देश में अनाज उत्पादन के क्षेत्र में 1950 के बाद 4 गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो चर्चा का विषय रही। इसे हरित क्रांति के परिणाम के रूप में देखा गया।
वहीं इस दौरान बागवानी के क्षेत्र में 7 गुना बढ़ोतरी दर्ज की गई, जिस पर कोई बहस नहीं हुई। बागवानी के क्षेत्र में हुई इस प्रगति का परिणाम यह हुआ कि संतुलित भोजन के लिहाज से लोगों के आहार में सुधार हुआ है। इसके साथ ही प्रति व्यक्ति खाद्यान्न का उपभोग कम हुआ तथा फलों, सब्जियों, दूध, मीट और अंडों की खपत बढ़ी है।
इसके साथ ही अनाज के क्षेत्र में कही जाने वाली हरित क्रांति में हाल के दिनों में थकावट सी महसूस की जा रही है, जहां विकास दर कम हो रही है। वहीं बागवानी पर आधारित सुनहरी क्रांति अपनी बढ़त बनाए हुए है। इसके साथ ही आने वाले वर्षों में भी इसमें बढ़त का अनुमान लगाया जा रहा है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आने वाले दिनों में कृषि पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बागवानी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़कर 29 प्रतिशत हो जाए, जबकि इस तरह की फसलों में कृषि का कुल 10 प्रतिशत भूमि का उपयोग होता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के उप महा निदेशक (बागवानी) एच. पी. सिंह कहते हैं कि बागवानी के क्षेत्र में बढ़त वास्तविक है। देश भर में बागवानी के उत्पादों का 2007-08 में कुल अनुमान 18.52 लाख टन का है। सिंह का कहना है, ‘इसे 2011-12 तक बढ़ाकर 30 लाख टन किया जा सकता है और 2020-21 तक इसे बढ़ाकर वर्तमान स्तर का दोगुना यानी 36 लाख टन किया जा सकता है।
ऐसा तब संभव है जब वर्तमान की औसत वृध्दि दर 9 प्रतिशत को बरकरार रखा जाए। इस क्षेत्र के लिए यह लक्ष्य निर्धारित किया गया है।’ उनकी आशावादिता का आधार यह है कि बागवानी क्षेत्र में रुझान ऊपर की ओर है। खासकर 2002-03 के बाद बेहतरीन फसलें और बेहतरीन किस्मों का विकास हुआ है। इसके साथ बागवानी करने की तकनीक भी विकसित हुई है।
इसके साथ फसलों के बीच जो अंतर होता है, उस दौरान खेती के मामले में विकसित इलाकों में बागवानी का चलन बढ़ा है, जिसकी वजह से इस क्षेत्र में सकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर कुछ बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो भारतीय बागवानी के क्षेत्र को स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा और बढ़त बरकरार रहेगी।
फलों की फसलों के क्षेत्र में प्रसार 2003 से शुरू हुआ, इसके परिणाम भी आने वाले दिनों में साफ नजर आएंगे। सामान्यत: बागवानी की फसलों के व्यावसायिक उत्पादन में 5 साल का वक्त लगता है। अगर हम कुछ फलों की बात करें तो हाल के दिनों में उनकी उत्पादकता में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। जैसे दुनिया में सबसे ज्यादा अंगूर और केले का उत्पादन भारत में होता है।
लेकिन हमारे देश में फसलों की उत्पादकता प्रति एकड़ अलग-अलग है। उदाहरण के लिए केले के उत्पादन को ही लें। महाराष्ट्र और गुजरात में प्रति एकड़ केले का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 50-60 टन है, वहीं केरल में इसका उत्पादन प्रति हेक्टेयर 9-10 टन है। अगर इस अंतर को पाट दिया जाता है, तो उत्पादन में क्रांतिकारी बढ़त आ सकती है।
बीते दिनों में सबसे बड़ी समस्या फसलों के बीज की गुणवत्ता की रही है, जो बागवानी क्षेत्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा थी। इस कमी को आंशिक रूप से दूर कर लिया गया है, जिसमें राष्ट्रीय बीज योजना का सराहनीय योगदान रहा है। पिछले तीन साल में बागवानी क्षेत्र में पेड़ लगाने की सामग्री और बीज की उपलब्धता में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है। स्वाभाविक है कि इसका सीधा असर बागवानी की पैदावार पर पड़ रहा है।
बहरहाल इस क्षेत्र में तमाम नई चुनौतियां भी मौजूद हैं। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का सीधा असर बागवानी क्षेत्र पर पड़ सकता है, जिसका असर प्रभावकारी होगा। ठंडे मौसम में पैदा होने वाले फल और सब्जियां गर्मी से खराब हो सकते हैं। बहरहाल इस चुनौती का सामना हम आवश्यक शोधों और विकास की रणनीति से कर सकते हैं।
अब आलू की फसल को ही लें। इस पर तापमान का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है। वैज्ञानिक शोधों से ऐसी किस्म विकसित कर ली गई है, जिस पर बदले हुए तापमान का कम असर पड़े। अंगूर की फसल के लिए भी ऐसे पौधे विकसित किए गए हैं जो बदलते जलवायु परिवर्तन का सामना कर सकते हैं। अंगूर पर भी जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ता है।
अमरूद के पौधे के आकार में भी इस तरह का परिवर्तन कर लिया गया है, जिससे इसका उत्पादन प्रति हेक्टेयर करीब 8 टन से बढ़कर 30-35 टन हो गया है। इस तरह के पौधों का विकास किया गया है, जो आकार में छोटे हैं, लेकिन उसमें डालियां अधिक होती हैं। इससे फलों की उत्पादकता तो बढ़ती ही है, फसल को गर्मी से भी बचाया जा सकता है।
इसके छोटे आकार के चलते कम क्षेत्रफल में अधिक पेड़ लगाए जा सकते हैं, जिसकी वजह से अपने आप पैदावार बढ़ जाती है। इस तरह की किस्में महाराष्ट्र में व्यावसायिक खेती के लिए पहले से ही प्रचलन में हैं। लखनऊ स्थित सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ सब-ट्रॉपिकल हार्टिकल्चर (सीआईएसएच) ऐसी किस्मों के पौधे तैयार कर रहा है।
बागवानी क्रांति के अगले चरण में तकनीक द्वारा संचालित होगी, जिससे उत्पादकता में और ज्यादा बढ़ोतरी होगी। इस क्षेत्र में सही दिशा में विकासात्मक रणनीति को अपनाए जाने की जरूरत है, जो ज्ञान पर आधारित, तकनीक द्वारा संचालित, किसानों के लिए सुविधाजनक हो, बजाय इसके कि उत्पादकों को मुआवजा दिया जाए।
इसी समय में बेहतरीन आधारभूत ढांचा प्रदान किए जाने की जरूरत है, जिसमें कोल्ड चेन, फलों को रखने के लिए बेहतरीन व्यवस्था, तैयार फसलों को बाजार तक पहुंचाने की व्यवस्था किए जाने की भी जरूरत है, जिससे उत्पादन बढ़ाने की ओर किसान आकर्षित हो सकें।