भारत में कानून का एक अविभाज्य एवं मौलिक चरित्र यह है कि किसी अपराध के लिए आरोपित किए गए किसी भी व्यक्ति को अपने ही खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। यह अवधारणा संविधान के उस खंड में प्रतिष्ठापित है जिसे बुनियादी ढांचा माना जाता है और जिसे बदला नहीं जा सकता है। फिर भी बीते दशकों में इसे बदलने की कोशिशें बारंबार हुई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में बहुमत से दिए अपने एक निर्णय में स्पष्ट, तर्कसंगत एवं प्रभावी तरीके से कहा है कि मादक पदार्थ निरोधक कानून के तहत अधिकारियों के समक्ष की गई अपराध स्वीकृति को साक्ष्य के तौर पर नहीं पेश किया जा सकता है।
समाज के लिए पर्याप्त रूप से उकसाऊ माने जाने वाले मुद्दों पर बने कानूनों में खुद को दोषी न ठहराने के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन पाया जाता है। खासकर मादक पदार्थों के इस्तेमाल एवं आतंकवाद से लडऩे के लिए बने कानूनों में आसानी से ऐसे प्रावधान पाए जाते हैं जो आत्म-दोषीकरण के विरुद्ध मिले संवैधानिक संरक्षण को कमजोर करते हैं।
आत्म-दोषीकरण के खिलाफ संवैधानिक सिद्धांत समाज के लिए महत्त्वपूर्ण एवं अत्यावश्यक घटक है। अगर कानून खुद को दोषी ठहराने की अनुमति देते तो कार्यपालिका आपराधिक मामलों को निपटाने और अपराधियों की धरपकड़ के दावे कहीं आसानी से कर देती। असली अपराधी तो बच जाते लेकिन गरीबों को बुरी तरह से प्रताडि़त कर अपराध कबूल करने के लिए बाध्य कर दिया जाता और उस मामले की फाइल भी बंद हो जाती। इस तरह अपराध का सिलसिला जारी रहता क्योंकि असली अपराधी तो कानून की गिरफ्त में आने से बचे रहते और अधिक संख्या में वारदात को अंजाम देते। लेकिन अपराध के हरेक मामले को अपराध स्वीकृति के दम पर हल करने का दावा किया जाता। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह बात सिद्ध भी हो चुकी है कि इंसानी दिमाग एक अपराध-स्वीकृति के लिए गलत स्मृति भी विकसित कर सकता है।
भारत में साक्ष्य का कानून किसी भी तरह के दबाव, वादे या धमकी के बाद किए गए कबूलनामे को साफ तौर पर अप्रासंगिक ठहराता है। इसी तरह, किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष किए गए कबूलनामे को उस अपराध के लिए दोषी ठहराने में सबूत के तौर पर नहीं पेश किया जा सकता है। पुलिस अधिकारी की हिरासत में किए गए कबूलनामे को तभी स्वीकार किया जाएगा जब स्वीकृति के समय मजिस्ट्रेट मौजूद रहे हों।
साक्ष्य कानून में ‘पुलिस अधिकारी’ शब्दावली को परिभाषित नहीं किया गया है और यह काफी बुद्धिमानी भरा कदम है क्योंकि ऐसा होने पर तथ्यों के साथ खिलवाड़ होने लगता ताकि परिभाषा के दायरे में न आ सके। फिर भी भारतीय गणराज्य के इतिहास में इस सिद्धांत को ही उलटने-पलटने की हरकतें नजर आती रही हैं। कई कानूनों के तहत नियुक्त अधिकारियों को तलाशी लेने एवं छापा मारने और गिरफ्तार करने की शक्तियां दी गई हैं। ‘पुलिस अधिकारी’ का तमगा न रखने वाले इन अधिकारियों के समक्ष किए गए कबूलनामों को स्वीकार्य साक्ष्य माना गया है और उन्हें साक्ष्य कानून के प्रतिकूल नहीं ठहराया गया है।
विशेष कानून आपराधिक प्रक्रिया निर्धारित करने वाले सामान्य कानून को निलंबित करने के साथ ही उसकी जगह भी ले सकते हैं। उसी कानून के तहत आपराधिक प्रक्रिया संहिता को कुछ मायनों में निलंबित रखा जा सकता है जबकि कुछ संदर्भों में वह लागू रहेगी।
मादक पदार्थों पर लगाम के लिए बने कानून के मामले में भी यही स्थिति थी। यह कानून बनाने के पीछे मकसद यही था कि यह अधिक सख्त हो और इसमें कुछ अपराधों के लिए मौत की सजा तक के कड़े प्रावधान रखे गए। इस प्रस्ताव के दूरगामी नतीजे होने वाले थे कि ऐसे कानून के तहत हासिल कबूलनामा अदालत में अपराधी को सजा दिलाने के लिए स्वीकार्य साक्ष्य माना जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने पुराने फैसलों में ‘पुलिस अधिकारी’ शब्दावली को एक ‘व्यापक एवं प्रचलित धारणा’ में पढ़े जाने की जरूरत बताते हुए इस कानून को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है। इसके मुताबिक, जांच की सीमित शक्तियां कुछ अधिकारियों को बुनियादी तौर पर अपराध की रोकथाम एवं पड़ताल से इतर उद्देश्यों के लिए दी गई हैं और इन अफसरों को पुलिस अधिकारी नहीं कहा जा सकता है। हालांकि पुलिस अधिकारी का किसी पुलिस थाने से ही संबद्ध होना जरूरी नहीं है। सवालों में घिरे अधिकारियों को जिस भी नाम से पुकारा जाए, उनकी परीक्षा यही होगी कि उन्हें प्रदत्त जांच की शक्तियां अपराध कबूल करवाने और अनिच्छा से दिए गए बयानों से वे अपना मकसद हासिल कर पाते हैं या नहीं।
यह परीक्षा होने के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट रूप से कह चुका है कि जुर्म ‘कबूल करवाने’ की क्षमता ही यह परखने का असली इम्तिहान है कि संवैधानिक संरक्षण एवं साक्ष्य कानून के तहत मिला संरक्षण उसे उपलब्ध होगा या नहीं।
कारोबार से जुड़े कानूनों पर भी इस निर्णय का असर देखा जा सकता है। कारोबारी गतिविधियों का नियमन करने वाले तमाम कानूनों में मादक पदार्थ निरोधक कानून की ही तरह प्रावधान हैं। जांच अधिकारी के दबाव में आकर दिए गए इकबालिया बयान को अगर ‘पुलिस अधिकारी’ को दिया गया बयान नहीं मानकर दोषी ठहराने के लिए साक्ष्य मान लिया जाता है तो इसका बहुत दूरगामी असर होगा।
असल में, अब खत्म हो चुके डरावने कानून विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम (फेरा) के तहत प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में होने वाली पूछताछ के दौरान बयान दर्ज करने के लिए आयकर अधिकारी मौजूद रहते थे। संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में सेबी अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट से वारंट लिए बगैर ही छापा मारने का अधिकार देने की नाकाम कोशिश की गई थी। उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय हमारे संविधान के बुनियादी चरित्र को पुरजोर तरीके से याद दिलाता है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
