चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) पूंजीवादियों के बारे में अच्छे विचार नहीं रखती। फिर चाहे वे चीन के हों या विदेशी। उन्हें चीन के विकास में योगदान करना ही चाहिए और उसे समृद्ध बनाना चाहिए लेकिन अंतत: वे चीन की भूराजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के उपाय भर हैं। जैसा कि चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने दिखाया भी- चीन के सबसे सफल तकनीकी मंचों अलीबाबा, वीबो और डीडी चुसिंग से एक लाख करोड़ डॉलर का बाजार मूल्य छिनने को सीपीसी के राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में मामूली कीमत माना गया। इसमें पार्टी के बाहर किसी भी संभावित सत्ता केंद्र और प्रभाव को नष्ट करना तथा यह दोहराना शामिल है कि वाणिज्यिक संस्थानों की भूमिका पार्टी के हित पूरे करने की है। उन्हें बोर्ड रूम निर्णयों में भी उसकी प्रभुता और निर्देशन स्वीकार करना चाहिए।
आर्थिक आत्मनिर्भरता पर नए सिरे से जोर दिए जाने तथा सरकारी उपक्रमों के नेतृत्त्व के बीच चीन ने विदेशी पूंजी जुटाने के प्रयास दोगुने कर दिए हैं। चीन में निवेश कर चुकी विदेशी कंपनियों को भी निवेश बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। सन 2020 में चीन ने अपने विशाल और बड़े होते वित्तीय बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया था। अब वे वहां पूर्ण स्वामित्त्व वाले बैंक, म्युचुअल फंड आदि शुरू कर सकती थीं और परिसंपत्ति प्रबंधन सेवा दे सकती थीं। ब्लैकरॉक, जेपी मॉर्गन, मॉर्गन स्टैनली और बैंक ऑफ अमेरिका जैसे अमेरिकी संस्थानों ने चीन में अपना कारोबार बढ़ाने की घोषणा की थी जबकि दोनों देशों के बीच भूराजनीतिक तनाव बढ़ रहा था। इस दौरान, उनके बीच कारोबारी तनाव भी चरम पर था। इनमें से एक कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक चीन के वित्तीय बाजार का आकार 31 लाख करोड़ डॉलर है जबकि 16 लाख करोड़ डॉलर का बॉन्ड बाजार लगातार बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि हर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कंपनी इस बाजार में प्रवेश चाहेगी। अमेरिका, जापान और यूरोपीय कंपनियां भी चीन में निवेश बनाए रखने और बढ़ाने के लिए ऐसी ही दलील दे रही हैं। चीन की बात करें तो ये कंपनियां उसके लिए भूराजनीतिक बंधक की तरह हैं और उसके आक्रामक तौर तरीकों के लिए आसान शिकार भी हैं।
दो दिसंबर, 2021 को उप विदेश मंत्री शीई फेंग ने शांघाई में अमेरिका चीन चैंबर ऑफ कॉमर्स तथा अमेरिका-चीन कारोबारी परिषद को संबोधित करते हुए अमेरिकी कारोबारियों से कहा कि वे अमेरिकी सरकार पर अपनी तरफ से दबाव बढ़ाएं ताकि वह चीन को लेकर व्यावहारिक और तार्किक नीति अपनाए, कारोबारी, औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्र में जंगी हालात न बनाए तथा भूराजनीतिक तथा वैचारिक विवादों से बचे।
इसके साथ एक चेतावनी भी लिपटी हुई थी। उन्होंने कहा कि बड़े पेड़ की छाया का लाभ लेना अच्छी बात है लेकिन अगर दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ते हैं तो कारोबारी समुदाय चुपचाप लाभ नहीं कमाता रह सकता।
विभिन्न देशों पर कारोबार तथा राजनीति के घालमेल के आरोप बीच चीन ने यह लगभग घोषित कर दिया है कि वह जरूरत पडऩे पर व्यापार और वाणिज्यिक रिश्तों का इस्तेमाल अपने भूराजनीतिक लाभ के लिए करेगा। सीपीसी भूराजनीतिक लक्ष्यों के लिए अपने वाणिज्यिक हितों का बलिदान दे सकती है। उसका मानना है कि विदेशी कंपनियां चीन के बाजार की पहुंच गंवाने को लेकर इतनी भयभीत होंगी कि वे अपनी सरकारों को चीन के हितों का ध्यान रखने के लिए मनाएंगी। अमेरिका-चीन कारोबारी परिषद ने गत वर्ष एक विस्तृत अध्ययन तैयार किया था जिसमें बताया गया था कि अगर दोनों अर्थव्यवस्थाओं में अलगाव होता है तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को क्या कीमत चुकानी होगी।
जापान और यूरोपीय संघ के कारोबारों में भी ऐसा ही तनाव व्याप्त है और चीन न केवल एशिया बल्कि शेष विश्व को लेकर अपनी आक्रामक विदेशी नीति में इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहा है। हमने देखा कि कैसे भारत का अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्रों में चीनी आयात पर निर्भरता कम करने का प्रयास नाकाम रहा है। औषधीय घटकों तथा इलेक्ट्रॉनिक सामान को लेकर चीन पर निर्भरता 70 फीसदी से अधिक है जबकि चुंबक के मामले में हम 100 फीसदी चीन पर निर्भर हैं। यह रातोरात नहीं बदल सकता।
महामारी के बाद चीन के दबदबे वाली आपूर्ति शृंखला में उथलपुथल की आशंकाओं के बीच चीन के कारोबारी साझेदारों के पास बहुत कम विकल्प मौजूद हैं। यह सही है कि चीन के सामने भी यह खतरा मंडराया कि आपूर्ति शृंखला में उसका स्थान अन्य देश ले लेंगे। चीन से कारोबार वियतनाम, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और यहां तक कि भारत भी स्थानांतरित हुआ लेकिन ऐसा बहुत छोटे पैमाने पर हुआ।
आर्थिक स्तर पर परस्पर निर्भरता को प्राय: अच्छा माना जाता है। लेकिन चीन ने एक ऐसी नीति बनाई है जहां विदेशी साझेदारों पर अपनी निर्भरता कम करने का प्रयास है जबकि चीन पर उनकी निर्भरता बढ़ाई जा रही है। अन्य देश आर्थिक और कारोबारी रिश्तों का इस्तेमाल चीन के हितों को सीमित करने के लिए न कर पाएं लेकिन चीन ऐसा करता रहे। कोविड महामारी का प्रसार शुरू होने के कुछ समय बाद 10 अप्रैल, 2020 को सातवें केंद्रीय वित्तीय और आर्थिक सम्मेलन में राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने इस रुख के बारे में खुलकर बात की। उन्होंने चीन की उत्पादन और आपूर्ति शृंखलाओं के छिपे जोखिम की बात की जो महामारी के दौर में उभर कर सामने आया। उन्होंने घरेलू आपूर्ति शृंखलाएं बनाने की बात कही जिन्हें स्वतंत्र रूप से नियंत्रित किया जा सके तथा जो सुरक्षित एवं विश्वसनीय हों। इस संदर्भ में उन्होंने अहम उद्योगों में आयात प्रतिस्थापन की बात कही। इसके साथ ही उन्होंने अंतरराष्ट्रीय उत्पादन शृंखलाओं एवं आपूर्ति शृंखलाओं की चीन पर निर्भरता बढ़ाने की भी हिमायत की। इस दौरान उन्होंने उच्च गति वाली रेल, इलेक्ट्रिक उपकरण, नए ऊर्जा और संचार उपकरणों आदि की बात की जहां चीन की श्रेष्ठता जाहिर है। उन्होंने कहा कि कृत्रिम तौर पर आपूर्ति में समस्या पैदा कर सकने वाले विदेशियों के खिलाफ यह शक्तिशाली प्रतिरोधक उपाय होगा। चीन के पास एक ऐसी नीति है जो अहम क्षेत्रों में चीन पर निर्भरता उत्पन्न करेगी ताकि अनिवार्य हो जाने पर इसे बतौर हथियार इस्तेमाल किया जा सके।
शी चिनफिंग की इन टिप्पणियों के आलोक में इस विरोधाभास को समझा जा सकता है कैसे चीन अधिक घरेलू आर्थिक नीति अपना रहा है और विदेशियों पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है जबकि इसी समय वह अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्रों को विदेशियों के लिए खोल भी रहा है। अपने भारी भरकम वित्तीय बाजार को खोलना ऐसा ही एक कदम है। सीपीसी के लिए अर्थशास्त्र और राजनीति एक ही है। इस प्रकार की आर्थिकी के पीछे के भूराजनीतिक इरादों को समझा जाना जरूरी है तभी चीन की चुनौती से निपटने के लिए नीतियां बन सकेंगी।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो हैं)
