भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने पिछले शुक्रवार को घोषित अपनी पहली मौद्रिक नीति में उस मुद्दे को छुआ है, जिससे वह पिछले कुछ समय से जुड़े रहे हैं।
दरअसल कुछ लोगों का मानना है कि सुब्बाराव केंद्रीय बैंक के गवर्नर के रूप में उतने स्वतंत्र नहीं होंगे जितने कि उनके पूर्ववर्ती वाईवी रेड्डी रहे थे। मिंट रोड पर निगरानी रखने वाले लोग 5 साल के लंबे कार्यकाल के दौरान रेड्डी के कामकाज करने के तरीके के आदी हो चुके थे।
इन पर्यवेक्षकों की राय थी कि मौद्रिक नीति तैयार करने में सुब्बाराव बिल्कुल स्वतंत्र दृष्टिकोण नहीं अपनाएंगे और वही कुछ करेंगे, जिससे वित्त मंत्रालय संतुष्ट रहे। बहरहाल इसमें कहीं से भी सुब्बाराव की गलती नहीं है। कोई भी आदमी जो नॉर्थ ब्लॉक से रिजर्व बैंक में आता है, उसे कुछ इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ता है।
सितंबर के पहले सप्ताह में सुब्बाराव रिजर्व बैंक के गवर्नर बने। उसके पहले वह भी वित्त सचिव थे। उन्होंने वित्त मंत्री पी चिदंबरम के साथ निकटता से काम किया। इससे सामान्य अवधारणा बनती है कि वह नॉर्थ ब्लॉक की जरूरतों से ज्यादा प्रभावित रहेंगे और किसी भी हालत में वह नॉर्थ ब्लॉक का जरूर ध्यान रखेंगे।
हाल के वर्षों में आरएन मल्होत्रा और एस वेंकिटरामन जो 1990 की शुरुआत में रिजर्व बैंक के गवर्नर बने थे। वे भी नॉर्थ ब्लॉक में काम करने के बाद आए थे और उन्हें भी इस तरह के ही पूर्वग्रह की समस्या का सामना करना पड़ा था।
हालांकि सुब्बाराव के सामने इन लोगों की तुलना में ज्यादा समस्याएं हैं। सुब्बाराव के सामने रेड्डी के जैसे मजबूत व्यक्तित्व का उदाहरण था जबकि मल्होत्रा और वेंकिटरामन के सामने ऐसा नहीं था। रेड्डी ने अपनी नीतियों के बलबूते एक अलग धाक बनाई कि रिजर्व बैंक का गवर्नर अपने ढंग से और अपनी सोच के मुताबिक चल सकता है।
तो आखिर सुब्बाराव ने अपने नीतिगत वक्तव्य में क्या कहा? जब वह वैश्विक वित्तीय संकट के प्रबंधन के मसले पर अपनी बात कह रहे थे, सुब्बाराव ने कहा कि, ‘अब एक नई जरूरत आ पड़ी है। वह जरूरत है सरकार और नियामक संस्थाओं के बीच घनिष्ट समन्वय की। इसके साथ ही संस्था की अलग पहचान और स्वतंत्रता पर भी कोई खतरा नहीं होना चाहिए।’
रिजर्व बैंक के गवर्नर ने स्पष्ट किया कि भारत में बहुत बेहतरीन व्यवस्था है, जिससे काम करने वाली एजेंसियां काम करती हैं, वह आज भी समय की मांग है। लेकिन इसके साथ ही इस बात की भी जरूरत है कि इस बात की कोशिश की जानी चाहिए कि ये व्यवस्थाएं बनी रहें और भविष्य में इसे और मजबूती मिल सके।
सुब्बाराव ने अपने नीतिगत वक्तव्य में जो कुछ कहा, वास्तव में उससे यह संकेत मिलता है कि नॉर्थ ब्लॉक से रिश्ते किस तरह के होने चाहिए। अब न केवल केंद्रीय बैंक के मामले में, बल्कि इस तरह के संबंधों की जरूरत वित्तीय क्षेत्र के अन्य नियामकों के साथ भी है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने जो कुछ भी कहा है, उससे नॉर्थ ब्लॉक को एक राहत जरूर मिलती है।
गवर्नर ने खासकर नियामक एजेंसियों और सरकार के बीच गहरे समन्वय की बात कही है। अब अहम सवाल यह है कि इस तरह का समन्वय कैसे स्थापित किया जाए, जिससे संस्थाओं की पहचान और उनकी स्वतंत्रता भी बरकरार रखी जा सके। और एक अहम सवाल यह भी है कि रिजर्व बैंक के नए गवर्नर किस तरह की व्यवस्था बनाएंगे, जिससे स्थिति में सुधार भी आ सके और व्यवस्था को मजबूती भी मिल सके।
सरकार के अधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि सरकार और नियामक संस्थाओं के बीच समन्वय बनाने के लिए औपचारिक कार्यविधि तैयार किए जाने जैसी किसी भी कोशिश से नई समस्या खड़ी हो सकती है। आप विचार करें कि एक ऐसी औपचारिक कार्यविधि जिससे आप नियामक संस्थाओं की समग्रता और स्वतंत्रता से कोई समझौता न करें।
इन अधिकारियों द्वारा यह सवाल उठाया जा रहा है कि इस तरह की कोई औपचारिक व्यवस्था किए जाने से किसी समस्या का समधान संभव नहीं लगता। इसके बदले इस व्यवस्था से तमाम नए विवाद जरूर खड़े हो सकते हैं।
वास्तव में इसमें से बहुत से लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि सरकार और नियामकों के बीच नजदीकी संबंधों और समन्वय- जैसा कि रिजर्व बैंक के गवर्नर कह रहे हैं, वास्तव में संभव ही नहीं है। वर्तमान में एकतरफा रास्ता है जहां नॉर्थ ब्लॉक, नियामक संस्थाओं को सलाह देता हुआ नजर आता है, कि उन्हें किस तरह के नीतिगत हस्तक्षेप करने की जरूरत है। इस तरह से अभी जो समन्वय है उसे अनौपचारिक ही कहा जा सकता है।
इस तरह से रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अपने नीतिगत वक्तव्य में जो कुछ कहा है इसे एक संकेत माना जा सकता है कि वह चाहते हैं कि वर्तमान अनौपचारिक संबंधों की जगह सरकार सीधे हस्तक्षेप करे और सरकार तथा नियामक संस्थाओं के बीच समन्वय बन सके। उनके खुद के शब्दों में कहें तो इस तरह का समन्वय होना चाहिए जिससे संस्थाओं की समग्रता और स्वतंत्रता बरकरार रहे।
अगर इन शर्तों को पूरा किया जाता है, तो सरकार के अधिकारियों को डर है कि गत्यावरोध निश्चित है। सरकार और नियामक संस्थाओं के बीच समन्वय की वर्तमान व्यवस्था इसलिए कारगर है, क्योंकि यह अभी व्यापक रूप से अनौपचारिक बना हुआ है।
समस्या उस समय खड़ी हो सकती है, जब इस बात की कोशिश की जाएगी कि ज्यादा स्पष्ट और मजबूत प्रणाली विकसित की जाए, जिसमें संस्थागत स्वतंत्रता भी बनी रहे। ऐसे में जहां तक मौद्रिक नीतियों का सवाल है, सुब्बाराव ड्राइवर की सीट पर बने रहना पसंद करेंगे। वर्तमान व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए समन्वय के बारे में दिया गया उनका बयान उनकी इस इच्छा का एक संकेत ही है।