ग्रीक पौराणिक कहानियों को याद करें तो भारतीय करदाताओं को पिछले कुछ दशकों से सिसीफस नामक चरित्र के समान गुणों से गुजरना पड़ रहा है। सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंक अक्सर निजी क्षेत्र के संदेहास्पद लोगों को कर्ज दे बैठे और फिर उन्होंने करदाताओं की राशि की मदद से अपनी बैलेंस शीट को दुरुस्त किया और फिर इसके बाद दोबारा वही चक्कर चालू हो गया। करदाताओं ने सरकारी स्वामित्व वाले संस्थानों के निर्माण की भी कीमत चुकाई है। ये संस्थान अक्सर लंबी अवधि की परिपक्वता वाली उधारी को प्रोत्साहन देने तथा बड़े आकार के ऋण डिफॉल्ट के मामलों को हल करने के लिए बनाए गए। इस आलेख में हम सरकारी बैंकों तथा अन्य सरकारी संस्थानों द्वारा दिए जाने वाले दीर्घावधि के ऋण की बात करें जिनके पुनर्पूंजीकरण के लिए बार-बार करदाताओं के सहयोग की आवश्यकता होती है।
निम्रलिखित राशि हमें बताती है कि केंद्र सरकार ने सरकारी बैंकों को किस प्रकार की मदद मुहैया कराई। सन 2015-16 में करीब 20,000 करोड़ रुपये की राशि उन्हें हस्तांतरित की गई, 2017-18 में 90,000 करोड़ रुपये, 2018-19 में 100,000 करोड़ रुपये और 2019-20 में 70,000 करोड़ रुपये की राशि उन्हें हस्तांतरित की गई। ये आंकड़े केंद्रीय बजट दस्तावेज से प्राप्त हैं। इनके बारे में ज्यादा ब्योरा जनवरी 2022 में आये मेरे पर्चे में दिया गया है जिसका शीर्षक है- ‘ऋणशोधन एवं दिवालिया संहिता(आईबीसी) तथा भारत में दीर्घावधि का ऋण।’
यह राशि बीते वर्षों में सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए दी गई है और इसकी तुलना महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) से की जा सकती है। उदाहरण के लिए वर्ष 2021-22 में 19 फरवरी, 2022 तक 317.3 करोड़ व्यक्ति दिवस कार्य मनरेगा (स्रोत: ग्रामीण विकास मंत्रालय) के तहत आवंटित किया गया। यदि मान लिया जाए कि औसत प्रति व्यक्ति दिवस 260 रुपये का भुगतान किया गया (विभिन्न राज्यों में यह राशि 200 रुपये से 300 रुपये है) तो यह राशि करीब 82,500 करोड़ रुपये पहुंचती है। वित्त वर्ष 2021-22 में जब कोविड-19 के कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी की स्थिति बनी तब मनरेगा के तहत पूरे देश में व्यय की गई राशि लगभग उतनी ही रही जितनी कि सरकारी बैंकों में 2017-2020 के बीच डाली गई।
केंद्र सरकार आजादी के बाद से ही दीर्घावधि के ऋण के लिए विकास वित्त संस्थान (डीएफआई) स्थापित करती रही है। सन 1944-45 की ‘बॉम्बे योजना’ निजी क्षेत्र के बड़े कारोबारियों ने तैयार की जिनमें जेआरडी टाटा, जीडी बिरला, लाला श्रीराम, कस्तूरभाई लालभाई और जॉन मैथ्यू आदि शामिल थे। अन्य अनुशंसाओं के साथ यह योजना सुझाती है कि भारत सरकार को आर्थिक विकास को बढ़ावा देने का नेतृत्व करना चाहिए। इसी तरह बड़ी परियोजनाओं को दीर्घावधि का ऋण उपलब्ध कराने के लिए वित्त मंत्रालय ने सन 1948 में भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (आईएफसीआई) की तथा 1955 में इंडस्ट्रियल क्रेडिट ऐंड इन्वेस्टमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (आईसीआईसीआई) की स्थापना की। सन 1964 में भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (आईडीबीआई) की स्थापना संसद के विधान के द्वारा की गई और इसे एक सांविधिक कंपनी बनाया गया। समय के साथ आईएफसीआई एक गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी बन गया जबकि आईसीआईसीआई और आईडीबीआई वाणिज्यिक बैंक बन गए। अब ये संस्थान विकास तथा अन्य योजनाओं को दीर्घावधि के ऋण देने पर केंद्रित नहीं हैं। समय के साथ सरकारी बैंकों ने यह भूमिका अपना ली और नकदीकरण या फंसे कर्ज के निस्तारण की धीमी गति को देखते हुए सरकारी बैंकों को बार-बार करदाताओं के पैसे से पूंजी देनी पड़ी।
सरकार ने नए डीएफआई की स्थापना जारी रखी। उदाहरण के लिए जनवरी 2006 में इंडिया इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनैंस कंपनी लिमिटेड (आईआईएफसीएल) की स्थापना 10,000 करोड़ रुपये की शुरुआती पूंजी के साथ की गई। इसका घोषित लक्ष्य था व्यवहार्य बुनियादी परियोजनाओं को दीर्घावधि की वित्तीय सहायता मुहैया कराना। करीब एक दशक के भीतर केंद्र सरकार ने नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट फंड (एनआईआईएफ) की स्थापना की। आईआईएफसीएल तथा एनआईआईएफ के पास पर्याप्त पूंजी या जोखिम उठाने की क्षमता नहीं थी कि वह अहम परियोजनाओं को दीर्घावधि का फंड दे सके। यानी यह काम अभी भी सरकारी बैंकों के भरोसे है।
2016 में ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के पारित होने के बाद आशा जगी थी कि पहले के अपेक्षाकृत निष्प्रभावी सिक इंडस्ट्रियल कंपनीज (स्पेशल प्रोविजंस) ऐक्ट तथा सिक्युरिटाइजेशन ऐंड रीकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनैंशियल ऐसेट्स ऐंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्युरिटी इंट्रेस्ट (एसएआरएफएईएसआई) अधिनियम अतीत की बात हो जाएंगे। व्यवहार में आईबीसी में होने वाली देरी अक्सर इसलिए होती है क्योंकि ऋणदाता समिति अपेक्षित सक्रियता नहीं दिखाती और राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट, राष्ट्रीय कंपनी लॉ अपील पंचाट और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी देरी होती है। ऐसा प्राय: इसलिए होता है क्योंकि पंचाट और अपील पंचाटों की तादाद कम है और इनके पीठों में कई रिक्तियां हैं। न्यायाधीश भी कम अनुभवी होते हैं। इसके अतिरिक्तफरवरी 2018 में आरबीआई ने एक परिपत्र जारी करके के ऋणदाताओं और कर्जदारों के बीच विवाद कम करने का प्रयास किया था लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल 2019 में इसे निरस्त कर दिया। आरबीआई का एक आंतरिक अध्ययन बताता है कि फरवरी 2018 के बाद जिन छह महीनों तक आरबीआई का परिपत्र लागू रहा, उस अवधि में कर्जदारों का डिफॉल्ट कम हुआ।
2021 में सरकार ने नैशनल बैंक फॉर फाइनैंसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड डेवलपमेंट (एनएबीएफआईडी) नामक एक नए डीएफआई का गठन किया जिसकी शुरुआती चुकता पूंजी 20,000 करोड़ रुपये है। इसके अलावा नैशनल ऐसेट्स रीकंस्ट्रक्शन कंपनी (एनएआरसीएल) का भी गठन किया गया।
ये दोनों संस्थान दीर्घकालिक ऋण देने के लिए तथा फंसे हुए कर्ज वाली परिसंपत्तियों के निस्तारण के लिए बने हैं। यदि फंसे हुए कर्ज को प्राथमिक मूल्य पर ही एनएआसीएल को हस्तांतरित कर दिया गया तो सरकारी बैंक ऋण देने में कम सावधानी बरतेंगे। यदि रियायतें अधिक हों तो एनएआरसीएल के लिए हालात आसान होंगे। यह स्पष्ट नहीं है कि एनएबीएफआईडी से यह अपेक्षा क्यों की जा रही है कि वह सफल होगा। स्पष्ट है कि गैरजवाबदेह ऋण और भारतीय न्यायालयों में होने वाली देरी से निपटने का कोई हल नहीं है। जरूरत इस बात की है कि केंद्र सरकार पंचाटों में रिक्तियों को भरे और दोनों को क्षमता संपन्न बनाकर न्यायिक प्रक्रिया में लगने वाली अवधि को कम करे।
ग्रीक मिथकीय कथा के मुताबिक सिसीफस को मृत्यु को धोखा देने का प्रयास करने के लिए दंडित किया गया था। दार्शनिक अल्वेयर कामू ने कहा था कि भगवान ने सिसीफस को इस तरह दंडित करके समझदारी दिखायी क्योंकि अनंतकाल तक निरर्थक श्रम की सजा अत्यंत कठोर दंड है। भारतीय करदाताओं ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया है और अब वक्त आ गया है कि उन्हें सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के दंड से राहत दी जाए।
(लेखक भारत के पूर्व राजदूत एवं वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस के फेलो हैं)
