बैंक ऑफ फिनलैंड ने घोषणा की है कि सन 2050 तक उसका निवेश पोर्टफोलियो कार्बन-न्यूट्रल हो जाएगा। इस विषय में पढ़ते हुए मुझे जानकारी मिली कि कई पश्चिमी केंद्रीय बैंक ऐसी घोषणाएं कर रहे हैं।
यह दिलचस्प बात है क्योंकि केंद्रीय बैंक अक्सर अपना अधिकांश निवेश पोर्टफोलियो स्वर्ण, राष्ट्रीय और विदेशी नकदी तथा सॉवरिन बॉन्ड के रूप में रखते हैं। ऐसे में कोई व्यक्ति यह आकलन कैसे करेगा कि बॉन्ड और नकद परिसंपत्तियां कार्बन-न्यूट्रल हैं या नहीं? अजीब बात यह भी है कि सोने को कार्बन-न्यूट्रल आकलन से बाहर रखा गया है क्योंकि इसका आकलन करने का कोई तरीका मौजूद नहीं था। मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि सोने की खदान में होने वाला काम कार्बन-न्यूट्रल है, लेकिन फिलहाल इसे जाने दें।
इस विषय पर जो भी सामग्री उपलब्ध है वह सरकारी वित्त के बुनियादी सिद्धांत की अनदेखी करती है। सरकार का राजस्व सीधे व्यय से संबद्ध नहीं है। सरकार अपना कर राजस्व बढ़ाने के लिए व्यय नहीं करती। यह बात डेट के जरिये भरपाई किए जाने वाले सरकारी व्यय पर भी लागू होती है। यदि ऐसे डेट फाइनैंसिंग वाले व्यय का इस्तेमाल केवल पूंजीगत व्यय के लिए किया जाए तो भी पूंजीगत व्यय के पोर्टफोलियो का आकलन उसके कार्बन प्रभाव के आधार पर नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसे निवेश का बड़ा हिस्सा वित्तीय निवेश होता है। ऐसा भी नहीं है कि वे राजस्व केवल इसलिए जुटाते हैं ताकि आम परिवारों की तरह वस्तुएं एवं सेवाएं जुटा सकें। इसके अलावा सरकारी व्यय का बड़ा हिस्सा स्थानांतरण में होता है जो अर्थव्यवस्था में संसाधनों का आवंटन एवं वितरण को प्रभावित करना चाहती है। इनकी भरपाई डेट या करों के माध्यम से होती है लेकिन यहां व्यय का प्रयोग उस संदर्भ में नहीं होता है जिस संदर्भ में कंपनियां और आम परिवार करते हैं।
यदि घरेलू कर्ज का इस्तेमाल उच्च कार्बन निवेश की भरपाई के लिए किया जाता है तो ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे कोई केंद्रीय बैंक ऐसे ऋण जारी करने से इनकार कर सके क्योंकि (अ) यह केंद्रीय बैंक के काम का हिस्सा नहीं है कि वह सरकार को बताए कि पैसा कैसे खर्च करना है, (ब) विशिष्ट सॉवरिन बॉन्ड को किसी विशिष्ट निवेश गतिविधि के लिए आवंटित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इन्हें राजकोषीय घाटे की पूर्ति के लिए जारी किया जाता है और इसलिए ये अपनी प्रकृति में निरपेक्ष होते हैं। विदेशी ऋण के साथ संबद्धता की कमी और भी प्रखर है। इसके अलावा केंद्रीय बैंक विदेशी ऋण क्यों लेते हैं, इसका उन्हें जारी करने के उद्देश्य से कोई लेनादेना नहीं होता।
जब केंद्रीय बैंकों के पास कॉर्पोरेट फाइनैंशियल परिसंपत्तियां होती हैं तो जाहिर है हालात बिल्कुल अलग होते हैं। लेकिन तब यह सवाल पैदा होता है कि केंद्रीय बैंक कॉर्पोरेट परिसंपत्तियां रखते ही क्यों हैं? यह उन प्रोत्साहन पैकेज की विरासत है जो कई पश्चिमी केंद्रीय बैंकों ने संकट के समय अपने वित्तीय क्षेत्र को दिए। ऐसे अन्यायपूर्ण निवेश में कार्बन-न्यूट्रल का आकलन मामले को और जटिल बना देता है।
ग्रीन क्लाइमेट तथा अन्य बॉन्ड तथा तयशुदा आय की परिसंपत्तियां कार्बन-न्यूट्रल की स्पष्ट और प्रत्याशित गारंटी की पेशकश करते हैं। जब तक ये सॉवरिन इश्यूएंस का हिस्सा हैं जब तक कुल उधारी में उनकी हिस्सेदारी को विश्वसनीय मानक के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। यहां दो समस्याएं हैं। पहली यह कि ये सॉवरिन की विशिष्ट शक्ति को कम करके प्रतिमोच्य संसाधन (कर या ऋण) हासिल करती है। यह राज्य के मामलों के संचालन का एक अहम घटक है। कल्पना कीजिए कि युद्ध या महामारी के दौर में कार्बन-न्यूट्रल होने की जरूरत फाइनैंसिंग को प्रभावित करती है। इसके बावजूद कुछ प्रगति की जा सकती है। इंडोनेशियन सुकुक इसका उदाहरण है। दूसरी बात यह कि हरित फाइनैंसिंग हरित खरीद या उपयोगिता की गारंटी नहीं देती जो कम से कम कार्बन-न्यूट्रल होती है। यदि एक ग्रीन बॉन्ड का इस्तेमाल किसी रेलवे परियोजना के वित्त पोषण के लिए किया जाता है लेकिन रेल निर्माण और संचालन में इस्तेमाल होने वाली बिजली और कार्बन खराब ढंग से बनते हैं और रेलवे का इस्तेमाल भी प्राथमिक तौर पर खनन वस्तुओं के उत्पादन के लिए होता है तो क्या उसे कार्बन-न्यूट्रल कहा जा सकता है? मुझे आशंका है कि केंद्रीय बैंक चूंकि आमतौर पर वित्तीय क्षेत्र के प्रोत्साहन को टालने में नाकाम साबित हुए हैं और उनका सामना इस हकीकत से हुआ है कि किसी तरह की स्वतंत्रता उन्हें अमेरिकी बाजार में नकदी बढ़ाने के प्रभाव या चीन के आसपास के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के कदमों से सुरक्षित नहीं रख सकती। ऐसे में जलवायु परिवर्तन की समस्या एक ध्यान बंटाने वाली जनसंपर्क की कवायद बनकर रह गई जिसका इस्तेमाल इस हकीकत को छिपाने के लिए किया गया कि वे एक असमान और अनुचित वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के अधीन होकर रह गए हैं।
इन तमाम बातों के बीच में हम केंद्रीय समस्या की अनदेखी कर गुजरते हैं। अनदेखी इस बात की कि कैसे दुनिया कार्बनीकृत हुई है और बहुत कम लोग बहुत अधिक वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं जबकि बहुत सारे लोगों के उपभोग के लिए कुछ खास नहीं है। यदि खपत के रुझान में अभिसरण नहीं होता है तो कार्बन के आवश्यकता से अधिक होने के कारण यह फैलेगा। जब तक अमीर और प्रभावशाली वर्ग द्वारा की जाने वाली खपत की बाह्य नकारात्मकताओं को चिह्नित करके उन्हें हतोत्साहित नहीं किया जाएगा और गरीब भौगोलिक क्षेत्रों में हरित निवेश की मदद से समृद्ध नहीं बनाया जाएगा तब तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से प्रभावी ढंग से नहीं निबटा जा सकता।
विश्व आर्थिक मंच के संस्थापक क्लॉज श्वाब ने हाल ही में इस बारे में खुलकर बात की कि सन 2050 में जलवायु परिवर्तन उनके नाती-पोतों के समक्ष किस तरह का खतरा पैदा करेगा लेकिन मुंबई की झोपड़पट्टी में रहने वाले बच्चे तो अगले मॉनसून में ही डूबने लगेंगे, उन्हें 2050 में बढऩे वाले समुद्री स्तर का इंतजार नहीं करना होगा। इन बच्चों की समृद्धि बढ़ाने के क्रम में डॉॅ. श्वाब के पोतों का बलिदान भी बढ़ाना होगा तभी हमारे इस साझा ग्रह को स्थायित्व मिल सकेगा। खपत के रुझान में अभिसरण में यह बात शामिल होगी कि अमीरों की संतानें पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाएं जबकि गरीबों की संतानों को पर्याप्त अवसर मिले। अमीरों की असमान जीवनशैली की भरपाई के लिए केवल पुनर्चक्रण और पवन ऊर्जा का सहारा लेने से बात नहीं बनेगी।
(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
