जनरल इलेक्ट्रिक का विविध कंपनियों वाले बड़े कारोबारी समूह का अवतार पिछले दिनों 129 वर्ष की अवस्था में समाप्त हो गया। एक समय अमेरिकी कारोबार के वैश्विक प्रतीक रहे इस समूह के अंत पर किसी ने आंसू नहीं बहाए। इसके बजाय निवेशकों ने जीई के तीन सार्वजनिक कंपनियों में बदलने का जश्न मनाया। इसकी वजह समझना आसान है: सन 2020 में पूरे समूह का राजस्व 79.62 अरब डॉलर था जो सन 2008 के 180 अरब डॉलर के राजस्व से बहुत कम था। सन 1896 से ही ब्लू चिप सूचकांक का हिस्सा रहने के बाद आखिरकार 2018 में यह डाऊ जोंस औद्योगिक औसत से भी बाहर हो गया था।
जीई के मुख्य कार्याधिकारी लैरी कल्प की रणनीति सन 1980 और 1990 के दशक में जैक वेल्च के नेतृत्व में अपनाई गई नीति से एकदम अलग है। वेल्च ने कंपनी का विस्तार किया और इसे एक विशाल औद्योगिक इकाई में बदला। उस वक्त परमाणु ऊर्जा, लोकोमोटिव, लाइट बल्ब, टेलीविजन और यहां तक कि आइसक्रीम जैसे विविध कारोबारी मॉडल को भी जोखिम कम करने का प्रभावी तरीका माना जाता था। दलील यह थी कि जब एक उद्योग मंदी में हो तो दूसरा फलफूल सकता है। यदि उस नीति का अंत निकट आया है तो वजह स्पष्ट है: तमाम अन्य कारोबारी समूहों की तरह जीई भी यह साबित करने में सक्षम नहीं है कि यह उसके तमाम हिस्सों से अधिक मूल्यवान है।
जीई इकलौती ऐसी कंपनी नहीं है जिसने हाल के दिनों में बड़े कारोबारी समूह के स्वरूप को त्यागा हो। पिछले दिनों दो अन्य समूहों जॉनसन ऐंड जॉनसन तथा तोशिबा ने भी ऐसा ही किया। इसके पहले यूनाइटेड टेक्रॉलजीज, डाऊ ड्यूपॉन्ट, हनीवेल, टिसेेनक्रुप, एबीबी और सीमेंस ऐसा कर चुके हैं।
अब रॉयल डच शेल को दो हिस्सों में बांटने की मांग उठ रही है और यह बहस दोबारा छिड़ गई है कि क्या पुराने कारोबारी समूह रूपी मॉडल को दफन करने का वक्तआ गया है।
हालांकि कई विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे समूहों को विकसित देशों में डायनासोर कहा जा सकता है लेकिन भारत जैसे उभरते बाजारों में वे प्रासंगिक बने रहेंगे। ऐसा इसलिए कि ऐसी तमाम कंपनियां हैं जो बड़ा आकार न होने के कारण प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। इसके अलावा विविधता वाले कारोबारी समूहों को अभी भी सस्ती पूंजी का लाभ मिलता है क्योंकि अच्छा प्रदर्शन कर रहे कारोबार से मिली पूंजी को ऐसे नए कारोबार में निवेश किया जा सकता है जिनके भविष्य में तगड़ा मुनाफा कमाने की आशा हो।
परंतु यह पारंपरिक नजरिया तेजी से बदल रहा है क्योंकि बाजार एक उद्योग पर केंद्रित कंपनियों में रुचि दिखा रहे हैं। तुलनात्मक रूप से देखें तो भारत में कई बड़े कारोबारी समूह राजस्व वृद्धि और मार्जिन सुधार के मामले में पिछडऩे लगे हैं। बेन ऐंड कंपनी द्वारा भारत और दक्षिणपूर्वी एशिया में कारोबारी समूहों पर किए गए अध्ययन में इसे बड़ी चिंता का विषय बताया गया है। उनका प्रदर्शन प्रभावित होने के साथ ही शंकालु निवेशकों की ओर से उन्हें भंग करने की मांग सामने आने लगती है। पश्चिम में यही हुआ है। अध्ययन से संकेत मिलता है कि अगर भारत और दक्षिणपूर्वी एशिया में ऐसा होने लगा तो ये समूह प्रतिभा, पैसा और अवसर कुछ नहीं जुटा पाएंगे और उनका प्रदर्शन और प्रभावित होगा। यह अहसास बढ़ रहा है कि जिन कंपनियों का ध्यान एक कारोबार पर केंद्रित होता है उनका प्रदर्शन बेहतर होता है और वे ज्यादा उत्पादक साबित होती हैं। यदि समूह से अलग कर दिया जाए तो पूंजी आवंटन को लेकर उनके निर्णय भी उचित होते हैं।
कुछ बड़े समूहों का समेकित वित्तीय अनुपात अभी भी अच्छा है लेकिन ऐसा प्राथमिक तौर पर इसलिए है कि एक कंपनी आमतौर पर समूह के अन्य खराब प्रदर्शन करने वाले कारोबारों की भरपाई कर देती है। उदाहरण के लिए टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज टाटा समूह की तमाम सूचीबद्ध कंपनियों के बाजार पूंजीकरण में 67 फीसदी हिस्सेदारी रखता है और समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा संस के लाभांश आय में वह 90 फीसदी की हिस्सेदार है। टीसीएस एक दशक से समूह की वृद्धि का आधार बनी हुई है। इसी प्रकार आदित्य बिड़ला समूह से अगर अल्ट्राटेक सीमेंट और ग्रासिम इंडस्ट्रीज को हटा दिया जाए तो ये कम प्रभावशाली दिखेंगी।
टाटा संस के चेयरमैन एन चंद्रशेखरन ने कुछ वर्ष पहले द इकनॉमिक टाइम्स को दिए साक्षात्कार में समूह की दुविधा को अच्छी तरह प्रकट किया था। उन्होंने कहा था कि टाटा समूह को अपनी जटिलता कम करने की आवश्यकता है और वह चाहेंगे कि समूह पांच, छह या सात बड़े कारोबारों पर ध्यान केंद्रित करे, बजाय कि 110 या 120 कंपनियों का विशाल समूह बने रहने के।
बड़े समूहों में एक संबद्ध समस्या अनुषंगी और संबद्ध कंपनियों में शेयरों की आपसी अंशधारिता की भी है। आमतौर पर सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी समूह की कमजोर कंपनियों की मदद करती है जिससे पूंजी का गलत आवंटन होता है। समूह इसे कारोबारी रिश्तों का हवाला देकर उचित ठहराते हैं लेकिन निवेशक इसे कम प्रतिफल और खराब कारोबारी संचालन मानते हैं।
इसके अलावा देश के अधिकांश कारोबारी समूह आजादी के बाद लाइसेंस कोटा राज में बने थे। उस लिहाज से देखें तो उनमें से अधिकांश को दुर्घटनावश बने समूह कहा जा सकता है क्योंकि उनके पीछे कोई रणनीतिक विचार नहीं था। मामला बस यह था कि राजनीतिक संपर्कों का इस्तेमाल करके तमाम ऐसे कारोबार शुरू किए गए जो आपस में असंबद्ध थे। यही वजह है कि मफतलाल, खेतान, थापर, मोदी, साराभाई और रुइया जैसे तमाम कारोबारी बाहरी माहौल में आ रहे तेज बदलाव से तालमेल नहीं बिठा सके और अप्रासंगिक हो गए।
यकीनन अंबानी और अदाणी जैसे कुछ समूह अब भी कामयाब बने हुए हैं, लेकिन वह एक अलग किस्सा है।
