हममें से अधिकतर लोगों को शायद इस बात की जानकारी नहीं होगी कि करीब 30 साल पहले तक पश्चिम बंगाल में स्थित इंजीनियरिंग कंपनियां नियमित रूप से वेतन में बढ़ोतरी के सिलसिले में कार्मिकों से बातचीत करती थीं।
इस तरह की बातचीत को अंतिम रूप देने के लिए एक त्रिपक्षीय निकाय जिम्मेदार था। उस निकाय में पश्चिम बंगाल सरकार, शीर्ष इंजीनियरिंग एसोसिएशन और कार्मिक यूनियन के प्रतिनिधि शामिल होते थे। उस इलाके में स्थित सभी कंपनियों को वेतन में बढ़ोतरी से संबध्द समझौते का पालन करना मानना आवश्यक था।
जूट उद्योग में कमोबेश ऐसी ही व्यवस्था काम कर रही थी। वह समय सामूहिक सौदेबाजी का था। ऐसी सामूहिक सौदेबाजी के जरिए कार्मिकों को नियोक्ता से उच्च वेतन आदि के साथ और भी कई फायदे मिलते थे, हालांकि इस व्यवस्था में भी कई खामियां थीं।
जूट उद्योग के बुरे दिन शुरू हो गए और वेतन बढ़ाने के सिलसिले में नियमित रूप से होने वाली बातचीत अप्रासंगिक हो गई। उच्च वेतन के लिए सामूहिक सौदेबाजी के रास्ते पर चलने के बजाय नौकरी बचाना ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया।
चूंकि ज्यादातर इंजीनियरिंग यूनिट ने पश्चिम बंगाल से अपना बोरिया-विस्तर समेट लिया, लिहाजा इंजीनियरिंग इंडस्ट्री में भी नियमित रूप से वेतन में बढ़ोतरी संबंधी बातचीत का मामला ठंडा पड़ गया। इन यूनिटों ने अपना मुख्यालय कहीं और स्थानांतरित कर लिया। कुछ सालों में इनकी निर्माण इकाइयां भी राज्य से बाहर चली गईं।
राज्य में जो इंजीनियरिंग इकाइयां बची थीं उन्होंने भी पूरे उद्योग की तरफ से बातचीत करने के बजाय द्विपक्षीय बातचीत का रुख कर लिया। हालांकि इस मसले पर कार्मिक यूनियनों का नजरिया कुछ और था।
दूसरे शब्दों में पूरे उद्योग की तरफ से वेतन में बढ़ोतरी संबंधी बातचीत अब पुरानी बात हो गई है। पश्चिम बंगाल पिछले कुछ सालों में हालांकि कई इंजीनियरिंग इकाइयों को आकर्षित करने में कामयाब रहा है, लेकिन कोई भी सामूहिक सौदेबाजी की वापसी की बात नहीं कर रहा।
राज्य की ज्यादातर इंजीनियरिंग कंपनियां और कुछ जूट मिलें कार्मिकों को दिए जाने वाले वेतन के मसले पर फैसला करने के लिए उनके वैयक्तिक वेतनमान के आधार पर बातचीत करती हैं और वे कम से कम वेतन देने की बात (जो कि वैधानिक रूप से कार्मिकों को देना जरूरी है) दिमाग में रखती हैं।
हालांकि ऐसा बदलाव निजी क्षेत्र में आया है, लेकिन केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र अकेला ऐसा संस्थान है जो पूरे उद्योग के लिए वेतन समझौते को कुछ हेर फेर के साथ लागू कर रहा है। सेंट्रल पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (सीपीएसयू) तथा उनके कामगारों और नियोक्ता या सरकारी प्रतिनिधि के बीच मजदूरी से संबंधित किसी तरह का समझौता नहीं होता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल स्थित इंजीनियरिंग और जूट उद्योग में होता रहा है। लेकिन जो कुछ होता है, वह विस्तृत रूप से इसी से मिलता-जुलता है।
इन कंपनियों में बहुलांश हिस्सेदारी रखने वाली केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया है जिसके द्वारा सीपीएसयू के कर्मचारियों की वेतन बढ़ोतरी के संबंध में सिफारिशें करने की उम्मीद है। कामगारों के प्रतिनिधि और अधिकारियों की राय जानने और उस पर बहस करने के लिए समिति उन्हें आमंत्रित करती है और इस पर भी बात करती है कि वेतन कितना होना चाहिए।
ऐसी सिफारिशों पर केंद्र सरकार विचार करती है और जब केंद्रीय कैबिनेट इस पर मुहर लगाती है तो इसे लागू कर दिया जाता है। इससे ज्यादा अराजकता भरा और अनुचित क्या हो सकता है कि निजी क्षेत्र ने तो इस व्यवहार को तिलांजलि दे दी है, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने इसे लागू कर रखा है।
मतलब यह कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां इसके चलते प्रतिद्वंद्विता पर आने वाली आंच पर कम ध्यान दे रही हैं, जो कि किसी भी खुली अर्थव्यवस्था में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा के लिए बाजार के सिध्दांत के हिसाब से जरूरी है।
नियमित रूप से वेतन की समीक्षा की व्यवस्था को जारी रखने की बाबत सीपीएसयू में हालांकि कई विरोधाभास हैं क्योंकि विडंबना यह है कि इनमें से कुछ को नवरत्न का दर्जा दे दिया गया है जो उन्हें कई मामलों में वित्तीय स्वतंत्रता की इजाजत देते हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बहुलांश हिस्सेदार केंद्र सरकार एक तरफ तो यह उम्मीद करती है कि वह प्राइवेट सेक्टर से प्रतिस्पर्धा करे, सक्षम बनी रहे और खजाने के लिए पर्याप्त वित्तीय प्रतिफल दे।
लेकिन दूसरी ओर अपने कर्मचारियों को बाजार की क्षमता के हिसाब से मुआवजा और नौकरी में बने रहने के लिए प्रोत्साहन देने की बाबत (ताकि प्राइवेट सेक्टर के प्रतियोगी इन्हें अपनी ओर नहीं खींच सकें) सीपीएसयू प्रबंधन के हाथ इन्होंने बांध रखे हैं। नियुक्ति के लिए एक सलाहकार रखना इस समस्या का आंशिक हल हो सकता है।
ऐसे में ओएनजीसी और भारतीय स्टेट बैंक जैसी कंपनियों के सामने अपने कर्मचारियों को संस्थान में बनाए रखने की ठोस चुनौतियां हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबंधकों के सामने कई अनिश्चितताएं भी हैं।
मसलन उनके वेतन में बढ़ोतरी को कल मंजूरी मिलने में इसलिए देरी हुई क्योंकि इसके लिए चुनाव आयोग से अनुमति ली जानी आवश्यक थी। आप महसूस करेंगे कि सीपीएसयू के लिए पूरे उद्योग की तरफ से वेतन समीक्षा की जो प्रणाली है, उसे लंबे समय पहले ही ठुकरा दिया जाना चाहिए था।
