कोविड महामारी ने गरीबों एवं अमीरों, शहरी एवं ग्रामीण लोगों और संगठित एवं असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की जीवन-निर्वाह परिस्थितियों एवं उनकी संभावनाओं में फर्क डालने वाली खाई को और भी चौड़ा कर दिया है। विशेषाधिकार-प्राप्त समूह और विशेषाधिकार से वंचित तबके के बीच की इस गहरी खाई की प्रकृति को समझने के लिए 1990 के बाद से आय वितरण में आया जबरदस्त बदलाव एक शुरुआती बिंदु हो सकता है। विश्व असमानता डेटाबेस के मुताबिक कमाने वाले लोगों के शीर्ष 10 फीसदी लोगों की कुल आय में हिस्सेदारी 2019 में 57 फीसदी हो गई थी जबकि नब्बे से पहले के चार दशकों में यह औसतन 36 फीसदी हुआ करती थी। वहीं मध्यवर्ती 40 फीसदी लोगों की कुल आय में हिस्सेदारी 44 फीसदी से घटकर 30 फीसदी पर आ गई है जबकि नीचे के 50 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी 20 फीसदी से घटकर सिर्फ 13 फीसदी रह गई है।
आय वितरण की बढ़ती असमानता ऑल इंडिया डेट ऐंड इन्वेस्टमेंट सर्वे से मिले संपत्ति वितरण आंकड़ों में भी नजर आती है। यह दिखाता है कि शीर्ष 10 फीसदी धनवान लोगों के पास 1991 में जहां 52 फीसदी संपत्ति हुआ करती थी, वहीं 2012 में यह आंकड़ा बढ़कर 63 फीसदी हो गया। इनमें से भी शीर्ष एक फीसदी धनवानों की हिस्सेदारी 17 फीसदी से बढ़कर 28 फीसदी हो गई। इनमें खास तौर पर विरासत में संपत्ति पाने वाले, नए पूंजीपति एवं रियल एस्टेट डेवलपर शामिल थे। वर्ष 2010 में 69 अरबपति कारोबारियों के बारे में किए गए एक विश्लेषण से पता चला था कि उनमें से 17 लोगों ने फार्मा एवं आईटी जैसे ज्ञान-आधारित उद्योगों में अपनी किस्मत बनाई थी, 18 लोग निर्माण एवं रियल एस्टेट से जुड़े थे और सात अन्य जिंस कारोबार से जुड़े लोग थे।
भारत में मोटी तनख्वाह पाने वाले प्रबंधकों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। एएसआई के आंकड़ों के मुताबिक 1990 के बाद संगठित विनिर्माण क्षेत्र में वेतन एवं पारिश्रमिक बढऩे की एक बड़ी वजह यह थी कि प्रबंधकों के वेतन में 13 गुना वृद्धि हुई जबकि कर्मचारी स्तर पर वेतन तीन गुना ही बढ़ा। कर्मचारियों के बीच भी वेतन वृद्धि स्नातक एवं उससे ऊपर की डिग्री रखने वालों की अधिक थी। इसी अवधि में शुद्ध मूल्य वद्र्धन में मुनाफे की हिस्सेदारी दोगुनी हो चुकी है और वेतन मद पर खर्च घटा है जिसका एक बड़ा कारण संगठित क्षेत्र में ठेके पर नियुक्तियों का बढ़ता चलन है।
आय एवं संपत्ति वितरण की इस तस्वीर को सामाजिक आयाम के साथ जोड़कर देखना चाहिए। संपत्ति से आय अर्जित करने वाले, पूंजीपतियों एवं सफेदपोशों के विशेषाधिकार-प्राप्त तबके में शामिल अधिकतर लोग सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी स्तर से आते हैं जहां पर संपत्ति विरासत में मिलती है और गुणवत्तापरक शिक्षा भी हासिल होती है। वहीं वंचित तबके के लोग असंगठित क्षेत्र के कामगार, कृषि मजदूर, छोटी जोत वाले किसान, कारीगर एवं रेहड़ी-पटरी पर दुकान लगाकर आजीविका कमाने वाले स्व-वित्तपोषित होते हैं। उन्हें अपने माता-पिता से बहुत कम संपत्ति विरासत में मिली होती है, गुणवत्तापरक शिक्षा तक पहुंच नहीं होती है और जातिगत एवं धार्मिक पूर्वग्रहों के मामलों में अक्सर वे पीडि़त पक्ष ही होते हैं। उनमें से बहुत कम लोग ही आर्थिक तरक्की के पायदान पर ऊंचे चढ़ पाते हैं।
कोविड महामारी के आजीविका पर पड़े असर को रोजगार में आई गिरावट के जरिये ही आंका गया, खासकर पहली लहर में लगे सख्त लॉकडाउन के समय। सीएमआईई के चर्चित सर्वे के अनुसार पिछले साल अप्रैल में बेरोजगारी दर 24 फीसदी तक जा पहुंची थी और मई 2020 में भी यह 21 फीसदी रिकॉर्ड की गई थी। किसी तरह की रोजगार सुरक्षा से वंचित असंगठित क्षेत्र में करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया था। भारत में अपने घर से दूर जाकर रोजगार में लगे करीब 3 करोड़ कामगारों में से करीब 1 करोड़ लोग तो उस समय हताश होकर बड़ी मुश्किलें झेलते हुए अपने घर लौट गए थे।
हालांकि लॉकडाउन की बंदिशें शिथिल होने के साथ ही बेरोजगारी दर कम होने लगी थी लेकिन महामारी की दूसरी लहर ने रोजगार संभावनाएं बेहतर होने की प्रक्रिया सुस्त कर दी है। अप्रैल 2021 में बेरोजगारी दर बढऩे के बीच सफेदपोश नौकरियां भी घटीं। अप्रैल में वेतनभोगी नौकरियां वर्ष 2019-20 की तुलना में करीब 15 फीसदी तक कम हो गईं। लेकिन इनमें से अधिकांश लोगों को रोजगार सुरक्षा के लाभ मिले हुए हैं और उन्हें प्रवासी एवं असंगठित क्षेत्र के कामगारों की तरह गहरा तनाव नहीं झेलना पड़ा। अगर वर्ष 2020 के लिए आय वितरण का कोई आकलन उपलब्ध होता तो पता चलता कि साधन-संपन्न एवं वंचित तबकों के बीच आय की खाई कितनी चौड़ी हो चुकी है।
यह खाई उस समय और परेशानी पैदा कर रही थी जब स्वास्थ्य देखभाल का सवाल आया। भारत का स्वास्थ्य ढांचा आम दिनों के लिए भी पर्याप्त नहीं है। स्वास्थ्य देखभाल पर सार्वजनिक व्यय जीडीपी का करीब 1.3 फीसदी है जो कि अधिकांश विकासशील देशों में भी बहुत कम है। आबादी के अनुपात में तैनात डॉक्टरों एवं नर्सों की संख्या भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) मानकों से काफी कम है। स्वास्थ्य देखभाल में होने वाला निजी निवेश भी काफी हद तक शहरी क्षेत्रों में विशेषज्ञता वाले अस्पताल खोलने तक ही सीमित रहा है।
महामारी के दौरान शहरों में रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच अधिक बेहतर थी। महामारी के शुरुआती दौर में यह बात काफी मायने रखती है जब कोरोनावायरस का प्रसार मुख्य रूप से बड़े शहरों में ही था। लेकिन दूसरी लहर में हालात तेजी से बदले। अप्रैल 2020 में कोरोना संक्रमण का शहरी एवं ग्रामीण अनुपात 70-30 था लेकिन अप्रैल 2021 में यह एकदम पलटकर 40-60 हो गया। वायरस के छोटे कस्बों एवं गांवों तक पहुंचते ही विकेंद्रित प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल को अब तक नजरअंदाज किए जाने की बात खुलकर सामने आई और इसने महामारी के असर को और बढ़ा दिया। मीडिया में आई रिपोर्टों ने बाकायदा दिखाया है कि दूसरी लहर कितनी त्रासद साबित हुई है। महामारी ने इस महान खाई की हकीकत और वंचित तबके को हर रोज पेश आते खतरे भी दर्शाए हैं।
तमाम विरोध-प्रदर्शनों से थोड़े काबू में आई सरकार देर से ही वही काम करेगी जो तमाम गैर-सरकारी संगठन एवं लोग गांवों और कस्बों में वंचित तबके को बेहतर स्वास्थ्य देखभाल देने के लिए करते रहे हैं। लेकिन इस महा-विभाजन के दूसरे पहलुओं को भुलाने के साथ नजरअंदाज भी किया जाएगा।
महामारी का बुरा दौर बीतने के साथ ही हम विशेषाधिकार-प्राप्त तबके के हितों को पूरा करने और वंचित तबके को नकदी एवं थोड़ी मदद देकर चुप कराने वाली सियासी रणनीति पर लौट आएंगे। इसका कारण यह है कि हमारे सारे राजनीतिक दलों की कमान विशेषाधिकार-प्राप्त समूह के ही हाथों में है जिनमें दलितों, आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों के नाम पर सियासत करने वाले भी शामिल हैं। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक सत्ता में रही वाममोर्चा सरकार भी अपने अंतिम दिनों में इसी राह पर चल पड़ी थी। सच तो यह है कि इस गहरी विभाजक खाई को तभी पाटा जा सकेगा जब हमारे पास वंचितों का ऐसा राजनीतिक दल या गठबंधन हो जिसकी कमान वंचितों के हाथ में हो और वह वंचितों के लिए काम कर रहा हो। ऐसा होने तक इस खाई को पाटने का कोई उपाय नहीं है। महज पीड़ा कम करना सामाजिक असंतोष टालने की कोशिश भर है।
