जब आप इसके बारे में सोचेंगे तो आपको मुश्किल से विश्वास होगा।
बड़ी और घोटाले की मार झेल चुकी कंपनी को ताजा बही-खाता पेश किया बिना ही खरीदार मिल गया है और इस सच्चाई के बावजूद कि कंपनी का पहले का बही-खाता काल्पनिक यानी झूठा है।
इस कंपनी को सम्मानजनक कीमत पर बेचा गया है, हालांकि अमेरिका में चल रहे मुकदमे के तहत इस पर अनजाना दायित्व भी है। निदेशक मंडल जनहित में काम करते हुए और कंपनी में बिना किसी निजी स्वार्थ के ऐसा करने में सक्षम रहा है क्योंकि कारोबारी ज्ञान और एकीकरण के लिहाज से बोर्ड में शामिल सभी निदेशक अच्छी साख वाले हैं।
साथ ही सरकार ने भी उन्हें उचित अधिकारों से लैस किया था। (इसमें कानूनी छुटकारा शामिल है)। अंतिम परिणाम यह है कि 50 हजार कर्मचारियों की फौज वाली इस कंपनी को दिवालिया होने से बचा लिया गया है।
भारतीय कारोबारी इतिहास में अब तक के सबसे बड़े घोटाले को सिर्फ 100 दिन में सुलझा लिया गया और यह केस स्टडी बन गया है कि घोटाले की वजह से आए संकट से कैसे निपटा जाता है। सबसे अच्छी बात यह है कि इस पर जनता का एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया है। इस घोटाले को अंजाम देने वालों के साथ कानून अपना काम करेगा।
इनमें से कुछ अब भी जेल में हैं और उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया गया है। सीबीआई ने विस्तृत आरोपपत्र दाखिल कर दिया है और जिस तरह से हमारे यहां कानूनी प्रक्रिया चलती है, उसमें यह मामला सालों खिंचेगा। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी चीजों से सत्यम को अलग रखा गया है।
यहां स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि क्या पहले हुए घोटाले का निपटारा इसी तरह से किया गया? उदाहरण के तौर पर 1990 के दशक में हुआ हर्षद मेहता घोटाला।
यह घोटाला इतना बड़ा था (कहा जाता है कि यह 4000 करोड़ रुपये का घोटाला था) कि इसने शेयर बाजार को धराशायी कर दिया और बैंकों को (भारतीय स्टेट बैंक और एएनजेड ग्रिंडलेज, लेकिन कई छोटे बैंक भी शामिल), मर्चेंट बैंक (स्टैंडर्ड चार्टर्ड), सार्वजनिक संस्थान मसलन राष्ट्रीय आवास बैंक और कुछ लोगों मसलन भूपेन दलाल और हितेन दलाल को चूस लिया था।
मेहता यह कह रहा था कि उनके पास कर्ज चुकाने के लिए शेयर और दूसरी संपत्तियां हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसने ऐसा किया या नहीं क्योंकि सरकारी कदम के केंद्र में यह कहीं नहीं था। अगर सत्यम का उदाहरण सामने है (जहां एक ही मकसद था कि कंपनी को बचाना है), तो फिर सरकार को चाहिए कि वह उस व्यक्ति से सभी संपत्तियां अलग कर दे, किसी को इसका कार्यभार दे दे, जैसा कि सत्यम बोर्ड को दिया गया।
उनसे कहा जाए कि सबसे अच्छी कीमत पर शेयर बेचे और बैंक और दूसरे लेनदारों का भुगतान करे। मेहता को उनके पापों की सजा देने के लिए कई सौ आपराधिक मुकदमे और दीवानी मुकदमे दायर किए गए और उनमें से शायद ही किसी का निपटारा हुआ हो जब वह एक दशक बाद जेल में मर गया।
सरकारी व्यवस्था के भीतर एक या दो व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने उस समय कहा था कि सरकार को अपनी रकम वापस पाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और आपराधिक मामलों का निपटारा अलग से करना चाहिए, लेकिन उनकी आवाज दबा दी गई और हमारे सामने रह गई संयुक्त संसदीय समिति की उच्चस्तरीय नाटकबाजी। कुछ सबक लिए गए।
जब एक दशक बाद भारतीय यूनिट ट्रस्ट का मामला सामने आया तो सरकार ने बड़ी फुर्ती से अच्छे यूटीआई को खराब यूटीआई से अलग कर दिया (जैसा कि कुछ अमेरिकी बैंकों ने अब किया है)। सरकार ने अच्छे यूटीआई को अपना काम करने के लिए छोड़ दिया जबकि खराब यूटीआई का जिम्मा खुद संभाल लिया।
इसने अब एक सवाल उठाया है (दूसरों के साथ इस अखबार ने भी) कि घाटे का सामाजिकीकरण कर दिया गया जबकि लाभ का निजीकरण कर दिया गया। लेकिन शेयर बाजार के उछाल का पीछा करते हुए खराब यूटीआई भी रकम बनाने में सक्षम हो गई है, हर किसी का भुगतान कर रही है और सकारात्मक नेटवर्थ के साथ समाप्त हो रही है।
अगर हर्षद मेहता के मामले को देखा जाए जहां रकम दुष्प्राप्य साबित हुई, इसमें शामिल कुछ ही लोगों ने अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकाई है, लेकिन आप चाहे जिस नजरिए से देखें इसे गंवाना ही कहते हैं।
