इसे सामने आने में 28 वर्षों का बहुत लंबा वक्त लगा है लेकिन अब यह आ चुका है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने धोखाधड़ी एवं अनुचित व्यापार कार्य प्रणालियों के नियमन में संशोधन कर सूचीबद्ध कंपनियों के खाते में जालसाजी को भी एक कपटपूर्ण कृत्य घोषित कर दिया है।
नियमों में संशोधन कर यह स्पष्ट किया गया है कि ‘प्रतिभूतियों की सूचीबद्धता वाली किसी भी कंपनी की परिसंपत्ति या आय को किसी दूसरे खाते में डालने या दुरुपयोग के किसी भी कृत्य’ को प्रतिभूति बाजार में धोखाधड़ी, साजिशपूर्ण एवं अनुचित व्यापार कार्य माना जाएगा। इसी तरह ऐसी कंपनी के खातों या वित्तीय विवरण में हेरफेर करने की कोई भी कोशिश या विवरणों को छिपाने की कोशिश को भी इसी श्रेणी में शामिल माना जाएगा।
यहां तक का सफर काफी दिलचस्प रहा है। बाजार नियामक की पहले यह मान्यता थी कि बाजार में खरीदे-बेचे जा रहे उत्पादों के विनिर्माताओं पर उसका कोई अधिकार-क्षेत्र नहीं है और उसका केवल बाजार में लेनदेन वाले उत्पाद पर ही नियंत्रण है। इस नजरिये की वजह से यह बयान सामने आया कि सेबी का खातों में गड़बड़ी करने वाली कंपनियों पर कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं है। इसकी वजह से पूरी तरह मनमाने ढंग से चुनने की आदत बन गई। सेबी अपनी इच्छा होने पर यह दलील देता था कि उसका इन पर कोई अधिकार-क्षेत्र नहीं है। कभी-कभार वह कहता था कि वित्तीय जानकारी एवं खातों में किसी भी गड़बड़ी का बाजार में कारोबार पर असर पड़ता है लिहाजा सेबी को इस पर कार्रवाई करने का अधिकार है।
बंबई उच्च न्यायालय के समक्ष एक अजीब स्थिति आई थी जब एक ही न्यायाधीश के समक्ष सेबी ने दो मामले में विरोधाभासी रुख दिखाया था। सेबी ने एक मामले में अपने शपथ-पत्र में कहा था कि उसका खातों में गड़बड़ी पर कार्रवाई करने का कोई अधिकार नहीं है जबकि दूसरे मामले में उसने शपथपत्र में कहा था कि कंपनी के खातों से दूसरी जगह भेजी गई रकम को वापस लाने के लिए कंपनी एवं उसके प्रवर्तकों को निर्देश देने का उसका आदेश पूरी तरह उसके अधिकार-क्षेत्र में आता है। असल में, एक ही मामले में अंतर्निहित विरोधाभास भी देखने को मिला था। सत्यम घोटाले में सेबी ने वैध ऑडिटरों के कार्य की गुणवत्ता को अपने अधिकार-क्षेत्र के भीतर कार्रवाई लायक बताया था। लेकिन उसने खाते में धोखाधड़ी के लिए उस कंपनी के प्रवर्तकों एवं प्रबंधन के खिलाफ कदम नहीं उठाया था। उसने सिर्फ फर्जीवाड़े के दौरान प्रवर्तकों के प्रतिभूतियों कारोबार पर ही कार्रवाई की।
वजूद में आने के बाद से ही सेबी ने शेयर दलालों, मर्चेंट बैंकरों, म्युचुअल फंड और प्रतिभूति लेनदेन करने वाले बाजार मध्यवर्तियों के नियमन के लिए कायदे-कानून बनाए हैं। लेकिन उसने प्रतिभूति जारी करने वाली कंपनियों का नियमन करने वाले नियम बनाने से परहेज ही रखा। ऐसा नहीं है कि सेबी शेयर जारी करने वाली कंपनियों के लिए शर्तें नहीं तय करता था लेकिन ये दिशानिर्देश की शक्ल में होती थीं न कि नियम।
नियम ‘अधीनस्थ कानून’ होते हैं जो संसद द्वारा प्रदत्त अधिकरण बनाते हैं। भारतीय गणराज्य की सर्वोच्च कानून निर्मात्री संस्था होने से संसद नियम बनाने की शक्ति अधिकरणों को सौंप सकती है। नियम बनने के बाद उन्हें संसद के पटल पर रखने की जरूरत होती है। फिर वे मूल कानून के साथ अपनी विधिक हैसियत रखने वाले कानून का अविभाज्य हिस्सा बन जाते हैं। शेयर जारी करने वाली कंपनियों पर अधिकार-क्षेत्र नहीं होने की सोच होने से सेबी ने ‘खुलासे एवं निवेशक संरक्षण’ से संबंधित दिशानिर्देश ही बनाए ताकि एक प्रतिभूति पेशकश में किए जाने वाले खुलासों का निर्धारण किया जा सके। दिशानिर्देशों को संसद द्वारा बनाए गए कानून का दर्जा नहीं होने से उनकी संसदीय समीक्षा नहीं की जाती है और न ही उनकी अहमियत नियमों की तरह होती है।
जहां खुलासा एवं निवेशक संरक्षण दिशानिर्देश शेयर जारी करने के समय के जरूरी खुलासों का नियमन करते हैं वहीं अविरल खुलासे जारीकर्ता एवं स्टॉक एक्सचेंज के बीच होने वाले ‘सूचीबद्धता समझौता’ में ही देनी होती थी। वर्ष 1995 तक ‘सूचीबद्धता समझौता’ शब्दावली का संसद के बनाए किसी भी कानून में कोई भी जिक्र नहीं था। फिर प्रतिभूति अनुबंध (नियमन) अधिनियम 1956 को संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध एक कंपनी को उस एक्सचेंज के साथ हुए सूचीबद्धता करार का पालन करना चाहिए। विभिन्न कंपनियों का नियंत्रण अलग शब्दावलियों से होता था जो सूचीबद्धता के समय हस्ताक्षर के लिए जरूरी समझौते के अनुपालन की स्थिति पर निर्भर करता था। समझौता लागू होते समय उसमें उल्लिखित प्रावधानों का जिक्र सेबी के एक मॉडल सूचीबद्धता समझौते में किया गया था लेकिन वह भी किसी नियामकीय प्रावधान के बाहर ही था।
आखिरकार इन दिशानिर्देशों को महज एक दशक पहले पूंजी से जुड़े मुद्दों को देखने वाले नियमों में कूटबद्ध किया गया। सूचीबद्धता समझौते की जरूरतों को तो सिर्फ पांच साल पहले सूचीबद्धता दायित्वों संबंधी नियमों के रूप में संकलित किया गया। यह सब होते समय भी सेबी एक कंपनी के लेखांकन में धांधली और फंड की हेराफेरी से जुड़े मामलों में अपनी इच्छा से नरम-गरम रुख अपनाता था। सेबी के भीतर एक फॉरेंसिक लेखांकन प्रकोष्ठ गठित किया गया, कंपनियों को पत्र भेजा जाता था और ऑडिट समितियों को संदिग्ध हेराफेरी की पड़ताल करने को कहा जाने लगा। लेकिन उसमें एक वैधानिक प्रतिबद्धता नहीं थी कि धोखाधड़ी के बारे में पता चलने पर सेबी वास्तव में कार्रवाई जरूर करेगा।
लेकिन अब वह तमाम अनिश्चितता खत्म हो गई है। पूंजी बाजार के नियामक के तौर पर सेबी अब खातों में गड़बड़ी से जुड़े मामलों में कार्रवाई करने को लेकर चुनिंदा रवैया नहीं अपना सकता है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
