भारत की वृद्धि संभावनाओं पर चार कारकों का अहम प्रभाव होगा और निकट भविष्य में वही वृहद आर्थिक नीति को निर्धारित करेंगे।
पहला है मौजूदा सुधार की ताकत। दूसरा, कोरोनावायरस के नए प्रकार ओमीक्रोन के कारण उथलपुथल की संभावना। तीसरा, वित्त वर्ष 2021-22 के राजकोषीय घाटे का आकार। चौथा, जेरोम पॉवेल का दूसरी बार अमेरिकी फेडरल रिजर्व का चेयरमैन बनना।
चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 8.4 फीसदी की वृद्धि अनुमान के अनुरूप ही है। इस आधार पर अनुमान है कि वर्ष के अंत तक अर्थव्यवस्था रिजर्व बैंक के अनुमान के मुताबिक 9.5 फीसदी की वृद्धि दर हासिल कर लेगी या उसे पार कर जाएगी।
बहरहाल, कोरोनावायरस के नए स्वरूप का सामने आना एक जटिल घटना है। विशेषज्ञों की राय यही लग रही है कि यह नया प्रकार बहुत घातक नहीं है। परंतु इसका भय और इसके चलते अलग थलग रहने की जरूरत सामने है। ऐसे में माना जा रहा है कि अधिक शारीरिक संपर्क वाले कारोबारों के सुधार पर यह बुरा असर डालेगा। अन्य क्षेत्रों की भी बात करें तो कंपनियां घर सेे काम करने की सुचारु सुविधा न होने पर भी कर्मचारियों को कार्यस्थल पर बुलाने से बच रही हैं।
राजकोषीय तस्वीर भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं है। अप्रत्यक्ष कर संग्रह में इजाफे ने आशावाद को जन्म दिया लेकिन व्यय के मोर्चे पर नकारात्मक खबरों ने इसे निरर्थक बना दिया। निजीकरण का लक्ष्य भी प्राप्त होता नहीं दिखता। यदि सरकार चालू वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 6.8 फीसदी के स्तर पर भी रख लेती है तो यह राहत की बात होगी।
उधर जेरोम पॉवेल दूसरी बार अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन के रूप में नामित हो गए हैं। पॉवेल अन्य अर्थशास्त्रियों की तुलना में मुद्रास्फीति को लेकर कुछ ज्यादा ही आशावादी रहे हैं। उन्होंने अपनी स्थिति हाल के सप्ताह में बदली है। हालांकि यह बदलाव बस यही है कि क्वांटिटेटिव ईजिंग को तय योजना से पहले समाप्त किया जाए। पॉवेल ब्याज दरें बढ़ाने की जल्दी में नहीं हैं।
देश में नीति निर्माण पर इन बातों का क्या असर होगा? यदि ओमीक्रोन को लेकर विशेषज्ञ सही हैं तो गति में कुछ धीमापन आएगा लेकिन इससे चालू वर्ष की वृद्धि प्रभावित नहीं होगी। उभरते बाजारों यह डर नहीं होना चाहिए कि उनके यहां से तत्काल फंड बाहर जा सकते हैं और उनके केंद्रीय बैंकों पर भी ब्याज दरें बढ़ाने का दबाव नहीं होगा। अगली कुछ तिमाहियों में आरबीआई के ब्याज दरें बढ़ाने की आशंका भी कम है। ऐसे में चालू वर्ष का वृद्धि अनुमान बेहतर बना रहेगा।
परंतु वृद्धि के तीन प्रमुख वाहकों निजी खपत, निर्यात तथा निजी निवेश पर सवालिया निशान हैं। महामारी के कारण लोगों के रोजगार गए जिससे निजी खपत बुरी तरह प्रभावित हुई। जैसा कि आरबीआई गवर्नर ने हाल ही में कहा भी, निजी खपत और निवेश कोविड के पहले के स्तर से नीचे हैं।
वर्ष की पहली छमाही में निर्यात वृद्धि को लेकर बहुत उत्साहित होना भी सही नहीं है। सन 2014 और 2019 के बीच निर्यात लगभग स्थिर रहा। इन वर्षों में क्रमश: 314 अरब डॉलर और 320 अरब डॉलर का निर्यात हुआ। 2021 में यह गिरकर 296 अरब डॉलर रह गया। यदि हम वित्त वर्ष 2022 में 400 अरब डॉलर के पूर्वानुमान का लक्ष्य हासिल कर लें तो भी महज तीन फीसदी की वार्षिक वृद्धि हासिल होगी। निर्यात में 7 फीसदी की वृद्धि हासिल होना मुश्किल है।
निजी खपत की बात करें तो कई तिमाहियों से हम यही सुन रहे हैं कि निवेश में सुधार बस होने ही वाला है परंतु अब तक ऐसा नहीं हो सका है। सन 2019 मेंं कॉर्पोरेट कर दर को 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी कर दिया गया लेकिन निजी निवेश नहीं बढ़ा। कंपनियों का मुनाफा बढ़ा। आरबीआई की जुलाई 2021 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2020-21 की दूसरी छमाही में 1,360 गैर वित्तीय निजी कंपनियों का डेट-इक्विटी अनुपात महज 0.2 फीसदी थी।
इस स्तर की नकदी उपलब्ध होने पर कंपनियों को उधारी लेने और निवेश करने के लिए तत्पर होना चाहिए। इसका प्रभाव बैंकों में मजबूत ऋण वृद्धि के रूप में भी नजर आना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं हो रहा है। यह बात सही है कि भारतीय उद्योग जगत फिलहाल केवल 70 फीसदी क्षमता से काम कर रहा है। परंतु कंपनियों को यह पता होना चाहिए कि यह महामारी के कारण बनी अस्थायी स्थिति है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि भारतीय उद्यमी दीर्घावधि की संभावनाओं से अनभिज्ञ हैं। खासकर ऐसे समय जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में इजाफा हो रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है कि निवेश की अनिच्छा कुछ अन्य वजहों से हो? यह संभव है कि कारोबारी इसलिए हिचकिचा रहे हों क्योंकि ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता के तहत नियंत्रण गंवाने की आशंका मजबूत हुई है। ऐसे में वे डेट के बजाय इक्विटी के जरिये वृद्धि को वरीयता दे सकते हैं। बैंक उन्हें कर्ज देना चाहते हैं लेकिन वे कर्ज लेने के अनिच्छुक हैं।
वहीं छोटे और मझोले उपक्रमों की बात करें तो वे ऋण चाहते हैं लेकिन बैंक उन्हें कर्ज देना नहीं चाहते। कंपनियों और छोटे तथा मझोले उपक्रमों की निवेश की अनिच्छा या उसके काबिल न होने के कारण निजी निवेश में जल्द सुधार की आशा बेमानी है।
फिलहाल तो यही लग रहा है कि सार्वजनिक निवेश की उच्च वृद्धि की राह पर जल्दी ले जा सकता है। बजट की बाधाओंके बीच सार्वजनिक निवेश में इजाफा कैसे किया जाए? इसका एक तरीका अमेरिका से उदाहरण लेकर निकाला जा सकता है। मसलन केंद्रीय बैंक एक सार्वजनिक अधोसंरचना प्राधिकार की फंडिंग कर सकता है। ऐसा करके भी महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय अधोसंरचना पाइपलाइन के लिए फंड की व्यवस्था की जा सकती है।
केंद्रीय बैंक द्वारा सार्वजनिक प्राधिकार को ऋण देने के अपने फायदे हैं। यह केंद्रीय बैंक द्वारा सरकार को ऋण देने से अलग व्यवस्था है। सरकारों को गैर जवाबदेह व्यय करने वाला माना जाता है क्योंकि उन पर बाजार का अनुशासन लागू नहीं होता। केंद्रीय बैंक अगर गुणवत्तापूर्ण जमानत पर सार्वजनिक प्राधिकार को ऋण दे तो ऐसी स्थिति में बाजार अनुशासन मौजूद रहेगा। दूसरी बात, केंद्रीय बैंक द्वारा सार्वजनिक प्राधिकार को ऋण देने को सार्वजनिक ऋण नहीं माना जाता। हालांकि आरबीआई द्वारा दिए जाने वाले ऐसे ऋण को मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लक्ष्य के साथ सुसंगत होना चाहिए।
मौजूदा प्रमाणों के आधार पर ऐसा लगता नहीं है कि अकेले बाजार ताकतों के दम पर उच्च वृद्धि हासिल हो सकेगी। सार्वजनिक निवेश की ओर से एक बड़ी मदद की आवश्यकता है। केंद्रीय बैंक द्वारा एक सार्वजनिक अधोसंरचना प्राधिकार को फंड करना भी एक हल हो सकता है।
