चार वर्ष पहले वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को जिस प्रकार पेश किया गया था, उस स्वरूप में वह अनिवार्य रूप से अधूरा था। यह एक राजनीतिक वार्तालाप का उत्पाद था जो एक अहम अप्रत्यक्ष कर सुधार को उसकी राह की संवैधानिक बाधाओं से निजात दिलाने के लिए आवश्यक था। इसके बावजूद कई लोगों ने इसका स्वागत किया क्योंकि इसमें कर कानून को स्पष्ट करने, कर भुगतान को सरल बनाने, लीकेज कम करने, अनुपालन बढ़ाने और राजस्व बढ़ाने की क्षमता थी। बहरहाल, उस क्षमता में निरंतर सुधार की आवश्यकता थी। यानी क्रियान्वयन के दौरान जब भी दिक्कत सामने आए इसमें निरंतर सुधार की जरूरत थी। जीएसटी परिषद ने नियमित बैठकें की हैं और जीएसटी में बदलाव भी किया है, लेकिन दीर्घकालिक नजरिये से वे सभी बेहतर नहीं हैं। बल्कि उनमें से अनेक अवसरों पर तो केवल दरों में साधारण कमी की गई जिसके चलते राजस्व में कमी आई और जटिलता बढ़ी।
शुरुआती दौर में कुछ बुनियादी गलतियां हुईं। उदाहरण के लिए राज्य सरकारों के अप्रत्यक्ष कर उपायों को राजनीतिक वजहों से बरकरार रखना। इसके चलते जीएसटी सही मायनों में देशव्यापी नहीं बन सका और राज्य और केंद्र के स्तर पर अलग-अलग जीएसटी पंजीयन की आवश्यकता पड़ी। कई महत्त्वपूर्ण जिंस, खासतौर पर शराब, बिजली और अचल संपत्ति को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया क्योंकि राज्य सरकारें इनकी दरों में बदलाव का अधिकार अपने पास रखना पसंद करती हैं। शुरुआती राजनीतिक समझौते के रूप में इसे समझा जा सकता है लेकिन इन अपवादों को स्थायी नहीं माना जा सकता। खासतौर पर यह देखते हुए कि जीएसटी लागू होने के बाद ईंधन करों में तेजी का राज्यों और केंद्र की सरकार के राजस्व संग्रह इजाफे में काफी अधिक योगदान रहा है। जीएसटी रियायतों की 400 से अधिक वस्तुओं की सूची को छोटा करना होगा।
यदि अनुपालन और राजस्व में सुधार को फलीभूत करना है तो दरों को सरल बनाना होगा और उनमें इजाफा करना होगा। इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि सहज, एकल दर वाले जीएसटी की व्यवस्था अधिक किफायती और उत्पादक साबित हुई है। इसके अलावा एक बार जब पेट्रोलियम उत्पाद जीएसटी दायरे में शामिल हो जाएंगे तो राजस्व प्रतिपूर्ति एकल दर कैसी होगी, इससे भी जीएसटी परिषद के चयन का पता चलेगा। जीएसटी से राजस्व बढ़ाने का दूसरा तरीका यह है कि इसे करदाताओं के लिए आसान बनाया जाए। खासतौर पर इनपुट टैक्स क्रेडिट हासिल करना उतना आसान नहीं है जितना यह हो सकता था।
मौजूदा जटिल व्यवस्था की जगह एक सीधी सपाट नकारात्मक सूची दी जानी चाहिए जहां तमाम अन्य इनपुट के विरुद्ध कर दावा पेश किया जा सके। ऐसा करने से अनुपालन बढ़ेगा और कर अधिकारियों पर से भी दबाव कम होगा। अर्थव्यवस्था में उच्च मूल्य के लेनदेन में डिजिटलीकरण जिसमें ई-इनवॉइसिंग शामिल है, के बढ़े स्तर को देखते हुए ऐसे तरीके तलाश किए जाने चाहिए ताकि सिस्टम में ऐसे लेनदेन को दर्ज करते समय दोहराव कम किया जा सके। आखिरकार जीएसटी के राज्य/केंद्रशासित प्रदेश वाले दोहरे ढांचे के समापन का समय तय किया जाना चाहिए और उसके बाद एकल पोर्टल बनना चाहिए जहां जीएसटी नेटवर्क के तहत पंजीकृत सभी उपक्रमों के लिए एक लॉग इन की व्यवस्था हो।
इनमें से कुछ सुधारों के लिए राज्य सरकारों को कहीं अधिक प्रयास करने होंगे। केंद्र सरकार को भी उनके साथ अधिक उदार होना होगा। उदाहरण के लिए ईंधन से अर्जित राजस्व की साझेदारी जैसे मसलों और राज्यों को राजस्व कमी की भरपाई जैसे मामलों में। ऐसा करके ही जीएसटी में वास्तविक सुधार होगा और यह अपनी पूरी क्षमता हासिल कर सकेगा।
