वाणिज्य मंत्रालय के हालिया बयानों से ऐसे संकेत मिलते हैं कि भारत मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) से संबंधित अपनी नीति में व्यापक बदलाव करने जा रहा है और इन समझौतों को जल्द संपन्न कराने के लिए वार्ताओं के दौर भी तेज किए जाएंगे। यह खबर इस लिहाज से सुकूनदेह है कि भारत ने पिछले10 वर्षों में एक भी बड़े एफटीए पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं जबकि दुनिया भर में लागू क्षेत्रीय व्यापार समझौते की कुल संख्या इस दौरान 224 से बढ़कर 350 हो चुकी है। भारत ने अपना पिछला व्यापार समझौता वर्ष 2011 में मलेशिया के साथ किया था। उसके बाद से 2021 की शुरुआत में जाकर मॉरिशस के साथ सिर्फ चुनिंदा जिंसों के व्यापार से संबंधित आर्थिक सहयोग एवं भागीदारी समझौता ही हुआ है।
आसियान समूह के साथ एफटीए और दक्षिण कोरिया के साथ समग्र आर्थिक सहयोग समझौते (सीईसीए) की समीक्षा चल रही है और भारत ने क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) से भी वर्ष 2019 में खुद को अलग कर लिया था। आसियान के साथ मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने में सात साल लगे थे। वहीं आरसेप के मामले में भी भारत ने सात वर्ष तक खिंची बातचीत के बाद इससे अलग रहने का फैसला किया। इस पृष्ठभूमि में एफटीए को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि ऑस्ट्रेलिया एवं ब्रिटेन के साथ अर्ली हार्वेस्ट स्कीम (ईएचएस) का इसका फौरी एजेंडा कुछ हद तक असमंजस पैदा करता है।
व्यापार को उदार बनाने वाली एक व्यवस्था के तौर पर ईएचएस विकासशील एवं विकसित देशों के बीच मजबूत मुक्तव्यापार समझौते की तरफ कदम बढ़ाने के मौजूदा रुख से थोड़ा अलग है। पिछले दो दशकों में वैश्विक व्यापार पर वैश्विक मूल्य शृंखला (जीवीसी) गतिविधियों का दबदबा रहा है। लिहाजा जीवीसी के अविभाज्य हिस्से व्यापार एवं निवेश संपर्कों द्वारा प्रोत्साहित समग्र कवरेज को ध्यान में रखते हुए एफटीए को अंतिम रूप दिया जा रहा है। दूसरी तरफ ईएचएस सिर्फ एक सीमित व्यापार पहल है जो उत्पादों के छोटे हिस्से के लिए व्यापार को उदार बनाएगा। एक अर्ली हार्वेस्ट योजना को संपूर्ण एफटीए बनने के लिए जरूरी होगा कि भारत इस दिशा में साफ इरादे जताए। ईएचएस के साथ एफटीए का एक प्रारूप जरूर होना चाहिए जिसमें एफटीए के हरेक पहलू पर बातचीत पूरी करने की एक तय समयसीमा हो। इसके अलावा इरादे पर खरा उतरने वाले क्रियाकलाप भी होने जरूरी हैं। इसके लिए भारत को पहले तटकर एवं अन्य सुधार करने होंगे।
भारत की एफटीए वार्ताओं के लंबा खिंचने का बड़ा कारण विनिर्माण जैसे कुछ बेहद गतिशील व्यापार क्षेत्रों में ऊंचे घरेलू शुल्कों का होना और दूसरे विकासशील देशों की तुलना में सर्वाधिक वरीय देश (एमएफएन) के लिए लागू औसत शुल्क हैं। भारत अपने एफटीए समझौतों में लगभग सभी व्यापार को ’80-85 फीसदी या ज्यादा’ के तरजीही शुल्क ढांचे के रूप में पेश करने से हिचकिचाता है। आरसेप पर हुई वार्ताओं में तरजीही उदारीकरण को लेकर भारत की पेशकश में भी यह रुख नजर आया था। लिहाजा शुल्क सुधार नहीं होने पर ईएचएस सिर्फ कुछ उत्पादों के व्यापार उदारीकरण तक ही सीमित रहेगा। थाईलैंड के साथ हुए ईएचएस में भारत का अनुभव कुछ ऐसा ही रहा था जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स एवं ऑटोमोबाइल क्षेत्रों के 83 उत्पादों को वर्ष 2004 में तरजीह दी गई थी। इन क्षेत्रों के संरक्षित उद्योगों के असरदार विरोध की वजह से थाईलैंड के साथ हुआ ईएचएस पिछले 17 वर्ष बाद भी एफटीए नहीं बन पाया है। असल में, ऑटो क्षेत्र में आयात बढऩे का डर दूसरे देशों के साथ होने वाली एफटीए वार्ताओं में भी हावी रहा है।
इसके साथ ही ऑस्ट्रेलिया के आरसेप और समग्र एवं प्रगतिशील पार-प्रशांत भागीदारी (सीपीटीपीपी) का सदस्य होने और ब्रिटेन के भी सीपीटीपीपी का हिस्सा बनने को लेकर बातचीत शुरू करने से इन देशों के साथ ईएचएस के आगे चलकर एफटीए बनना बेहद मुश्किल होगा। सीपीटीपीपी कहीं ऊंचे दर्जे का व्यापार एवं निवेश समझौता है, लिहाजा ऑस्ट्रेलिया या ब्रिटेन के साथ एफटीए पर होने वाली चर्चा में तरजीही व्यापार उदारीकरण के समकक्ष स्तर और भारत में नियामकीय नीतिगत सुधारों की जरूरत होगी। भारत का एफटीए में तरजीही उदारीकरण का ट्रैक रिकॉर्ड और इन दोनों देशों के साथ पिछला अनुभव इस दिशा में जारी प्रयासों की सफलता को संदिग्ध बनाता है।
बातचीत शुरू होने के सात साल बाद वर्ष 2018 में ऑस्ट्रेलिया ने अपनी ‘भारत की 2035 के लिए आर्थिक रणनीति’ में भारत-ऑस्ट्रेलिया सीईसीए के निकट समय में संपन्न हो पाने को लेकर आशंका जताई थी। वार्ता के दौरान का एक पेचीदा मुद्दा डेरी क्षेत्र को उदार बनाने से जुड़ा हुआ था जो कि वर्ष 2019 में भारत के आरसेप से अलग होने की वजहों में से एक था। इसी तरह ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के बावजूद ऑटो क्षेत्र एवं शराब में उदारीकरण से जुड़े मसलों को भारत-यूरोपीय संघ व्यापार वार्ताओं में हल करना मुश्किल रहा है और वे भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौते में भी समस्या खड़ी कर सकते हैं। भारत में इन क्षेत्रों को तुलनात्मक रूप से ऊंचा शुल्क लगाकर संरक्षण देना जारी है। ऐसे हालात में ईएचएस से आगे बढ़ पाने के आसार कम हैं और इनमें से किसी भी देश के साथ संपूर्ण एफटीए पर चर्चा को अंजाम तक पहुंचाना आसान नहीं होगा। इसके अलावा ब्रिटेन या फिर ऑस्ट्रेलिया के भी साथ एफटीए से भारत को कम कुशलता वाले श्रम-बाहुल्य आपूर्ति शृंखलाओं के साथ तारतम्य बिठाने का अवसर नहीं पैदा होगा। वहीं ऑस्ट्रेलिया एशिया के क्षेत्रीय मूल्य शृंखला उत्पादन नेटवर्क के केंद्र में नहीं है। ब्रिटेन की नजर पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ सीपीटीपीपी के जरिये अपने मूल्य शृंखला संपर्कों के प्रसार पर टिकी है। दोनों देशों की मूल्य शृंखलाएं तकनीक एवं ज्ञान-बहुल हैं। साथ ही, इन देशों की बड़ी कंपनियों के चीन से बाहर निकलने से इसकी पूरी संभावना है कि वे अपने देशों में पूंजी एवं तकनीक-बहुल आपूर्ति शृंखलाओं में लौट जाएं। इन संवर्गों के साथ एकीकरण होने पर भारत को मनचाहे लाभ नहीं मिल पाएंगे। महामारी ने पहले ही भारत में बेरोजगारी एवं अल्प-रोजगार को काफी बढ़ा दिया है।
अगर मुक्त व्यापार समझौते करने के पीछे की सोच निर्यात बढ़ाने की है तो जीवीसी-बहुल पूर्व एशिया एवं आसियान देशों के साथ एफटीए की समीक्षा कर उन्हें अधिक गहराई देना ही हमारी आगे की राह होनी चाहिए। इस क्षेत्र ने अपनी व्यापार गतिशीलता को कायम रखा है और असल में महामारी के काल में जारी वैश्विक व्यापार रिकवरी के मामले में अग्रणी विकासशील क्षेत्र रहा है। पूर्व एशिया एवं दक्षिण-पूर्व एशिया भारत को अपने कम कुशल एवं श्रम-बहुल संसाधनों को व्यापार एवं जीवीसी अनुकूल क्षेत्रों- इलेक्ट्रॉनिक्स एवं ऑटोमोबाइल में लगाने का मौका देते हैं। पिछले डेढ़ दशक में जीवीसी के लिहाज से सर्वाधिक अनुकूल इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में वैश्विक व्यापार की धुरी पश्चिमी देशों के बजाय पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व एशिया हो चुका है।
इस तरह एफटीए रणनीति के एक अंग के तौर पर अर्ली हार्वेस्ट स्कीम रोजगार बढ़ाने वाली व्यापार नीति अपनाने से जुड़ी भारत की तात्कालिक अनिवार्यताओं से बेमेल हो सकती हैं।
(लेखक जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
