इन दिनों काफी अजीबोगरीब घटनाएं घट रही हैं। जितिन प्रसाद कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को यह जानकारी टेलीविजन से मिली। कर्नाटक में मई में जिन चार विधानसभा और एक लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए उनमें मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा भाजपा के लिए तीन विधानसभा उपचुनाव और एक मात्र लोकसभा उपचुनाव जिताने में कामयाब रहे लेकिन इसके बावजूद पार्टी के नेताओं ने दिल्ली नेतृत्व के सामने उन्हें हटाने की मांग रखी। यह सही है कि केंद्रीय मंत्री सुरेश अंगाड़ी के निधन के कारण रिक्त हुई लोकसभा सीट पर पार्टी की जीत का अंतर 3.5 लाख मतों से घटकर मात्र 5,400 मतों का रह गया लेकिन लोकसभा में भाजपा सांसदों की तादाद उतनी ही बनी रही।
बहरहाल इन जीतों के बावजूद येदियुरप्पा को उस समय शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा जब 6 जून को संवाददाताओं ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें बदलने की मांग के बावजूद वह कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने रहेंगे। उनका जवाब उलझाने वाला था। उन्होंने कहा कि जब तक आला कमान का समर्थन हासिल है वह पद पर बने रहेंगे। लेकिन उन्हें नेता तो विधायक दल ने चुना था? तो उन्हें आला कमान का जिक्र क्यों करना पड़ रहा है?
कारण यह है कि जब बात कर्नाटक की हो तो आला कमान भी एक से अधिक हैं। गृहमंत्री अमित शाह जनवरी 2021 में कर्नाटक में थे। जब उनसे नेतृत्व परिवर्तन के बारे में पूछा गया तो अपने स्वभाव के अनुसार ही उन्होंने स्पष्टवादिता से कहा, ‘कर्नाटक में विकास संबंधी कई कार्य किए गए हैं और येदियुरप्पा के नेतृत्व में राज्य विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है। यह सिलसिला जारी रहेगा।’
इसके बावजूद असहमत नेताओं को दिल्ली में शक्तिशाली संरक्षण हासिल है। वरिष्ठ विधायक बासनगौड़ा यातनाल ने येदियुरप्पा पर आरोप लगाया है कि वह ‘वंशवादी राजनीति और भ्रष्टाचार’ कर रहे हैं। वरिष्ठ मंत्री और पूर्व उपमुख्यमंत्री के एस ईश्वरप्पा राज्यपाल को पत्र लिखकर शिकायत कर चुके हैं कि मुख्यमंत्री उनके विभाग में दखलंदाजी कर रहे हैं। यातनाल तथा पांच अन्य विधायकों ने भी बल्लारी में स्टील कंपनी जेएसडब्ल्यू को जमीन हस्तांतरित करने के मुख्यमंत्री के प्रस्ताव के खिलाफ भी एक खुला पत्र लिखा है। यह बात अलग है कि यह निर्णय मंत्रिमंडल ने न्यायालय के आदेश के पश्चात लिया था।
करीब तीन सप्ताह पहले छह विधायक और एक वरिष्ठ मंत्री बदलाव की आकांक्षा के साथ दोबारा दिल्ली गए थे। दिल्ली में उनकी मुलाकात बाकी के आला कमान से हुई: ये हैं भाजपा के संगठन सचिव बीएल संतोष जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से भाजपा में आए ताकि पार्टी में संगठन की आंख और कान बनकर रह सकें। येदियुरप्पा के वफादार नेता पूछ रहे हैं कि पार्टी ने इन सभी नेताओं के खिलाफ अनुशासनहीनता के चलते कदम क्यों नहीं उठाए। यह भी कि आखिर क्यों दिल्ली में बैठे कुछ वरिष्ठ नेता आग को हवा दे रहे हैं?
कर्नाटक भाजपा के एक वरिष्ठ नेता इसका पाठ इस प्रकार करते हैं: मुख्यमंत्री बनने वाले पहले प्रचारक नरेंद्र मोदी थे, उनके बाद एम एल खट्टर हरियाणा के मुख्यमंत्री बने। आरएसएस से भाजपा में आने का एक अर्थ यह भी था कि अब आरएसएस को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन मानने के लिए प्रशिक्षित और उसकी विचारधारा मानने वाले व्यक्तियों के लिए राजनीति कोई बुरा शब्द नहीं रह गया। यानी महत्त्वाकांक्षा मौजूद है और अशांत महत्त्वाकांक्षा वाला व्यक्तिकिसी भी चीज का आकांक्षी हो सकता है, कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद का भी।
अन्य प्रभावी कारक भी काम कर रहे हैं। येदियुरप्पा, संतोष और आरएसएस के नए सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबले, तीनों में एक बात साझा है। तीनों शिमोगा के हैं। संतोष के लिए येदियुरप्पा कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो सुदूर किसी किले में रहता हो। वह पड़ोस के घर में रहने वाले की तरह हैं।
पार्टी में कोई व्यक्ति नहीं है जो इस बात से इनकार करेगा कि सभी भाजपा नेताओं में केवल येदियुरप्पा ही हैं जिनका प्रभाव संपूर्ण कर्नाटक में है। परंतु उनकी आलोचना करने वाले भी कई हैं। सन 2016 में जब उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया गया तब उन्हें पार्टी के भीतर तमाम मतभेदों को संभालना था। ईश्वरप्पा कुरुबा (गड़रिया) जाति से आते हैं और उन्होंने अपनी जाति के लोगों को काफी हद तक एकजुट किया और उसे एक सामाजिक गठबंधन के माध्यम से लिंगायत (येदियुरप्पा) और वोक्कालिगा (एचडी देवेगौड़ा) दोनों से मुकाबला करने के लिए तैयार किया। सदानंद गौड़ा भी वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं जबकि जगदीश शेट्टार लिंगायत हैं। इन दोनों की भी अनेक शिकायतें हैं। उन्हें बीएल संतोष के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिला जो उन्हें धैर्य से और सहानुभूतिपूर्वक सुनता है।
अमेरिकन टेलीविजन सिरीज हाउस ऑफ काड्र्स जैसी राजनीति में मोदी और शाह की जोड़ी येदियुरप्पा के साथ है लेकिन संतोष खामोश रहने को तैयार नहीं हैं। येदियुरप्पा के समर्थक मानते हैं कि यह एक षडयंत्र का हिस्सा है जिसके तहत पहले उन्हें इस्तेमाल किया जाएगा और फिर त्याग दिया जाएगा। परंतु येदियुरप्पा समुचित प्रत्युत्तर देने में सक्षम हैं। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव 2023 तक नहीं होने हैं। बीच की अवधि में काफी कुछ हो सकता है लेकिन पहले भाजपा को तय करना होगा कि वह क्या चाहती है?
