लोकतांत्रिक देश भारत और अमेरिका के बीच समानताएं ज्यादा मजबूत हैं या फिर इनके बीच का अंतर? क्या ये दोनों लोकतंत्र हैं या फिर दो अलग अलग राजनीतिक प्रणालियां। बता रहे हैं मधुकर सबनवीस
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कई साल पहले कहा था, ‘अमेरिका और इंगलैंड दो ऐसे देश हैं जो एक साझा भाषा से बंटे हुए हैं।’ कुछ ऐसा ही दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों- भारत और अमेरिका के बारे में भी कहा जा सकता है। इन दोनों देशों में भी एक साझा राजनीतिक व्यवस्था है और वह राजनीतिक व्यवस्था है- लोकतांत्रिक शासन प्रणाली।
लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जो दो देशों के बीच लगाव पैदा करती है। एक बार एक अमेरिकी पत्रकार ने मुझसे कहा था कि वह चाहते हैं कि भारत, चीन के मुकाबले आर्थिक रूप से अधिक तरक्की करे क्योंकि इससे दुनिया को पता चल सकेगा कि लोकतांत्रिक सरकार भी बेहतर तरीके से काम कर सकती है।
हालांकि इन दोनों ही देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में कुछ अंतर है। दोनों ही देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में क्या समानताएं हैं, इन्हें आसानी से समझा जा सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री दोनों ही के लिए यह जरूरी नहीं है कि उन्हें जीतने के लिए मतदान करने वाले ‘अधिकांश’ अमेरिकियोंभारतीयों का मत मिले।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली में हर स्टेट की सीट का महत्त्व होता है और भारत में संसदीय सीटों का महत्त्व होता है। अमेरिका में सत्ता की कमान जिसके हाथों में होती है उसके लिए ‘अधिकांश’ स्टेट की सीटें जीतना जरूरी है और भारत के संदर्भ में उसे अधिकांश संसदीय सीटों के विजेता का सहयोग मिलना जरूरी है।
दोनों ही राष्ट्रों में निश्चित अंतराल के बाद मतदान होता है। अमेरिका में हर 4 साल में एक बार राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान होता है जबकि भारत में हर 5 साल में एक बार प्रधानमंत्री के चुनाव के लिए मतदान कराया जाता है। और दोनों ही देशों में मतदान की परंपरा का बेहतर ढंग से निर्वाह किया जाता है।
दोनों ही देशों में शासन प्रमुख का कामकाज संभालने के लिए मंत्रिपरिषद का गठन करते हैं (अमेरिका में इन्हें स्टेट्स ऑफ सेक्रेटरीज कहा जाता है) और दोनों ही संसद के प्रति जवाबदेह होते हैं। दोनों ही देशों में पार्टी व्यवस्था है- अमेरिका में दो पार्टी हैं और भारत में कई पार्टियां हैं, पर फिर भी दोनों ही देशों में व्यक्ति के आधार पर समर्थन और वोट मांगे जाते हैं। पार्टी से बड़े किसी पार्टी के लोग होते हैं।
हालांकि जब दोनों ही लोकतांत्रिक प्रणालियों को गहराई से देखें तो पता चलता है कि इनमें क्या मूल अंतर हैं। दोनों ही देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं देश की संस्कृति और धर्म के आधार पर चलती हैं। अमेरिका में लोग राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं, यानी एक व्यक्ति का चुनाव। यहां भी दो पार्टियां हैं पर आखिरकार लोग एक ही व्यक्ति के चयन के लिए मत डालते हैं। इसलिए उस अकेले व्यक्ति को ही वोट और समर्थन मांगने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है।
माना कि वह किसी पार्टी का ही प्रतिनिधि होता है पर उसके खुद के विचारों और तर्कों का बहुत फर्क पड़ता है। पहले निचले स्तर पर राष्ट्रपति के उम्मीदवारों का चयन किया जाता है। सबसे पहले उसे पार्टी प्राइमरीज के जरिए निष्पक्ष तरीके से पार्टी के भीतर ही समर्थन (हिलेरी क्लिंटन और बराक ओबामा के बीच पार्टी की उम्मीदवारी के लिए हुए घमासान को हम देख चुके हैं) जुटाना पड़ता है।
उसके बाद उसे आम इलेक्टोरेट के पास जाना पड़ता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो पक्के तौर पर यह निश्चित कर चुके होते हैं कि उन्हें डेमोक्रेटिक या फिर रिपब्लिकन में से किसके लिए वोट करना है। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो इस बारे में दुविधा में होते हैं और कभी भी पाला बदल सकते हैं।
हालांकि आखिरी नतीजा क्या होगा इसका फैसला केवल ऐन मौके पर पाला बदल लेने वालों के हाथ में ही नहीं होता है। दोनों ही पार्टियों के भीतर भी कुछ ऐसे लोग होते हैं जो आखिरी मौके पर कोई भी निर्णय ले सकते हैं। यह सोचना बेकार है कि उम्मीदवार महिला है या पुरुष या फिर वह किस नस्ल का है इसका चुनाव पर असर पड़ सकता है क्योंकि अमेरिका एक विकसित और शिक्षित राष्ट्र है और इलेक्टोरेट कोई भी निर्णय काफी सोच विचार कर ही लेता है।
हां, यह जरूर है कि कई बार भावनात्मक लगाव और जुड़ाव का कुछ असर पड़ जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में इस बात का भी बहुत असर पड़ता है कि उम्मीदवार ने कौन कौन से मुद्दे उठाएं हैं। अमेरिका का घरेलू नीतियों और विदेशी मसलों से बहुत जुडाव है और अक्सर राष्ट्रपति के चुनाव में ये मुद्दे बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होते हैं।
इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है पर काफी हद तक यह देश की मूल संस्कृति की तरह ही है। होफस्टेड ने संस्कृति से जुड़े एक अध्ययन में बताया था कि अमेरिका में हर व्यक्ति अपनी संस्कृति से बहुत लगाव रखता है। जिस तरह ईसाई धर्म सिर्फ एक ईश्वर में विश्वास रखता है, ठीक वैसे ही अमेरिकी लोकतंत्र का भी एक ही भगवान है- राष्ट्रपति। उसके चयन के बाद वह अपने सहयोगियों (स्टेट के सेक्रेटरीज) का चयन करता है।
भारतीय समाज की तरह ही भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली भी थोड़ी जटिल है। भारत 33 करोड़ देवी-देवताओं का एक देश है जो एक धर्म हिंदुत्व से जुड़े हुए हैं हालांकि इस जुड़ाव में वह कसावट नहीं नजर आती। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में भी कुछ ऐसी ही झलक देखने को मिलती है।
हर संसदीय क्षेत्र से एक अलग ‘ईश्वर’ चुना जाता है और ये सभी ईश्वर मिलकर एक प्रमुख ईश्वर का चुनाव करते हैं। या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो गद्दी पर कब्जा जमाने के लिए प्रमुख ईश्वर को स्थानीय ईश्वरों का समर्थन चाहिए होता है।
स्थानीय ईश्वरों का चुनाव स्थानीय मुद्दों के आधार पर नहीं किया जाता है बल्कि इनका चयन जाति, धर्म, संप्रदाय और उम्मीदवार के स्थानीय दबदबे के आधार पर किया जाता है। सत्ता के अधिकार का असली खेल यहां नजर आता है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता रहता है।
होफस्टेड ने अपने अध्ययन में बताया था कि भारत में अगर किसी व्यक्ति को शासन प्रमुख बनना है तो उस उम्मीदवार का करिश्माई व्यक्तित्व का होना ही काफी नहीं होगा बल्कि यह भी जरूरी होगा कि वह निचले तबके के लोगों का कितना सहयोग प्राप्त कर सकता है। यह भी ध्यान देना होता है कि हर सीट पर सही व्यक्ति का चुनाव हो जो आगे जाकर सत्ता प्रमुख बनने के उसके रास्ते को साफ कर सके।
कोई नेता केवल अपने बलबूते पर ही नहीं जीत सकता है। केंद्र में चाहे किसी का भी शासन क्यों न हो, नए चुनावों के दौरान यह जरूरी है कि लोगों को नए सिरे से अपने पक्ष में किया गया हो। देश में चुनावों में यह महत्त्वपूर्ण नहीं होता है कि आप कितना प्रभावी राष्ट्रीय एजेंडा तय करते हैं क्योंकि पार्टी एजेंडा तो मुख्य रूप से पार्टी के लोगों को एक करने के लिए तैयार किया जाता है।
महत्त्वपूर्ण यह होता है कि समाज के निचले तबके में आपकी पैठ कितनी मजबूत होती है। पहले देश में दो ही बड़ी पार्टियों का प्रभुत्त्व हुआ करता था पर अब धीरे धीरे बहुत सी पार्टियां पनप चुकी हैं और ये तीन बड़े गुटों- यूपीए, एनडीए और तीसरे मोर्चे के साथ जुड़ गई हैं।
चुनावी प्रक्रिया में भी सांस्कृतिक मान्यताओं की झलक मिलती है। राजनीतिक पत्रकार यह कहते आए हैं कि भारतीय प्रणाली में खुले बहस का अभाव दिखता है। यहां चुनावों में ‘ईश्वर’ दूसरे ‘ईश्वरों’ को अपने विचार या मुद्दे नहीं बताते हैं बल्कि यहां सिर्फ चर्चाएं ही होती हैं। नेताओं को छूट है कि वे अपने विचार रख सकें पर आमतौर पर वे खुले रूप से एक दूसरे के विचारों के खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं।
तो फिर इन दोनों लोकतंत्रों के बीच समानताएं ज्यादा मजबूत हैं या फिर इनके बीच का अंतर? क्या ये दोनों लोकतंत्र हैं या फिर दो अलग अलग राजनीतिक प्रणालियां जिनमें थोड़ी बहुत समानताएं हैं। क्या एक प्रणाली में सफल रहने वाला व्यक्ति दूसरी प्रणाली में भी कारगर साबित हो सकता है? शायद इन मसलों पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है।