ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर विरोधाभासी संकेत सामने आ रहे हैं। आने वाले दिनों में देश की अर्थव्यवस्था की राह क्या होगी इसे समझने के लिए ग्रामीण भारत में आजीविका और समृद्धि के मौजूदा स्तर को समझना आवश्यक है। एक ओर हाल के दिनों में कारोबारी जगत की बातों और वक्तव्यों से यह संकेत निकला है कि मॉनसून के बेहतर होने के कारण ग्रामीण मांग में खासी मजबूती देखने को मिली है। दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियों ने इस बात को रेखांकित किया है कि लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मांग शहरों की तुलना में कहीं अधिक बेहतर रही। हालांकि शहरों में लॉकडाउन अधिक कड़ाई के साथ लागू भी किए गए थे। उद्योग जगत के कई शीर्ष व्यक्ति पहले ही कह चुके हैं कि ग्रामीण मांग कभी इतनी मजबूत नहीं थी। जिस तिमाही में समग्र अर्थव्यवस्था 24 फीसदी फिसली, उसी अवधि में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर धनात्मक रही। एचएसबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार हाल में जारी वेतन संबंधी आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि जून में ग्रामीण क्षेत्रों का मेहनताना सालाना आधार पर 8.7 फीसदी बढ़ा। महंगाई समायोजित किए बगैर यह वृद्धि मई के समान ही थी। इससे प्रतीत होता है कि ग्रामीण मांग आगे चलकर एक महत्त्वपूर्ण कारक साबित होगी।
हालांकि ऐसे भी सूचकांक हैं जिनसे यह संकेत निकलता है कि महामारी ने गहरा असर डाला है। ऐसा ही एक बड़ा संकेतक है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम करने वालों में बढ़ोतरी। जून 2019 की तुलना में जून 2020 में 2.6 करोड़ अतिरिक्त लोगों ने मनरेगा के तहत काम मांगा। सितंबर में यह बढ़ोतरी 80 लाख रही लेकिन इसके बावजूद यह सालाना आधार पर ज्यादा थी और इससे यही संकेत निकलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की कमी है। सवाल यह भी है कि सरकार ने लॉकडाउन लगने के बाद मनरेगा के लिए जो 40,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि रखी थी कहीं वह अपर्याप्त तो नहीं है और वित्तीय मदद की कमी कहीं योजना पर भारी तो नहीं पड़ रही। पीएम-किसान योजना के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों को कई प्रकार की सब्सिडी दी जाती हैं और उन्हें भी लॉकडाउन के बाद केंद्रीय वित्त मंत्रालय के राहत पैकेज में जोड़ दिया गया था। इसकी वजह से भी शुरुआत में मांग में आई तेजी समाप्त हो रही है। दोपहिया वाहनों की बिक्री में शुरुआत में जो तेजी आई थी वह अब मासिक आधार पर कमजोर पड़ती जा रही है। यकीनन काफी कुछ भविष्य में महामारी की स्थिति पर भी निर्भर करता है। हालांकि सितंबर में देश में कोरोना के मामलों में इजाफा कम होना शुरू हो गया लेकिन उस महीने जो 25 जिले सर्वाधिक प्रभावित थे वे सभी ग्रामीण थे।
इससे एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि लॉकडाउन के दौरान शहर छोड़कर गांवों को लौटे प्रवासी श्रमिकों का क्या होगा? मनरेगा के तहत काम की मांग में इजाफा होने और बंपर फसल (जिसके चलते खाद्य मुद्रास्फीति सहज स्तर पर रही) लेने में भी उनकी भूमिका रही। मनरेगा का फंड समाप्त होने और फसल से जुड़ा काम खत्म होने के बाद गांवों में उनकी स्थिति कठिन हो गई है। ऐसे में इनमें से कई वापस शहरों का रुख कर सकते हैं जिससे बड़े उत्पादन केंद्रों में श्रमिकों की कमी दूर होगी। यह बात वृद्धि और मुद्रास्फीति दोनों को प्रभावित करेगी। केंद्र और राज्य सरकारों को प्रवासी श्रमिकों की वापसी का स्वागत करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में उन्हें बेहतर संरक्षण मिले। देश के विकास में उनकी अहमियत से अब सब वाकिफ हैं।
