वित्त मंत्रालय में व्यय विभाग ने 20 अक्टूबर को ‘खरीद एवं परियोजना प्रबंधन पर सामान्य दिशानिर्देश’ पर अधिसूचना जारी की थी। इन नए दिशानिर्देशों में पिछले एक दशक से सरकारी खरीद प्रक्रिया में जारी गंभीर त्रुटियों को दूर करने का प्रयास किया गया है। 22 पृष्ठों के इस दस्तावेज में कार्य अनुबंध एवं सेवाओं की सरकारी खरीद में कई जरूरी कदमों के सुझाव दिए गए हैं। मगर निजी क्षेत्र को सबसे अधिक खुशी इस बात से होगी कि विलंबित भुगतान पर कड़ा रुख अपनाया गया है।
दस्तावेज में कहा गया है कि बिल (व्यय का ब्योरा) सौंपे जाने के 10 दिनों के भीतर रनिंग अकाउंट बिल (अनुबंध आधारित सौदों में कार्य की प्रगति के आधार पर भुगतान)के 75 प्रतिशत से कम हिस्से का भुगतान करने की अनुमति नहीं होगी। शेष रकम का भुगतान बिल सौंपने के 28 कार्य दिवसों के भीतर अंतिम जांच पूरी होने के बाद करना होगा। अंतिम बिल का भुगतान भी ठेकेदारों को कार्य पूरा होने के तीन महीने के भीतर दिया जाना चाहिए। दस्तावेज में कहा गया है कि अगर ठेकेदार से बिल मिलने के बाद 30 दिनों से अधिक समय तक भुगतान नहीं होता है तो सार्वजनिक प्राधिकरण ब्याज भुगतान करने का प्रावधान तैयार कर सकते हैं। बिल भुगतान में असाधारण देरी होने पर संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही तय होनी चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि सालाना 100 करोड़ रुपये से अधिक भुगतान वाले अनुबंधों का क्रियान्वयन करने वाले सभी अधिकारियों को ठेकेदार द्वारा सौंपे गए बिलों की निगरानी के लिए एक ऑनलाइन प्रणाली होनी चाहिए। सरकार या सार्वजनिक उपक्रमों के खिलाफ निर्णय आने पर अपील करने का निर्णय सामान्य तौर-तरीकों से नहीं लिया जाना चाहिए। किसी आदेश या निर्णय के खिलाफ अपील दायर करने से पहले एक विशेष बोर्ड या समिति द्वारा निर्णय की समीक्षा की जानी चाहिए। दस्तावेज के अनुसार मध्यस्थ एवं न्यायालय के आदेश के खिलाफ अपील सभी बातों एवं सफलता मिलने की संभावना पर विचार करने के बाद ही दायर की जानी चाहिए। जिन मामलों में मंत्रालय या किसी विभाग ने मध्यस्थता आदेश को चुनौती दी है और इसके परिणामस्वरूप रकम का भुगतान नहीं हुआ है तो विचाराधीन रकम के 75 प्रतिशत हिस्से का भुगतान ठेकेदार या कन्सेशनायर को बैंक गारंटी के एवज में देना होगा। वास्तव में ऐसे आदेश के परिप्रेक्ष्य में रकम जारी करने पर निर्णय पांच वर्ष पहले लिया गया था मगर अब जाकर वित्त मंत्रालय ने सामान्य वित्तीय नियमों के तहत आधिकारिक दिशानिर्देश जारी किए हैं। चयन के नियमों में भी बदलाव किए गए हैं। सभी परामर्श बोलियों के लिए खरीद की तीन विधियों की पहले ही अनुमति दी जा चुकी है ये सभी प्रभावी हैं। इनमें गुणवत्ता एवं लागत आधारित चयन (क्यूसीबीएस), न्यूनतम लागत प्रणाली (एलसीएस) और एकल स्रोत चयन (एसएसएस) हैं। अब नियत बजट चयन (एफबीएस) की भी अनुमति दी गई है जिसके तहत कीमत तय होती है और चयन अधिकतम योग्यता के आधार पर होता है।
‘कार्य एवं गैर-परामर्श सेवाओं’ के लिए अधिसूचना में क्यूसीबीएस का विकल्प दिया गया है। पहले इस विकल्प की अनुमति नहीं थी। दो परिस्थितियों में अब इसकी अनुमति होगी। पहली स्थिति तब होगी जब परियोजना किसी अधिकार प्राप्त प्राधिकरण द्वारा क्वालिटी ऑरिएंटेड प्रॉक्योरमेंट (क्यूओपी) घोषित कर दी गई है। दूसरी स्थिति तब होगी जब गैर-परामर्श सेवाओं के लिए खरीद का अनुमानित मूल्य 10 करोड़ रुपये से अधिक नहीं होता है। क्यूसीबीएस के तहत गैर-वित्तीय मानकों का अधिकतम भारांश 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। आलोचना झेल रहे एल1 ढांचा समाप्त किए जाने का भी जिक्र किया गया है।
पहले एकल बोलियों की अनुमति दी जाती थी जिससे कई बाधाएं आती थीं मगर अब इनसे अलग हटकर काम करने की पहल की गई है। अगर किसी मामले में केवल एक बोली आती है तो भी पूरी प्रक्रिया वैध मानी जाएगी बशर्ते खरीद प्रक्रिया का विज्ञापन उपयुक्त मानदंडों का पालन कर प्रकाशित किया गया गया था और बोलीदाताओं को बोलियां सौंपने के लिए पर्याप्त समय मिला था।
मगर यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता कि सभी मुद्दों का समाधान खोज लिया गया है और अब कोई त्रुटि नहीं रह गई है। क्यूसीबीएस में गैर-वित्तीय अंकों के लिए अधिकतम 30 प्रतिशत भारांश दर्शाता है कि इस ढांचे को आगे बढ़ाने में अधिक साहस का परिचय नहीं दिया गया है। इस दस्तावेज में खरीद की एक विधि के रूप में ‘स्विस चैलेंज’ पर भी कुछ नहीं कहा गया है।
बैंक गारंटी मनमाने ढंग से भुनाने या काली सूची में डालने की धमकी सार्वजनिक एजेंसियों में आम बात रही है। दिशानिर्देशों में इन दोनों खंडों में स्वीकृत व्यवहारों पर प्रकाश डालना चाहिए। अनुबंध दस्तावेज में दिया गया एक्सकेलेशन फार्मूला (कीमतों में अंतर की गणना करने की विधि) निर्माण में इस्तेमाल होने वाली बुनियादी चीजों की कीमतों में गैर-नियोजित खर्चों की भरपाई के लिए उपयुक्त नहीं है और इस समस्या का समाधान खोजा जाना चाहिए।
अधिकारी लिए गए निर्णयों के कार्योत्तर परिणामों को लेकर लगातार चितिंत रहते हैं। ऐसे किसी खरीद सुधार में इस समस्या का निदान खोजने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस पर भी पर्याप्त रोशनी नहीं डाली गई कि जब सरकारी अधिकारी इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं करेंगे तो उस स्थिति में क्या होगा? कुल मिलाकर सरकारी खरीद प्रक्रिया में इन बदलावों का स्वागत किया जाना चाहिए। यह देखते हुए बहुत खुशी हो रही है कि वित्त मंत्रालय, नीति आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग और लेखा एवं महानियंत्रक परीक्षक एक दूसरे के साथ समन्वय के साथ काम कर रहे हैं। ऐसे ही कदम उठाए जाते रहे तो कारोबार सुगमता काफी हद तक सुधर जाएगी।
(लेखक ढांचागत क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के ढांचागत क्षेत्र पर राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष भी हैं। ये उनके निजी विचार है। )
