बीते कुछ महीनों में ब्याज दर से जुड़ी अपेक्षाओं में तेजी से इजाफा हुआ और इसके साथ ही ‘दुर्घटनाओं’ मसलन फर्मों की नाकामी को लेकर चिंताएं बढ़ गईं। ऐसा इसलिए कि यह बात वित्तीय बाजारों को प्रभावित कर सकती है। आर्थिक ताकतें अक्सर स्वत: समायोजन कर लेती हैं।
ब्याज दरों में इजाफे के साथ मुद्रास्फीति से निपटने की कोशिश अर्थव्यवस्था पर असर डाल सकती है। एक बार मुद्रास्फीति के कम होने के बाद दरें दोबारा गिर सकती हैं। यह वैसा ही है जैसे हम किसी पहाड़ की चोटी पर खड़े हों और दूसरी चोटी पर जाने का प्रयास करें।
अगर सबकुछ ठीक रहा तो हम बेहतर जगह पहुंच सकते हैं। लेकिन असली चुनौती है बीच की घाटी को पार करना। जैसा कि फेड के पूर्व चेयरमैन बेन बर्नान्के ने 2018 में लिखा था कि 2008 की मंदी शायद बहुत हल्की रहती अगर वित्तीय बाजारों में घबराहट न फैली होती। क्या सिलिकन वैली बैंक (एसवीबी) की नाकामी वैसी ही एक दुर्घटना है?
एसवीबी की नाकामी की कुछ विशिष्ट वजह हैं। उसके जमाकर्ताओं का आधार विविधतापूर्ण नहीं था और इस बात ने इसके संचालन को और अधिक शंकास्पद बना दिया। बैंक के जमा में बहुत अधिक हिस्सा गैर बीमाकृत राशि का भी था। जमा के प्रवाह में भी बहुत अधिक अस्थिरता देखने को मिली: कोविड के पहले के 5 अरब डॉलर से बढ़कर 2021 के अंत तक यह राशि 173 अरब डॉलर हुई और उसके बाद इसमें तेजी से गिरावट आई क्योंकि स्टार्टअप ने फंडिंग की कमी के समय अपनी नकदी का प्रयोग कर लिया।
चूंकि ग्राहकों को बहुत अधिक ऋण की जरूरत नहीं थी इसलिए जमा को सुरक्षित प्रतिभूतियों में डाल दिया गया। यह राशि 28 अरब डॉलर से बढ़कर 125 अरब डॉलर हो गई। इन बॉन्ड के डिफॉल्ट होने का कोई जोखिम नहीं था लेकिन फिर भी ब्याज दर का जोखिम उनके सामने था। ब्याज दर बढ़ने के साथ बॉन्ड के मूल्य में कमी आई। ये नुकसान शुरुआत में कागज पर रहे लेकिन बाद में ये सामने आ गए क्योंकि बैंक को जमा निकासी की ग्राहकों की जरूरत पूरी करने के लिए बॉन्ड की बिक्री करनी पड़ी।
एसवीबी में ये तमाम कारक थे और जरूरी नहीं कि अन्य बैंकों पर इसका अधिक असर हो। इसके अलावा सप्ताहांत पर हुए नियामकीय हस्तक्षेप ने भी एसवीबी के जमाकर्ताओं को आश्वस्त किया। न्यूयॉर्क में सिग्नेचर बैंक ने भी ऐसा ही किया। इससे जमाकर्ता आश्वस्त हुए कि उनकी राशि सुरक्षित है।
हालांकि अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था के सामने अभी भी बॉन्ड पोर्टफोलियो के अहम नुकसान का जोखिम है। सुरक्षित परिसंपत्यिों मसलन सरकारी बॉन्ड और मोर्गेज समर्थित प्रतिभूतियों में उनकी धारिता 2019 के 3 लाख करोड़ डॉलर से बढ़कर 2021 में 5 लाख करोड़ डॉलर हो गई। कुछ बिकवाली के बावजूद वह 4.2 लाख करोड़ डॉलर बनी हुई है। फेडरल डिपॉजिट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन (एफडीआईसी) ने अनुमान लगाया कि दिसंबर 2022 में इन पोर्टफोलियो को 620 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।
इसका आधा हिस्सा बॉन्ड बाजार में होगा यानी बैंक को आशा नहीं है कि परिपक्वता अवधि के पहले इनकी बिकवाली होगी। अमेरिकी फेड की क्वांटिटेटिव टाइटनिंग (मौद्रिक नीति को सख्त बनाना) भी इन पोर्टफोलियो को प्रभावित कर रही है। अमेरिकी सरकारी बॉन्ड प्रतिफल बढ़ा है लेकिन मोर्गेज समर्थित प्रतिभूतियों में यह और तेजी से बढ़ा है। सरकारी बॉन्ड प्रतिफल तथा मोर्गेज समर्थित प्रतिभूतियों में अंतर 40 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया क्योंकि फेड ने इन प्रतिभूतियों की खरीद बंद कर दी।
एसवीबी की नाकामी के कारण बाजार अब फेड की ओर से दरों में धीमी वृद्धि की उम्मीद कर रहे हैं। फेड फंड की दरों के अनुमान एक दिन में करीब 60 आधार अंक गिरे। यानी फेड की मुद्रास्फीति को दो फीसदी रखने की प्रतिबद्धता को जांच से गुजरना होगा। अगर वह कमजोर पड़ी तो वैश्विक वित्तीय परिसंपत्तियों पर इसका दूरगामी असर होगा।
उभरते बाजारों की बात करें तो भविष्य की दरों के धीमा होने का अर्थ है सहज मौद्रिक हालात। फिलहाल शायद हालात वैसे न हों क्योंकि वे अनिश्चितता में अहम इजाफे से प्रभावित हैं। अहम बात यह है एक दशक की मौद्रिक सहजता के बाद मौद्रिक सख्ती और दरों में इजाफे के कारण एसवीबी जैसी घटना शायद इकलौती न हो।
कॉर्पोरेट डेट-जीडीपी अनुपात की बात करें तो विकसित देशों में यह 2010 के स्तर से काफी अधिक है क्योंकि निरंतर धीमी ब्याज दरों के कारण पूंजीगत ढांचा बदल गया और कॉर्पोरेट बैलेंस शीट पर पहले की तुलना में अधिक कर्ज को मदद मिली। कम दरों के कारण बीबीबी रेटिंग वाले इश्यूअर्स की हिस्सेदारी 2012 के 32 फीसदी से बढ़कर 50 फीसदी हो गई। उच्च दरें ऐसे कर्जदारों को प्रभावित करती हैं।
2023 में बड़ी समस्या रेटिंग में गिरावट से है जो इन कर्जदारों को बहुत बुरे स्तर तक पहुंचा सकता है जहां वे बीमा और पेंशन फंड के निवेश योग्य न रह जाएं। निरंतर कम दरों के कारण ऐसी कंपनियां भी सामने आईं जो अपने परिचालन मुनाफे से ब्याज भरपाई नहीं कर सकतीं।
संपत्ति में तेजी से गिरावट भी प्रतिकूल हालात का उदाहरण है। 2002 से 2007 के बीच जहां वैश्विक संपदा और जीडीपी अनुपात में इजाफे ने वृद्धि को गति प्रदान की वहीं 2010 से 2021 के बीच की अपेक्षाकृत तेज वृद्धि का श्रेय कम ब्याज दरों को दिया जा सकता है। संपदा वित्तीय झटकों के दौरान बचाव मुहैया कराती है और कंपनियों तथा लोगों की जोखिम लेने में मदद करती है। अगर उच्च दरों के कारण संपत्ति में कमी आती है तो कॉर्पोरेट और आम परिवारों में नकदी की कमी का एक चक्र शुरू हो सकता है।
वर्ष 2019 से 2021 के बीच अचल संपत्ति की कीमतों में जो इजाफा हुआ, वह कई बड़े बाजारों मसलन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जर्मनी में 30 से 50 वर्षों का उच्चतम स्तर पर है। अचल संपत्ति मौद्रिक पारेषण का सबसे सक्षम जरिया है। उच्च दरों के कारण अचल संपत्ति कीमतों में गिरावट आ रही है। यहां दो जोखिम उत्पन्न होते हैं: पहला, धीमी आर्थिक वृद्धि क्योंकि अधिकांश बाजारों में आवास निर्माण जीडीपी में अहम हिस्सेदार है और दूसरा वित्तीय क्षेत्र में तनाव क्योंकि अहम बाजारों में बैंकों के ऋण में आवास ऋण की हिस्सेदारी 30 से 60 फीसदी तक है।
ऐसे ऋण में से 20 फीसदी का ऋण मूल्य अनुपात 80 फीसदी से अधिक है। इस स्तर पर हमारी चिंता वृद्धि के धीमेपन को लेकर अधिक है लेकिन बात यह भी है कि जर्मनी, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे बाजारों ने दो दशक से अचल संपत्ति क्षेत्र में मंदी का सामना नहीं किया है और उनकी वित्तीय व्यवस्था पर दबाव नहीं है। विदेशी पूंजी बाजारों पर भारत की निर्भरता उसे वैश्विक वित्तीय तंत्र की घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनाती है जिनके चलते डॉलर की आवक अचानक रुक सकती है। ऐसे में नीति निर्माताओं द्वारा बरती जा रही सतर्कता एकदम उचित है।