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  लेख  रंगीले सपनों की ऊंची उड़ान
लेख

रंगीले सपनों की ऊंची उड़ान

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —June 9, 2008 11:28 PM IST0
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मुमकिन है कि आपने बेसिल कम्युनिकेशन के बारे में न सुना हो जिसका बेंगलुरु में 10,000 वर्गफीट का चार मंजिला दफ्तर है। यह भी हो सकता है कि आपने दिल्ली से सटे नोएडा स्थित इओन प्रीमीडिया के बारे में न सुना हो।


आइडिया से आपको मोबाइल ऑपरेटर का ही अंदाजा होता है न कि कोलकाता की किसी कंपनी का। आपकी जानकारी के लिए हम बता दें कि ये विज्ञापन एजेंसिया हैं जिन्होंने गोवाफेस्ट में भागीदारी नहीं की, फिर भी वे खबरों में शामिल हैं।

फिर भी वे इस स्थिति में हैं कि दिग्गज कंपनियों को बिजनेस के लिए पापड़ बेलने को मजबूर कर देती हैं। अपने ही मुल्क में भले ही उनकी पहचान न हो, लेकिन दुनिया में उनका नाम काफी मशहूर है। ये सारी एजेंसियां मिलकर एक अपना छोटा समूह बनाती है जो अपने आप को जिंदा रखने के लिए आउटसोर्स के  काम पर निर्भर हैं।

अमेरिका और ब्रिटेन की बड़ी कैटलॉग कंपनियां अपने काम का ज्यादा हिस्सा भारत को दे रही हैं। बेसिल के एक एक्जीक्यूटिव का कहना है,’हम अंतरराष्ट्रीय स्तर की मीडिया एजेंसियों को वर्चुअल स्टूडियो सॉल्यूशंस मुहैया कराते हैं।’ इस उद्योग के एक आकलन के मुताबिक देश में आधा दर्जन से भी कम ऐसी एजेंसियां हैं जो पूरी तरह आउटसोर्सिंग पर निर्भर हैं और जिनका कारोबार लगभग 60 से 80 करोड़ रुपए के करीब है।

लेकिन इंडस्ट्री का अनुमान है कि  अगले 5 सालों में आउटसोर्सिंग के जरिए 4000 करोड़ रुपए का कारोबार होगा। विज्ञापनों में ही बहुत ज्यादा पैसे हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत में यह उद्योग 20,000 करोड़ रुपए से भी कम है। अगर अगले 5 साल में इसका कारोबार दोगुना हो गया तो भी आउटसोर्सिंग का कारोबार का यह 10 प्रतिशत होगा।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं की मुख्यधारा की विज्ञापन एजेंसियां मसलन ओगिल्वी, लोवे, मैक्केन एरिक्सन और मुद्रा भी इस कतार में शामिल होना चाहती हैं। इसमें केवल बात भारी कारोबार की ही नहीं है बल्कि इससे आकर्षक मुनाफे की भी गुंजाइश है। कई बड़े क्रिएटिव घरानों के लिए 10 से 12 फीसदी मुनाफे का अनुमान लगाया जाता है हालांकि कई रिटेनर आधारित फीस पर काम करना पसंद करते हैं।

आउटसोर्सिंग में तो 25 से 40 प्रतिशत तक का मुनाफा होता है। भारत में डब्ल्यूपीपी प्रमुख रंजन कपूर का कहना है, ‘जितना बेहतर आप काम करते हैं उतना ही बेहतर मुनाफा आपको आउटसोर्सिंग के जरिये मिलता है।’ गौरतलब है कि  डब्ल्यूपीपी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा एडवरटाइजिंग नेटवर्क है। संयोग से कपूर इओन प्रीमीडिया के प्रमोटर और डायरेक्टर भी  हैं।

कपूर का कहना है कि कारोबार के कई काम ऐसे हैं जिनमें मुनाफे की गुंजाइश बेहद कम है मसलन स्टूडियो का कारोबार। आउटसोर्सिंग के जरिए कई दूसरे काम भी होते हैं।  जैसे फोटो को ठीक कराने का काम, सूचना टेक्नोलॉजी और टिकाऊ उपभोक्ता बिजनेस के लिए मैन्युअल बनाना और स्टूडियो का काम। आउटसोर्सिंग में इस तरह के कामों का बड़ा भारी यानी करीब 80 प्रतिशत हिस्सा है।

क्या हैं तैयारियां

भारत में बेहतर मौका देखकर कई बड़ी एजेंसियां अपनी स्टूडियो बना रही हैं। वैश्विक एडवरटाइजिंग नेटवर्क इंटरपब्लिक ग्रुप की लोवे वर्ल्डवाइड ने पिछले जून में जब भारत में अपना बिजनेस का कार्यभार संभाल लिया था, उसी वक्त उसने घोषणा की कि वह भारत में 24 घंटे का एक स्टूडियो खोलेगी।

इस एडवरटाइजिंग नेटवर्क कंपनी का कहना था कि वह इसके जरिए दुनियाभर में अपने ग्राहकों को मल्टीमीडिया क्रिएटिव सॉल्यूशंस देगी। लोवे ने यह विचार करना तब शुरु किया जब इसके भारतीय दफ्तर में डिजिटल प्रोडक्शन से संबंधित ज्यादातर काम होने लगे।

एडवरटाइजिंग एजेंसी ‘मुद्रा’ भी आउटसोर्सिंग के कारोबार के लिए अपनी एक अलग बिजनेस यूनिट खोलना चाहती है। मुद्रा के ग्रुप मैनेजिंग डायरेक्टर और चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर मधुकर कामत का कहना है, ‘छोटे काम के लिए आउटसोर्सिंग की बहुत गुंजाइश है।’

यहां केवल स्टूडियो के काम के लिए ही गुंजाइश नहीं है बल्कि आउटसोर्सिंग के कारोबार में आधुनिक तकनीक वाले काम मसलन ग्राफिक डिजाइन, क्रिएटिव सॉल्यूशंस और डिजिटल मार्केटिंग सेवाएं भी भारत से कराई जा रही हैं। कामत का कहना है कि विज्ञापन एजेंसियों का लक्ष्य भारत को सेंटर ऑफ एक्सीलेंस यानी उत्कृष्टता का केंद्र बनाना है।

2007 में भारत की सबसे बड़ी एडवरटाइजिंग एजेंसी ओगिल्वी ऐंड मैथर ने घोषणा की थी कि वह चीन की दिग्गज कंप्यूटर कंपनी लेनोवो की मार्केटिंग की समूची वैश्विक सेवाओं का काम संभालेगी। यह काम बेंगलुरू से होगा जहां एक ही ऑफिस में ग्राहक और एजेंसी दोनों होंगे। लोवे और मैक्केन एरिक्सन अपने मल्टीनेशनल क्लाइंट जैसे यूनीलिवर और परफेट्टी के लिए विज्ञापन बना कर अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी पहुंच बना चुकी है।

इस तरह की सेवाओं का दायरा अलग-अलग हो सकता है। लेकिन सबके लिए वादा तो एक ही है। ज्यादातर आउटसोर्सिंग सेवाएं मुहैया कराने वाले को यह उम्मीद होती है कि वह अपने ग्राहकों के लिए लागत में 30 से 70 प्रतिशत तक की कमी करे। साथ ही वह अपनी सेवाएं भी कम समय में ही मुहैया करा दे।

लोवे के सीईओ और नेटवर्क ऑपरेशन के एक्जीक्यूटिव वाइस प्रेसीडेंट स्टीफन गैटफील्ड ने पहले बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया था कि भारत की जैसी भौगोलिक स्थिति है और जो उसका टाइम जोन है,उसमें दुनियाभर के ग्राहकों को यहां से बेहतर सेवाएं मुहैया कराई जा सकती हैं। 

क्या हैं मुश्किलें?

विज्ञापनों में आउटसोर्सिंग की चर्चा लगातार बढ़ रही है। ऐसे में इस इंडस्ट्री को इस बात पर सचमुच ध्यान देना पड़ेगा कि इसे थोड़ा और बड़ा बनाने के लिए जिस तरह के कुशल लोगों की जरूरत है वैसे लोग उपलब्ध हैं या नहीं। खासतौर पर बड़ी एजेंसियों के लिए यह अलग तरह की बात है। उन्हें न केवल अपनी बिजनेस यूनिट को अलग करना है बल्कि उन्हें यह भी सोचना है कि वे आउटसोर्स का कारोबार कैसे संभाल सकती हैं।

बेसिल कम्युनिकेशन्स की क्रिएटिव सर्विस के निदेशक वेंकटेश उडुपा का कहना है, ‘किसी विज्ञापन कंपनी के लिए यह बेहद मुश्किल का काम है कि अपने मौजूदा ढांचे में ही अपने कारोबार को बढ़ाकर आउटसोर्सिंग सेवा मुहैया कराएं।’ कपूर भी इस बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि आमतौर क्रिएटिव एजेंसी में संगठन के स्तर पर जो गड़बड़ी होती है उससे इतर आउटसोर्सिंग बहुत हद तक व्यवस्था के जरिए चलने वाला काम है।

मुख्यधारा की एजेंसी डीएनए रचनात्मक काम और नए प्रयोगों के लिए जानी जाती है। आउटसोर्सिंग सेवा प्रदाता अपनी सेवा को ज्यादा क्वालिटी, सामंजस्य और समय के  साथ देने में यकीन रखते हैं। खासतौर पर अगर हम स्टूडियों के काम की आउटसोर्सिंग की बात करें तो उसका एक अलग मापदंड निर्धारित है। उडुपा का कहना है, ‘अगर आप स्टूडियो के काम की आउटसोर्सिंग की बात करें तो आप पाएंगे कि संगठन के  ढांचे और उसकी प्रोजेक्ट डिलीवरी में भी अंतर हो जाता हैं।

मसलन किसी प्रोजेक्ट में क्वालिटी, सामंजस्यता और सही समय पर काम को पूरा करने की कोशिश, जो इस स्तर के काम में होती है, वह एजेंसी के परंपरागत तरीके के स्टूडियो के काम से बेहद अलग तो है ही।’ उदाहरण के तौर पर किसी परंपरागत एडवरटाइजिंग स्टूडियो में कभी कभी क्रिएटिव पार्टनर स्टूडियो के आदमी के साथ बैठता है और उसे यह समझाता है कि कब किस तरह का बदलाव लाना चाहिए।

किसी दूर की लोकेशन में रचनात्मक काम से जुड़े कर्मचारियों के साथ बेहतर संवाद कायम करने कोशिश करनी पड़ती है। आउटसोर्सिंग विशेषज्ञों का कहना है कि यहां के कारोबार को बढ़ाने के लिए अनुमति मिलने की प्रक्रिया पहले से ही तय होनी चाहिए। विज्ञापन एजेंसियों को इस तरह की व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करनी चाहिए क्योकि विशेषज्ञ बहुत आगे बढ़ रहे हैं।

बेसिल और इओन, दोनों ने आईएसओ प्रमाणन और बिजनेस रणनीति सिक्स सिग्मा को अपनाने की कोशिश शुरू कर दी है। सिक्स सिग्मा जैसी रणनीति का नाम तो पुराने विज्ञापनों में सुना भी नहीं गया होगा। कपूर के अनुसार आगे बढ़ने के लिए बेहतर तकनीक का इस्तेमाल और बौद्धिक संपदा अधिकार जरूरी है, खासतौर पर बांग्लादेश जैसे सस्ते विकल्प हों तो यह ज्यादा जरूरी हो जाता है।

कपूर का कहना है, ‘अगर हमने तकनीकी विकास और टैलेंट के विकास पर ध्यान नहीं दिया तो बेहद कम समय में हम इस रेस से  बाहर भी हो सकते हैं।’ गैटफील्ड का कहना है,  ‘भारत की प्रतिभा को पूरी दुनिया में पहचाना जा रहा है और हमारा स्टूडियो एक ऐसा मुकाम होगा जहां टैलेंट का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। ‘कई बड़ी विज्ञापन एजेंसियां अपने लोगों पर ज्यादा खर्च नहीं करतीं।

इसकी वजह यह बताई जाती है कि उन पर मुनाफा कमाने का दबाव ज्यादा होता है। मैक्केन एरिक्सन के एक्जीक्यूटिव चेयरमैन और दक्षिण एशिया के क्रिएटिव डायरेक्टर प्रसून जोशी इस बात पर सहमत हैं और उनका कहना है, ‘यह सच है कि यह दबाव बढ़ता जा रहा है और यह एक बड़ी बाधा है। हम लोगों को इस मामले में जरूर कुछ करना चाहिए।’

संभावनाएं भी हैं

इसमें बहुत सारी संभावनाएं हैं, पैसे और एक्सपोजर की तो बात ही अलग है जो कि मनोरंजन उद्योग के जरिये आता है। इस क्षेत्र में काफी प्रतिभावान लोगों का रुझान भी बढ़ता जा रहा है। कपूर कहते हैं कि, ‘आउटसोर्सिंग में प्रतिभा की बात सबसे अहम होती है क्योंकि इस क्षेत्र के लिए एक अलग किस्म की प्रतिभा की जरूरत होती है।

उडुपा के मुताबिक हम लोग ऐसी प्रतिभाओं को मौका देते हैं जो विशिष्ट प्रिंट सॉफ्टवेयर जैसे एडोब या क्वार्क के साथ काम करने में दक्ष होते हैं और जिसे एचटीएमएल में काम करने में महारत हासिल हो। हमारी कोशिश होती है कि हम जिन कलाकारों को मौका दें, वे फ्लैश, एक्शन स्क्रिप्टिंग और इससे जुड़ी और बारीकियों से भली भांति वाकिफ हो।’

एक जटिल विज्ञापन के माहौल में इस भूमिका के लिए ज्यादा संभावनाएं नहीं होती है। विदेशों में लोग यह भूमिका बढाने में लगे रहते हैं और टीम लीडर, प्रोजेक्ट मैनेजर और टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट के तौर पर काफी संभावनाएं बनाने की ताकीद करते हैं। इसके अलावा वे ऑन साइट संभावनाएं तलाशने में भी पीछे नहीं रहते। वे कहते हैं कि कर्मचारियों के लिए इसमें एक अतिरिक्त संभावना हमेशा मौजूद रहती है।

कैसी हैं चुनौतियां?

विज्ञापन बनाने को लेकर एक मुख्य चुनौती यह होती है कि विदेशी बाजार की स्थिति को देखते हुए मांग और अपेक्षाओं पर कैसे खरा उतरा जाए। लोवेज ग्लोबल के मार्केट अकाउंटिबिलिटी डाइरेक्टर प्रणेश मिश्र कहते हैं कि विज्ञापन में सांस्कृतिक चेतना का समावेश होना चाहिए, जिसमें एक दूसरे से अंतर्क्रियात्मक वार्तालाप संभव हो।

कभी कभी क्षेत्रीय प्रभावों के मौजूद होने से आउटसोर्सिंग मुहैया करने वाली कंपनियां इसे नहीं समझ पाती है। ज्यादातर भारतीय एजेंसियां विकासशील बाजारों से ही संपर्क बनाए रखती हैं। विकसित देशों के बाजार पर छाने के लिए एक अलग तरह की बाजार मांग को पूरा करने की क्षमता होनी चाहिए। मिश्र कहते हैं कि भारत एशिया के  लिए आउटसोर्सिंग हब बन सकता है।

उनके मुताबिक हमलोग इस क्षेत्र विशेष की हर बारीकियों से भली भांति परिचित हैं और यहां की सांस्कृतिक विविधता को अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन अगर न्यूयॉर्क की हाई स्ट्रीट में विज्ञापन करने की बात हो तो हम उतने सक्षम नहीं हो पाते हैं। लेकिन जोशी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते और कहते हैं कि हमारे पास उपभोक्ताओं का मिला जुला समूह है। भारत विविधताओं का देश है।

यहां पर बीएमडब्ल्यू का भी बाजार है तो एक रुपये के सैशे भी यहां बिकते हैं। हमारी विज्ञापन एजेंसियां हर तरह के उत्पादों को प्रोमोट करने में काबिल है।  लेकिन वे आगे कहते हैं कि ऑफशोर विज्ञापन का लगभग 80 प्रतिशत काम स्टूडियो से संबंधित होता है। इसलिए इस लिहाज से यह डर बना रहता है कि गुणवत्ता के हिसाब से भारतीय विज्ञापन एजेंसियां कहीं पीछे न रह जाएं।

वैसे काम का यह तरीका भी इसके व्यापार का एक प्रमुख हिस्सा है। मिश्र कहते हैं कि आर्ट के काम,टच अप और प्रोडक्शन कार्य में कारोबार की मात्रा ज्यादा हो सकती है। लिहाजा, कारोबार बढ़ाकर कम मुनाफा कमाकर भी मोटा पैसा जुटाया जा सकता है। इसलिए, निवेश की बात भी बनती है। जोशी कहते हैं कि मोटे मुनाफे के लिए काम करने की अच्छी संभावना है। पहले भारत को काम कराने के आर्थिक गढ़ के रूप में देखा जाता था। 

यह बहुत पहले की बात नही है। ऐसी कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि वैश्विक कंपनियां भारत आती थीं और यहां आकर अन्य बाजारों के लिए न केवल रचनात्मक बल्कि रणनीतिक स्तर पर भी अपने आइडिए पर विचार करती थीं। भारत विचार नेतृत्व को परिभाषित कर रहा है।

अब इससे बडा सबूत गुणवत्ता को साबित करने के लिए क्या हो सकता है। जिस तरह भारतीय बूटी तुलसी की महक इटली और दक्षिण पूर्व एशिया के खानों तक पहुंच चुकी है, उसी तरह भारत की विज्ञापन एजेंसियों का जलवा विदेशों में भी सिर चढ़कर बोल सकता है।

आपका काम जितना बेहतर होगा, आपके लिए आउटसोर्सिंग के जरिए उतनी ही ज्यादा मुनाफा कमाने की गुंजाइश हो सकती है। – रंजन कपूर, डब्ल्यूपीपी इंडिया के प्रमुख और इओन प्री-मीडिया के प्रोमोटर डायरेक्टर

भारत में कई विदेशी कंपनियां आ रही हैं और दूसरे बाजारों के लिए काम करने में जुटी हुई हैं। इस वजह से एडवरटाइजिंग एजेंसियों पर दबाव भी बढ़ता जा रहा है।  – प्रसून जोशी, मैक्केन एरिक्सन के एग्जीक्यूटिव डाइरेक्टर व द. एशिया क्रिएटिव डायरेक्टर

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