वर्ष 1991 के भुगतान संतुलन संकट का जन्म एक भारी राजकोषीय घाटे की वजह से हुआ था और उसके बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने भारत को संकट से उबारने में मदद की थी। उसके बाद से ही भारत की सरकारें कम-से-कम जाहिर तौर पर दो बातों को लेकर आसक्त रही हैं। पहला है सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर और दूसरा है राजकोषीय घाटा।
सरकारों ने वृद्धि दर बढ़ाने और घाटे को कम रखने पर हमेशा ध्यान दिया है। लेकिन सभी सरकारें इस मोर्चे पर खासी नाकाम रही हैं क्योंकि ऐसा करना भारत जैसे देश में तो नामुमकिन है। भारत में करोड़ों लोग गरीब हैं और सरकार को उनके लिए कल्याणकारी कार्यक्रम चलाने जरूरी हैं।
हमें अभी तक यह बात सीख लेनी चाहिए। लेकिन पुराने अमेरिकी विचारों की ताकत के चलते हम इसे नहीं समझ पाए हैं। अर्थशास्त्रियों का यह समूह वृद्धि संवद्र्धन एवं घाटा नियंत्रण दोनों पर ही जोर देता है।
ऐसी सनक से निजात पाने के लिए एक गहरे संकट की दरकार होती है। 1991 में उद्योग जगत को लाइसेंसराज के चंगुल से मुक्त करने की कवायद को ही याद कीजिए। लिहाजा मुझे उम्मीद है कि मोदी मार्क-2 भी अपनी तवज्जो बदलेंगे। अब विश्व बैंक एवं आईएमएफ के अर्थशास्त्रियों के साथ उनके प्रचारक के तौर पर सक्रिय एवं अमूमन कांग्रेस से जुड़े अर्थशास्त्रियों की विदाई का समय आ गया है।
मैं यह नहीं कह रहा कि जीडीपी वृद्धि दर एवं राजकोषीय घाटे को अहमियत देना कोई बुरी बात है। बेशक ऐसा नहीं है। दोनों ही चीजें महत्त्वपूर्ण हैं। लेकिन इन्हें लेकर एक तरह की सनक होना बेवकूफी है। इसका नतीजा खराब वृहद-आर्थिक एवं सूक्ष्म-आर्थिक नीतियों के रूप में निकलता है। हमने 1993 के बाद से ही बार-बार इसे घटित होते हुए देखा है।
पहले जीडीपी पर गौर करते हैं। भारत में हम अर्थव्यवस्था के 65 फीसदी आउटपुट की गणना ही नहीं करते हैं और बाकी 35 फीसदी के बारे में भी सिर्फ जानकारी-आधारित अनुमान ही लगाते हैं। फिर भी जब बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय महज कुछ महीनों के लिए हमसे 10 डॉलर भी आगे निकल जाती है तो हम खुद को बेरहमी से पीटने लगते हैं। भारत की जीडीपी की तुलना बांग्लादेश से करना एक दशक पहले तक ठीक होता लेकिन अब ये दोनों अर्थव्यवस्था एक समूह का हिस्सा नहीं रहीं। कई गरीब अफ्रीकी देशों की भी प्रति व्यक्ति आय भारत या बांग्लादेश से अधिक होने से आपको पता चल जाना चाहिए कि ये तुलनाएं आर्थिक न होकर किस हद तक राजनीतिक हैं।
राजकोषीय घाटे के बारे में आप 1981 के बाद के किसी भी वित्त मंत्री, वित्त सचिव, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख या भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर से पूछें तो वह इसकी पुष्टि करेगा कि भारत के राजकोषीय घाटा आंकड़े को उन्होंने यकीन करने लायक बनाया है।
अगर जीडीपी वृद्धि की दर या राजकोषीय घाटा नहीं तो फिर सरकार को किस चीज के प्रति आसक्त होना चाहिए? जवाब है केवल तीन चीजों की धुन हो। खाद्य मुद्रास्फीति क्योंकि इसका कल्याण पर सीधा असर होता है, विदेशी मुद्रा भंडार क्योंकि यह विदेशी निवेशकों एवं विक्रेताओं के लिए एक सशक्त संकेतक होता है। और तीसरी चीज है राजस्व घाटा। इन चीजों पर ही केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण होता है। बाकी सभी संकेतकों के निर्धारण में राज्यों की बड़ी भूमिका होती है। अगर मैं चिकित्सकीय उपमाओं का इस्तेमाल करूं तो खाद्य मुद्रास्फीति एक मरीज के बुखार जैसी है। जीडीपी वृद्धि चाहे जितनी अच्छी हो, अगर खाद्य महंगाई बढ़ी हुई है तो वह हमेशा बुरी होती है। वहीं इसका कम रहना अच्छा होता है।
इस बीच राजस्व घाटा आपके रक्तचाप एवं रक्त-शर्करा जैसा है। ये दर्शाते हैं कि कितनी जल्द आपके कुछ बड़ी बीमारियों की चपेट में आने की आशंका है। यहां पर भी वही बात लागू होती है, जितना अधिक उतना खराब और जितना कम उतना अच्छा।
विदेशी मुद्रा भंडार की हालत शरीर की प्रतिरोधक क्षमता जैसी है। यह जितना अधिक हो उतना ही बेहतर है। भारत को कम-से-कम 1 लाख करोड़ डॉलर का भंडार बनाने का लक्ष्य रखना चाहिए। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि वह रकम पूंजी खाते में है या चालू खाते में।
पिछले 10 वर्षों के शासनकाल को इन तीन मानदंडों पर भी परखने की जरूरत है, न कि कुछ मिथकीय जीडीपी आंकड़ों के। इसमें से करीब आधा समय संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार थी और आधे समय से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार है। जीडीपी आंकड़ों को तवज्जो न देने का कारण यह है कि हम न तो इसे पूरी तरह और न ही सही ढंग से आंकते हैं।
सवाल है कि इन तीनों कारकों ने 2010 से अब तक कैसा प्रदर्शन किया है? आंकड़ों से तस्वीर बहुत साफ हो जाती है। इस तरह वर्ष 2010 और 2015 के बीच खाद्य मुद्रास्फीति औसतन 10 फीसदी थी और 2015 में खाद्य कीमतें 2008 की तुलना में 65 फीसदी अधिक थीं। वर्ष 2015 से खाद्य मुद्रास्फीति औसतन 4 फीसदी रही है।
वर्ष 2010 और 2015 के बीच राजस्व घाटा 3-4 फीसदी था। उसके बाद से यह 2.3 फीसदी रहा है लेकिन इस साल यह बहुत अधिक होने वाला है। विदेशी मुद्रा भंडार 31 मार्च, 2014 को 304 अरब डॉलर था और सितंबर 2020 के मध्य में यह 545 अरब डॉलर हो चुका था।
वर्ष 2010-15 के दौरान कुल शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 106 अरब डॉलर था जबकि अगले पांच वर्षों में यह बढ़कर 180 अरब डॉलर हो गया। शुद्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेश प्रवाह 2010-15 के दौरान 121 अरब डॉलर रहा था लेकिन 2015-20 के दौरान वृद्धि धीमी होने से इसमें तीव्र गिरावट आई और यह महज 33 अरब डॉलर रह गया।
फिर असली सवाल यह है कि हम किसे तवज्जो देने वाले हैं? सिर्फ एक आंकड़ा या बहुत सारे आंकड़ों को? इसका जवाब इस पर निर्भर करता है कि आप कोई सियासी संदेश दे रहे हैं या आर्थिक।
