी वाली योजनाओं पर लंबे समय तक किसी का ध्यान नहीं गया।
माना जाता है कि संचालन एक दुरूह और तकनीकी विषय है। इसमें अंकेक्षण, विधिक और नियामकीय तीनों काम शामिल होते हैं। ऐसे में इसमें अंकेक्षकों, अधिवक्ताओं और कंपनी सचिवों का दबदबा रहा। संचालन की तैयारी में मानव व्यवहार का तत्त्व पूरी तरह नदारद नजर आता है।
जैसा कि हर निदेशक ने महसूस किया होगा, बोर्ड के कामकाज में मानव कमियां हावी होती हैं। अहंकार, प्रतिद्वंद्विता, चुनी हुई खामोशी, तानाशाही व्यवहार को प्रतिष्ठित मानना आदि। यदि निदेशक स्वयं को प्रशिक्षित करें अथवा उन्हें औपचारिक रूप से प्रशिक्षित करके व्यवहार सिद्धांतों और सामूहिकता को अपनाने की काबिलियत दी जाए तो लाभदायक परिणाम सामने आ सकते हैं। बोर्ड को किसी समझदार और अनुभवी व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षित किए जाने की गुंजाइश क्यों रहती है। ऐसा व्यक्ति आसानी से बोर्ड की निष्क्रियता को दूर करने में मदद कर सकता है। जब बोर्ड में तार्किक बातें और विश्लेषण होते हैं तो वहां स्नेह और गर्माहट के लिए जगह होती है।
कुछ नरम प्रकृति के कौशलों पर विचार कीजिए- (1) परिचालन और रणनीतिक मसलों के बीच संतुलन कैसे कायम किया जाए (2) बिना असहमति दर्शाए असहमत कैसे हुआ जाए (3) जरूरी पडऩे पर अपनी बात कैसे रखी जाए (4) बिना किसी नतीजे पर पहुंचे वैकल्पिक विचारों को कैसे सुना जाए (5) किस समय चर्चा करनी है और किस समय चिंतनशील होना है और सबसे बढ़कर (6) ऐसी बातों से बचना होगा कि ‘अपने दिनों में बतौर मुखिया मैं ऐसा करता था…’
हर आकांक्षी निदेशक को समझदारी को लेकर बाहरी या आंतरिक प्रशिक्षण हासिल करना चाहिए। समझदारी मांसपेशी की तरह है। उसे पहचानना चाहिए और फिर उसमें सुधार लाने के लिए कदम उठाने चाहिए। कंपनियों को समझदार निदेशकों की जरूरत है लेकिन जरूरी नहीं कि कई वर्षों का अनुभव रखने वाले व्यक्ति में समझदारी मौजूद हो। समझदार व्यक्ति का क्या अर्थ है? हमारे मस्तिष्क में तेज, धीमी, सामरिक हर प्रकार की सोच की संभावना रहती है। भारतीय वेदांत परंपरा में इन्हें मस्तिष्क और बौद्धिकता के रूप में ग्रहण किया जाता है। व्यवहारात्मक प्रशिक्षण आलोचनात्मक विचार प्रक्रिया में मददगार होता है। इसे दो उदाहरणों के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं कि मस्तिष्क की तुलना में बुद्धिमता का इस्तेमाल कैसे होता है: एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान का निर्माण कब हुआ, भारतीय संविधान का निर्माण वसुधैव कुटुंबकम की परंपरा की अवधारणा के अनुसार हुआ है। हमारे नेताओं ने ऐसा पहले भी नहीं चाहा और वे आज भी ऐसी इच्छा नहीं रखते कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र होना चाहिए।
जमशेदजी टाटा ने सन 1890 के दशक में कहा था कि ‘एक मुक्त उपक्रम में, समुदाय कारोबार का एक और अंशधारक भर नहीं है। बल्कि वह यह उसके अस्तित्व का उद्देेश्य है।’ यानी नैतिक श्रेष्ठता की सोच। पीडब्ल्यूसी का एक हालिया शोध पत्र और स्ट्रैटजी + बिज़नेस (21 जून, 2021) में प्रकाशित एक आलेख में बोर्ड के निर्णयों पर व्यवहारात्मक प्रभाव की बात की गई है। इसमें कहा गया है कि पूर्वग्रह के चार रुझान ध्यान देने लायक हैं-प्राधिकार का पूर्वग्रह, सामूहिक सोच, यथास्थिति का पूर्वग्रह और समर्थन का पूर्वग्रह।
(लेखक टाटा संस के निदेशक एवं हिंदुस्तान यूनिलीवर के वाइस-चेयरमैन रह चुके हैं)
