महंगाई को नियंत्रित करना और महंगाई की उम्मीदों को संभालना शायद दुनिया भर के नीति निर्माताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। उदाहरण के लिए अमेरिका में महंगाई की दर मई में चार दशक के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। फेडरल रिजर्व महंगाई नियंत्रित करने के लिए मौद्रिक और वित्तीय स्थितियों को सख्त बना रहा है। अब यह व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि इसके संभावित उपाय अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेल देंगे। इस आर्थिक पृष्ठभूमि में उत्पादन के लिए जोखिम होने के बावजूद महंगाई पर लगाम लगाना फेड की सबसे बड़ी प्राथमिकता है। भारतीय नीति प्रतिष्ठान भी ऊंची महंगाई से जूझ रहा है। हालांकि सरकार ने निर्यात पर विभिन्न प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ब्याज दरें बढ़ा रही है। इसके बावजूद महंगाई की दर चालू वित्त वर्ष में सहज दायरे से ऊपर रहने के आसार हैं। इसका मतलब है कि दर लगातार तीन तिमाहियों में सहज दायरे से ऊपर रहेगी और इसे लक्ष्य को हासिल करने में नाकामी ही माना जाएगा।
हालांकि महंगाई में हाल की तेजी यूक्रेन युद्ध की वजह से है। लेकिन इस समाचार-पत्र समेत यह तर्क दिया जा रहा है कि आरबीआई ने नकदी की अतिरिक्त आपूर्ति को वापस लेने की शुरुआत करने में बहुत अधिक इंतजार किया। इस संदर्भ में एक अहम बिंदु यह है कि केंद्रीय बैंक की तरफ से जारी बयानों से ऐसा लग रहा था कि वह महंगाई दर के सहज दायरे की ऊपरी सीमा 6 फीसदी से नीचे रहने तक सहज था, जिससे उम्मीदें प्रभावित हुई हैं। ऐसा लगता है कि व्यापक नीति प्रतिष्ठान की भी यही सोच थी। उदाहरण के लिए इस समाचार-पत्र को दिए साक्षात्कार में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, ‘अगर यह (महंगाई) 7 से 7.9 फीसदी या 8 फीसदी या 9 फीसदी के दायरे में भी रहती है तो सम्मानित एवं अहम आंकड़ा नहीं है, जबकि मेरे लिए 6 फीसदी अहम आंकड़ा है। हम अब भी इसे 6 फीसदी के आसपास या उससे नीचे लाना चाहते हैं।’
उल्लेखनीय है कि सरकार की तरफ से आरबीआई को दिया गया लक्ष्य 4 फीसदी है, जिसमें किसी भी तरफ 2 फीसदी का सहजता दायरा रखा गया है। करीब 6 फीसदी दर पर सहज महसूस करने में बुनियादी दिक्कत यह है कि इसमें गलती की कोई गुंजाइश नहीं बचती है। ऐसा लगता है कि पिछली कुछ तिमाहियों में ठीक यही हुआ है। इस तरीके का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू यह है कि इससे केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता घटती है। इससे बॉन्ड बाजार में टर्म प्रीमियम बढ़ सकता है, जिससे सरकार सीधे प्रभावित हो रही है क्योंकि वह सबसे अधिक कर्ज लेती है। इसलिए नीति-निर्माताओं के लिए महंगाई दर को लक्ष्य के नजदीक लाने की दिशा में काम करना महत्त्वपूर्ण है। हालांकि अगर ऐसे सबूत हैं, जिनसे पता चलता है कि महंगाई लक्ष्य को समायोजित करने से लंबी अवधि में सतत ऊंची वृद्धि हासिल करने में मदद मिलेगी तो यह एक उचित प्रक्रिया के जरिये किया जाना चाहिए।
इस संदर्भ में एक आलोचना यह की जाती है कि आरबीआई ने रिवर्स रीपो दर में भारी कमी करके और आर्थिक प्रणाली में भारी मात्रा में नकदी झोंककर एमपीसी को व्यावहारिक रूप से अप्रासंगिक बना दिया है। इन दोनों कारणों की ऊंची महंगाई में भूमिका रही है। रिवर्स रीपो एमपीसी के दायरे में नहीं आती है। रिवर्स रीपो की जगह तरलता समायोजन सुविधा (एलएएफ) कॉरिडोर के आधार के रूप में स्टैंडिंग डिपॉजिट सुविधा ने ली है। इस तरह सरकार को एमपीसी में भरोसा बढ़ाने और कीमत स्थिरता को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराने के लिए पूरे एलएएफ कॉरिडोर को इस दर को तय करने वाली समिति के अधीन लाने पर विचार करना चाहिए। हालांकि यह तभी कारगर होगा, जब महंगाई के लक्ष्य का पालन किया जाए और ठीक से संवाद किया जाए।
