अपनी शुरुआत के चार वर्ष बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ने लंबा सफर तय कर लिया है। जीएसटी के 1 जुलाई, 2017 को लागू होने से पहले देश में कई तरह के बाजार थे। हर राज्य अलग दर पर कर वसूल करता था जिसके चलते तमाम दिक्कतें होतीं और भारी भरकम अनुपालन लागत वहन करनी पड़ती। सरकार का यह कहना सही है कि जीएसटी ने सर्वाधिक जटिल अप्रत्यक्ष कर व्यवस्थाओं में से एक को आसान बना दिया है। पुरानी कर व्यवस्था में यदि कोई कंपनी हर राज्य में कारोबार करना चाहती थी तो उसे 495 प्रकार की प्रस्तुतियां देनी होती थीं। जीएसटी के अधीन यह तादाद घटकर 12 रह गई है। शुरुआती दिनों में कमजोर जीएसटी संग्रह की एक वजह यह थी कि बैकएंड बुनियादी ढांचे में अक्सर दिक्कत आती थी। अब यह समस्या काफी हद तक हल हो चुकी है और अनिवार्य ई-इनवॉइसिंग के कारण अनुपालन बेहतर करने में मदद मिली है। बहरहाल, जीएसटी व्यवस्था अब अपने पांचवें वर्ष में प्रवेश कर रही है और इसमें दो राय नहीं कि वह शुरुआती अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है। हालिया दशकों के इस सबसे महत्त्वपूर्ण सुधार को अधिक स्थिर और किफायती कर व्यवस्था में बदलने के लिए ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। कई लोग मानते हैं कि जीएसटी को हड़बड़ी में लागू किया गया। कहा जाता है कि इसने असंगठित क्षेत्र को काफी प्रभावित किया है। विचार यही था कि इसमें समय के साथ सुधार किए जाते रहेंगे।
जीएसटी परिषद को जिस सबसे अहम पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है वह है कर संग्रह। जीएसटी लागू होने के बाद इसमें समाहित करों की तुलना में राजस्व संग्रह में जीडीपी के एक फीसदी के बराबर कमी आने की बात कही गई है। यह अच्छी स्थिति नहीं है। आशा की जा रही थी कि जीएसटी से किफायत बढ़ेगी, कर वंचना कम होगी और कर संग्रह सुधरेगा। कम कर संग्रह की एक बड़ी वजह थी राजस्व की पूर्ति के स्तर पर पहुंचे बिना दरों में कमी करना। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार जीएसटी दरों का औसत भार क्रियान्वयन के समय के 14.4 फीसदी से घटकर 2019 में 11.6 फीसदी रह गया। इसे पलटने की जरूरत है। भारत की राजकोषीय स्थिति अत्यंत कठिन है और वह कमतर प्रदर्शन वाली अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को नहीं झेल सकता। ऐसे में परिषद को दरों को तत्काल तार्किक बनाना चाहिए। इसके साथ ही उसे व्युुतक्रम शुल्क ढांचे (जहां कच्चे माल पर लगने वाला शुल्क तैयार माल पर लगने वाले शुल्क से अधिक होता है) और स्लैब की तादाद कम करने के विषय का निराकरण करना चाहिए। इससे अनुपालन आसान होगा और राजस्व बढ़ेगा। 2022 में जीएसटी के पांच वर्ष पूरे होंगे और राज्यों को राजस्व हानि के लिए तयशुदा क्षतिपूर्ति बंद हो जाएगी। इस विषय पर निर्णय के लिए परिषद की अलग बैठक हो सकती है।
क्षतिपूर्ति अवधि में इजाफा नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि राज्यों का 14 फीसदी राजस्व वृद्धि के लिए क्षतिपूर्ति देना शुरू से ही अनुचित था। सरकार लगातार दूसरे वर्ष राज्यों को क्षतिपूर्ति करने के लिए बाजार से ऋण ले रही है। इसे जून 2022 के बाद उपकर में इजाफा करके चुकता किया जाएगा। यदि इस ढांचे को बढ़ाया जाता है तो इससे जीएसटी को सहज बनाने में और देर होगी, राजस्व प्रभावित होगा और अनिश्चितता बढ़ेगी। इसके अलावा तयशुदा क्षतिपूर्ति से राज्य अनुपालन बढ़ाने तथा कमियां दूर करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होते। यदि पांच वर्ष में स्थिरता नहीं आई तो इसका अर्थ है कि जरूरी प्रयास फलीभूत नहीं हुए। इसकी जवाबदेही सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पर है जिसने इस सुधार को लागू किया था और कई राज्यों में जिसकी सरकार है। इसके अलावा केंद्र सरकार को सहकारी संघवाद को आगे ले जाने के लिए काम करना चाहिए और राज्यों की चिंताओं को सहृदयता से सुनना चाहिए।
