तेलंगाना के मुख्यमंत्री और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के संस्थापक के चंद्र्रशेखर राव (केसीआर) आधे-अधूरे काम करने के लिए नहीं जाने जाते हैं। एक वक्त था जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी यह मानती थी कि वह उन पर भरोसा कर सकती है। लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी ने कई घटनाक्रम के बाद अपने इस भरोसे वाले फैसले की समीक्षा करनी शुरू कर दी थी। इसी कड़ी में पिछले साल नवंबर में हुजूराबाद विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव को भी देखा जा सकता है जब दोनों में काफी तल्खी बढ़ गई। दरअसल भाजपा ने केसीआर सरकार के ही स्वास्थ्य मंत्री एटाला राजेंद्र को अपने खेमे में लाने के बाद उन्हें उसी निर्वाचन क्षेत्र से चुनावी मैदान में उतारा था जहां से वह टीआरएस के टिकट पर चुने गए थे। कांग्रेस प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई। यह स्पष्ट हो गया कि तेलंगाना में टीआरएस की पहली दुश्मन भाजपा है।
टीआरएस को भी युद्ध छेडऩे की घोषणा करने में बिल्कुल भी समय नहीं लगा। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान टीआरएस सांसदों ने किसी भी कीमत पर संसद को बाधित करने की कोशिश की जिसमें खासतौर पर इस तरह की जुगत भी शामिल थी कि वे किसी ऐसे सांसद के पीछे खड़े हो जाएं जो बोल रहे हों और तख्तियां दिखाने लगें ताकि कैमरे में उस सांसद के साथ-साथ उनके संदेशों वाली तख्ती भी सबको दिख जाए। यह विरोध प्रदर्शन केंद्रीय एफसीआई द्वारा तेलंगाना के किसानों से चावल की खरीद से इनकार करने को लेकर था। अब तक अन्य गैर-कांग्रेसी राज्यों तक पहुंच बना रहे केसीआर, आने वाले दिनों में गैर-भाजपा शासित राज्यों के लिए न्याय की मांग करने के लिए एक राजनीतिक मोर्चे की गठन करने की अपनी पहल जारी रखेंगे। हाल में उन्होंने बजट 2022-23 पर टिप्पणी करते हुए उसे ‘गोलमाल’ बताया और प्रधानमंत्री के बारे में उनकी टिप्पणियां आक्रामक थीं।
हैदराबाद जल्द ही भारत के लिए एक नया एजेंडा स्थापित करने के लिए सेवानिवृत्त अफसरशाहों की एक बैठक की मेजबानी करेगा। राव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को बुलाने के साथ-साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से भी मुलाकात करेंगे ताकि संघवाद के विचार को आगे बढ़ाया जा सके।
तेलंगाना में विधानसभा चुनाव 2023 के अंत में होने वाले हैं। राज्य में केसीआर कद्दावर नेता हैं और उनके कद की बराबरी करने वाला कोई नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तेलंगाना में उनका योगदान अतुलनीय है। वह तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) में थे और चार बार विधायक भी रहे। वर्ष 1999 में वह मंत्री पद पाने के करीब थे लेकिन उनके साथी और वेल्लामा जाति से ही ताल्लुक रखने वाले सीबीआई के पूर्व निदेशक विजया रामाराव ने इस पद पर कब्जा कर लिया। रामाराव 1999 के चुनावी मैदान में उतरे थे और पहली बार विधायक बने थे। केसीआर अगर उस वक्त मंत्री बन गए होते तब संभवत: वह तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मुहिम का बीड़ा नहीं उठाते। हालांकि उन्होंने 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन करने के लिए तेदेपा को छोड़ दिया ताकि इन सभी वर्षों में तेलंगाना को लेकर जो गलतियां की गई थीं उन्हें सुधारा जा सके। तेलंगाना सदियों से पिछड़ा रहा है। सबसे महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढांचा, सिंचाई प्रणाली से जुड़ा जिसे तेलंगाना में व्यवस्थित रूप से कभी नहीं तैयार किया गया था हालांकि कृष्णा और गोदावरी नदियां यहीं से बहती थीं। इसके विपरीत, तटीय आंध्र क्षेत्र ने आक्रामक रूप से इसको लेकर लॉबिंग की और उसे नहरों का एक जाल मिल गया जो नदियों का पानी पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिलों के सुदूर इलाकों तक ले गई।
केसीआर ने 2001 के सर्दी के मौसम में टीआरएस की स्थापना की थी और उन्होंने विधानसभा के उपाध्यक्ष पद को छोड़ते हुए तेदेपा से इस्तीफा दे दिया था। 2001 के गर्मी के मौसम में आंध्र प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव होने थे। टीआरएस ने इतनी मजबूती से उड़ान भरी कि तेदेपा को त्रिकोणीय लड़ाई (तेदेपा, कांग्रेस और टीआरएस) के बावजूद 20 जिला परिषदों में से केवल 10 ही मिल पाईं। इसकी क्षमता को समझते हुए, कांग्रेस ने जल्दी से लोकसभा चुनावों के लिए टीआरएस के साथ एक करार कर लिया।
केसीआर की रैलियां काफी हिट रहीं। 2004 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टीआरएस कांग्रेस गठबंधन के साथ चुनाव लड़ी और पार्टी ने 26 विधानसभा सीटें और पांच लोकसभा सीटें जीत लीं। वह तेलंगाना को राज्य का दर्जा देने के लिए कांग्रेस से गुहार लगाते रहे। कांग्रेस लगातार वादे करती रही। आखिरकार, केसीआर ने गठबंधन सरकार से बाहर निकलने का फैसला कर लिया और श्रम मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने तेलंगाना के लोगों के साथ विश्वासघात करने के लिए कांग्रेस को बेनकाब करने की धमकी भी दे डाली। टीआरएस ने 2014 और 2018 में राज्य चुनाव जीत लिए।
लेकिन भाजपा उस वक्त से ही इस खेल में शामिल है। 2019 में 17 लोकसभा सीटों में से भाजपा को चार सीटें मिली थीं लेकिन इसने केसीआर की बेटी के कविता को हराया था। शुरुआत में केसीआर ने भाजपा को काफी तवज्जो दी। लेकिन अब उनमें दुश्मनी की हद तक तल्खी आ चुकी है। हालांकि कई लोगों का मानना है कि हुजूराबाद की जीत भाजपा की नहीं बल्कि राजेंद्र की अपनी जीत है।
केसीआर अंदाजा लगा रहे हैं कि वह एक विकल्प हो सकते हैं। चुनाव प्रचार की उनकी अपनी शैली काफी जमीनी है। वह अधिक जनसभाएं नहीं करते हैं लेकिन जब वह ऐसा करते हैं तब वह बेहद आत्मीयता से जनसंपर्क करते हैं। उन्हें एकांत पसंद है लेकिन जनकल्याण उनका अहम पक्ष है। भाजपा विरोधी, कांग्रेस विरोधी मोर्चा कोई नया विचार नहीं है। इसमें बड़े पैमाने पर कई तरह की बाधाएं हैं खासतौर पर विभिन्न नेताओं के अहम का टकराव। लेकिन केसीआर ने इसके लिए पहल शुरू कर दी है। इसको कितना बल मिलेगा यह कहना मुश्किल है।
