उच्चतम न्यायालय ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी पी शांता के मामले में 1995 में जो फैसला सुनाया था, उसके बाद कई पेशों को उपभोक्ता कानून के दायरे में शामिल किया जाने लगा।
इस फैसले का सबसे अधिक खामियाजा सफेद कमीज धारी पेशेवरों को उठाना पड़ रहा है। जी हां, यहां डॉक्टरों की ही बात की जा रही है, जिनके पेशे पर कानूनी व्याख्या का सबसे गलत असर पड़ा है। पहले डॉक्टरों को सिर्फ असावधानी बरतने के लिए दोषी करार देते हुए सजा सुनाई जा सकती थी।
पर अब उन पर दो कारणों से मुकदमा चलाया जा सकता है। एक तो लापरवाही बरतने के लिए उन पर आपराधिक मामला चलाया जा सकता है और दूसरा लापरवाही बरतने के लिए उपभोक्ता फोरम में उनसे मुआवजे की मांग भी की जा सकती है।
हालांकि इस मामले में डॉक्टरों को काला कोट पहनने वाले कानूनी पेशेवरों से चिढ़ होती होगी। वकीलों ने चेन्नई में हाल में 9 दिन काम करना बंद कर दिया और अपने मुवक्किलों की अनदेखी कर दी। लेकिन कानूनी पेशेवरों के इस तरह के कारनामे के खिलाफ उनके मुवक्किल शायद ही मुकदमा दायर करें या फिर खुद को हुई परेशानी के लिए मुआवजे की मांग करें।
इसकी वजह यह हो सकती है कि यह व्यवस्था तो उन्हीं लोगों के हाथों में है, जो इसे ध्वस्त कर रहे हैं। हालांकि, खुद उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे फैसले सुनाए हैं जिनमें वकीलों की हड़ताल को गैरकानूनी करार दिया गया।
ऐसे कई दूसरे पेशे भी हैं जिनमें गलतियों के लिए अदालत में कार्यवाही की जा सकती है। उदाहरण के लिए ऑडिटरों के पेशे को ही ले सकते हैं जो किसी फर्जी कंपनी में बही खातों की लीपापोती करते धरे जाते हैं।
या फिर उन सिविल इंजीनियरों का पेशा भी यहां सटीक बैठता है जिनके जिम्मे बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं का विकास होता है और बनाने के थोड़े समय बाद ही वह संरचना ध्वस्त हो जाती है।
पर फिर भी ऐसे पेशेवरों पर बहुत अधिक खतरा इसलिए भी नहीं होता है क्योंकि इनमें ग्राहक (यहां उन्हें भुक्तभोगी भी कहा जा सकता है) अपने अधिकारों को लेकर सचेत नहीं रहते और दूसरे वे अदालती पचड़ों में नहीं पड़ना चाहते हैं।
अदालती कार्यवाही का खामियाजा अगर किसी पेशे को भुगतना पड़ता है तो वह डॉक्टरों का ही है। यह बात अलग है कि उच्चतम न्यायालय ने कई ऐसे फैसले सुनाए हैं जिनसे यह साफ होता है कि वे डॉक्टरों को बिना बात के कानूनी मामलों में घसीटे जाने से बचाना चाहते हैं।
पिछले हफ्ते फिर एक ऐसा फैसला सुनाया गया था, जिसे देखकर चिकित्सा पेशेवरों पर तरस आता है। यह मामला मार्टिन डिसूजा बनाम मोहम्मद इसहाक का था, जिसमें राष्ट्रीय आयोग ने एक व्यक्ति को 7 लाख रुपये दिये जाने का फैसला सुनाया था। उस व्यक्ति की शिकायत थी कि डॉक्टर ने उसे जो दवा दी थी, उसे खाने से उसे सुनने में परेशानी होने लगी।
पर उच्चतम न्यायालय ने विशेषज्ञों की रिपोर्ट देखने और कानूनी पक्षों का अध्ययन करने के बाद राष्ट्रीय आयोग के इस फैसले को रद्द कर दिया।
‘अदालत को उन चिकित्सकों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है जो अपने पेशे में सावधानी नहीं बरतते हैं।’ साथ ही अदालत ने कहा, ‘पर यह कहना भी सही होगा कि देश में चिकित्सकों के खिलाफ झूठी शिकायतों के मामले भी बढ़ते ही जा रहे हैं।’
हालांकि जब से इस पेशे को हर छोटी बात के लिए अदालत में घसीटने का सिलसिला शुरू हुआ है तब से ही डॉक्टरों का व्यवहार भी बदल गया है। उदाहरण के लिए पहले जब कोई मरीज हृदयाघात के लक्षण लेकर डॉक्टर के पास आता था तो उसे सीसीयू में ले जाने से पहले मॉरफिया या पेथिडाइन की सुई लगाई जाती थी।
दरअसल ऐसे मामलों में समय बहुत कीमती होता है और तत्काल कोई फैसला लेना जरूरी होता है। पर शांता के मामले के बाद जो चिकित्सक मरीजों को ये इंजेक्शन लगाते हैं, उन्हें उपभोक्ता फोरम में लापरवाही बरतने के लिए खड़ा किया जाता है।
इसे देखते हुए ही कई चिकित्सकों ने कानूनी पचड़े में फंसने के डर से आपातकालीन इंजेक्शन लगाना छोड़ दिया है। कुछ ऐसा ही मामला सड़क हादसों में सिर पर लगे जख्म को लेकर देखने को मिलता है।
पहले डॉक्टर ऐसे हादसों में जख्मी को प्राथमिक उपचार के तौर पर सिर पर टांके लगाया करते थे ताकि उनका ज्यादा खून नहीं बहे। पर अब वे गंभीर रूप से घायलों को सरकारी अस्पतालों में भेज देते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उपभोक्ता फोरम को कोई ऐसा फैसला नहीं सुनाना चाहिए जिसे लेकर डॉक्टरों में इस पेशे को लेकर सेवा का भाव खत्म होने लगे। चिकित्सकों को सिर्फ इस कारण से सजा नहीं दी जा सकती है कि उन्होंने जो उपचार किया वह सफल नहीं रहा या फिर उनके हाथों से कोई अनहोनी हो गई है।
हो सकता है कि पूरी सावधानी बरतने के बाद भी कुछ मामलों में सफलता नहीं मिल पाई हो क्योंकि कई बार हालात ऐसे होते हैं जो इंसान के बस के बाहर होते हैं।चिकित्सा पेशे में किन सिद्धांतों का होना जरूरी है सवाल कई सालों से उठता रहा है।
जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य ‘2005’ के मामले में यह साफ किया गया था कि, ‘डॉक्टरों के लिए अपने पेशे का अच्छा जानकार होना बहुत जरूरी है।
साथ ही उसे अपने मरीजों की बेहतर देखभाल भी करनी चाहिए। कानून न तो यह अपेक्षा करता है कि मरीजों की बहुत अधिक देखभाल की जाए और न ही यह चाहता है कि मरीज के प्रति बिल्कुल लापरवाही बरती जाए।’
अदालत हमेशा से यह कोशिश करती आई है कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और चिकित्सा संस्थान मरीजों और डॉक्टरों के बीच बेहतर सामंजस्य बिठाने के लिए काम करते रहें। 1995 के मामले के बाद से ही इस समस्या का पता चल गया था पर उसके बाद भी नियामकों ने अब तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं।
हाल के एक फैसले में यह सुझाया गया है कि अगर पेशेवर इकाइयां खुद अपनी ओर से कोई कदम नहीं उठाती हैं तो ऐसे में क्या करना सही रहेगा। जब भी कभी किसी डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ कोई मुकदमा दायर किया जाता है तो सबसे पहले इस मामले को एक कुशल चिकित्सक या विशेषज्ञ समिति के पास भेजा जाना चाहिए।
अगर पहली बार में ऐसा लगता है कि किसी मामले में चिकित्सक की लापरवाही रही है तो फिर उस चिकित्सक को अपने बचाव को मौका दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को यह भी चेताया है कि जान बूझकर डॉक्टरों को गिरफ्तार या परेशान नहीं किया जाए, नहीं तो उनके खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।