पिछले दिनों मैंने ऊर्जा जगत के कारोबारियों और विशेषज्ञों की वार्षिक बैठक में शिरकत की जिसका आयोजन अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में किया गया। सेरावीक नामक यह आयोजन इस प्रकार के आयोजनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और कोविड-19 महामारी के कारण इसे दो वर्षों के अंतराल के बाद आयोजित किया गया। यह समय भी बेहद खराब है-रूस और यूक्रेन के बीच जंग चल रही है, प्रतिबंध लागू हैं और ऊर्जा की कीमतें नियंत्रण के बाहर हो रही हैं।
सच यह है कि युद्ध के दौरान तथा उसके पहले ऊर्जा कीमतों में हुए इजाफे ने पारंपरिक तेल एवं गैस कंपनियों की भूमिकाओं की ओर हमारा ध्यान दोबारा आकृष्ट किया है। ये कंपनियां युद्ध के बाद के ऊर्जा परिदृश्य में अपनी भूमिका को लेकर उत्साहित नजर आ रही हैं। इसमें ज्यादा तेल एवं गैस उत्खनन से लेकर यूरोप के आकर्षक नये बाजार में उनकी भूमिका से जुड़ी संभावनाएं शामिल हैं।
एक झूठी बात यह स्थापित की जा रही है कि कीमतों में मौजूदा वृद्धि इसलिए हो रही है कि जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा की ओर बदलाव के कारण तमाम दिक्कतें पैदा हो रही हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक ऊर्जा क्षेत्र के लिए तरल प्राकृतिक गैस (एलएनजी) को नए सिरे से महत्त्वपूर्ण बनाकर प्रस्तुत किया है। एलएनजी वहां काम आती है जहां पाइपलाइन नहीं पहुंच पाती। यानी जहां प्रमुख गैस उत्पादक कतर और अमेरिका आपूर्ति नहीं कर पाते। उन्होंने यह व्यवस्था की है कि पहले गैस को तरल बनाया जाए ताकि उसे कंटेनरशिप के माध्यम से ढोया जा सके तथा वहां ले जाकर उसे दोबारा गैस में परिवर्तित करके विद्युत संयंत्रों, वाहन या घरों में ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
युद्ध की शुरुआत के बाद एलएनजी की मांग में काफी इजाफा हुआ है। उदाहरण के लिए अमेरिका में इसकी अति है। यही कारण है कि सेरावीक में बातचीत का मुद्दा यह भी था कि अमेरिका अपने साझेदारों के साथ मिलकर अपेक्षाकृत स्वच्छ जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को कैसे बढ़ावा दे सकता है। प्राकृतिक गैस कोयले की तुलना में 50 फीसदी तक कम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन इसके साथ मीथेन उत्सर्जन की एक अलग समस्या है। प्राथमिक तौर पर इसे जलाने से और परिवहन तथा वितरण के दौरान लीकेज से ऐसी स्थिति बनती है। मीथेन एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है। यह वातावरण में बहुत समय तक नहीं रहती लेकिन यह तापमान को कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ाती है।
परंतु विशालकाय तेल एवं गैस उद्योग मौजूदा ऊर्जा संकट का फायदा उठाना चाहता है। यही वजह है कि इस उद्योग का कहना है कि स्वच्छ गैस क्रांति को जिम्मेदारीपूर्वक अंजाम देना होगा। उद्योग जगत मीथेन गैस को कम करने में निवेश करेगा, कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन को उपयोग में लाया जाएगा या उसे भंडारित किया जाएगा तथा इसका इस्तेमाल स्वच्छ हाइड्रोजन के निर्माण में किया जाएगा। ग्रीन हाइड्रोजन जिसका इस्तेमाल नवीकरणीय ऊर्जा में किया जाता है, उसके उलट यह हाइड्रोजन नीली होगी क्योंकि इसे प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल करके उत्पादित किया जाएगा तथा उसके बाद इस उत्सर्जन को निपटाया जाएगा और कम किया जाएगा। यह योजना ऊर्जा संकट से जूझ रही सरकारों के लिए लोरी के समान है। यूरोपीय संघ पहले ही प्राकृतिक गैस रूपी जीवाश्म ईंधन को स्वच्छ ऊर्जा घोषित कर चुका है।
इस परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन का प्रबंधन बिना ऊर्जा के भविष्य में परिवर्तन किए भी किया जा सकता है तथा जिन कंपनियों को कारोबार की समझ है वे दुनिया को चलाना जारी रखेंगी। इस तथ्य को भूल जाइए कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) ने कहा था कि अगर दुनिया को 2050 तक विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य पर बने रहना है तो सन 2020 के बाद तेल एवं गैस में नया निवेश पूरी तरह बंद करना होगा।
मेरा मानना है कि गैस दुनिया के हमारे हिस्से में महत्त्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा है। इसलिए कि यहां कोयले के इस्तेमाल के कारण वायु प्रदूषण की समस्या बहुत गंभीर है। सन 1998 में हमने सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट (सीएसई) में हमने यह हिमायत की थी कि सार्वजनिक परिवहन में डीजल की जगह सीएनजी का इस्तेमाल किया जाए। ऐसा किया भी गया और हवा की गुणवत्ता में सुधार भी आया। अब देश भर के औद्योगिक बॉयलर्स में कोयले का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे खराब हवा के कारण बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हो रही हैं। विकल्प यही है कि बॉयलर्स तथा प्रदूषणकारी ताप बिजली घरों में स्वच्छ प्राकृतिक गैस या बायोमास का इस्तेमाल किया जाए। हमें स्वच्छ ऊर्जा की आवश्यकता है ताकि हम स्वच्छ बिजली के माध्यम से ऊर्जा के इस्तेमाल में बदलाव ला सकें और वायु प्रदूषण से निपटने के लिए बायोमास, नवीकरणीय ऊर्जा और प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल कर सकें।
लेकिन सवाल यह है कि क्या पहले से औद्योगीकृत दुनिया को भी इस जीवाश्म ईंधन के उपयोग का लाभ मिलना चाहिए। सच तो यह है कि कार्बन बजट को पहले ही कुछ देशों की वृद्धि के लिहाज से अनुचित किया जा चुका है। इन देशों को कार्बन कम करने की आवश्यकता है यानी उन्हें नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाना होगा। वे दोबारा जीवाश्म ईंधन में निवेश करके इसे स्वच्छ और हरित ऊर्जा नहीं बता सकते।
दिक्कत केवल यह नहीं है कि जीवाश्म ईंधन के निरंतर इस्तेमाल के कारण ये देश और अधिक कार्बन बजट चाहेंंगे। बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि ऊर्जा बदलाव की कीमत बढ़ेगी। एलएनजी को पहले ही यूरोप को दिया जा रहा है जिसकी कीमत चुकाने की क्षमता पहले ही अधिक है। इसका अर्थ यह होगा कि भारत जैसे देशों को कोयले के जंजाल से निकलने में मुश्किल होगी। कोयला भले ही गंदा है लेकिन यह सस्ता ईंधन है। यह धरती के भीतर पाया जाता है इसलिए ऊर्जा सुरक्षा विशेषज्ञों की भी इस पर नजर रहती है। यह हमें पीछे की ओर ले जाता है। यह पूरी दुनिया को असुरक्षित बनाता है। यही हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात है।
