वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) परिषद की बैठक गत शुक्रवार को संपन्न हुई। इस बैठक का आयोजन ऐसे समय हुआ जब कोरोनावायरस महामारी की दूसरी लहर के कारण राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति को लेकर तमाम चिंताएं सर उठा रही हैं। केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने प्रस्ताव रखा कि केंद्र सरकार एक बार फिर बाजार से ऋण ले ताकि राज्यों को राजस्व में होने वाली कमी की भरपाई की जा सके। केंद्र ने 1.6 लाख करोड़ रुपये का ऋण लेने का प्रस्ताव रखा। इसके अलावा 1.1 लाख करोड़ रुपये की राशि क्षतिपूर्ति उपकर के रूप में संग्रहीत होने की बात कही गई। परंतु जैसा कि राज्यों ने कहा इसके पीछे के अनुमानों पर सवाल उठाया जा सकता है। उदाहरण के लिए दूसरी लहर के कारण शायद 7 फीसदी की राजस्व वृद्धि का पूर्वानुमान सही साबित न हो। कुछ राज्यों के वित्त मंत्री महामारी वाले वर्ष में 7 फीसदी का आंकड़ा सामने रखे जाने से भी नाखुश थे। उनका कहना था कि इसे नजीर नहीं बनना चाहिए और राजस्व कमी होने भर के चलते कानूनी वैधता वाले 14 प्रतिशत को इससे प्रतिस्थापित नहीं किया जाना चाहिए।
उधार ली जाने वाली राशि से बाजार की कुछ अनिश्चितता दूर होनी चाहिए लेकिन केंद्र-राज्य वित्तीय व्यवस्था के भविष्य को लेकर कई सवाल बाकी रहेंगे। खासतौर पर यह कि क्षतिपूर्ति समझौते का भविष्य क्या होगा? मूल जीएसटी अधिनियम के तहत इस समझौते को जुलाई 2022 तक ही लागू रहना था। राज्य सरकारों के नजरिये से देखें तो जीएसटी अधिनियम को गत वर्ष पहले ही झुका दिया गया था और राजस्व वृद्धि के पूर्वानुमान को घटाकर 7 फीसदी कर दिया गया था और क्षतिपूर्ति का आकलन उसी आधार पर किया गया था। ऐसे में वे आशा करेंगे कि क्षतिपूर्ति की अवधि बढ़ाई जाए। बहरहाल, यह भी सही है कि क्षतिपूर्ति की अवधि जितनी लंबी रहेगी, जीएसटी में अहम सुधार करना उतना ही कठिन होगा। ये ऐसे सुधार हैं जो जीएसटी को किफायती बनाने और अनुपालन में सुधार के लिए जरूरी हैं। इससे राजस्व की समस्या भी स्थायी रूप से हल होती। एक ओर जहां सरकार को आश्वस्ति समाप्त नहीं करनी चाहिए, वहीं क्षतिपूर्ति का आश्वासन राज्य सरकारों को अनुपालन में सुधार के लिए प्रोत्साहित नहीं करता।
दूसरे संदर्भ में देखें तो जीएसटी परिषद ने वे कड़े निर्णय नहीं लिए जो उसे लेने चाहिए थे। उदाहरण के लिए उसने कोविड से संबंधित अहम वस्तुओं पर लगने वाली दरों का निर्णय मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनार्ड संगमा के संयोजन वाले मंत्री समूह पर छोड़ दिया। यह समूह 8 जून तक अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। जैसा कि केंद्रीय वित्त मंत्री ने भी कहा, आपात परिस्थितियों में प्रतिक्रियास्वरूप दरों में बदलाव अंतिम उपभोक्ता (इस मामले में मरीज) के लिए अनिश्चित हो सकता है। किसी भी अंतिम समझौते में समस्त अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था का ध्यान रखा जाना चाहिए। कुछ वस्तुओं पर व्युुतक्रम शुल्क ढांचे से जुड़ी शिकायतों पर भी चर्चा नहीं हुई। ये शिकायतें जिंस कीमतों में उछाल के बाद उठीं। कुछ निर्यातकों ने खासतौर पर शिकायत की कि ऐसा ढांचा होने के कारण इस्तेमाल रहित इनपुट टैक्स क्रेडिट का रिफंड पाने में दिक्कत होती है। इस प्रक्रिया को सुसंगत बनना चाहिए क्योंकि एक बार फिर एक अस्थायी घटना (इस मामले में वैश्विक जिंस कीमतों में तेजी क्योंकि बड़े विनिर्माता महामारी से उबर रहे हैं) के चलते कर दरों में बदलाव से बचा जाना चाहिए। बड़ा सवाल यही है कि जीएसटी को सरल बनाने की शुरुआत कब होगी। महामारी ने भले ही जीएसटी के जरूरी बदलावों को जटिल बना दिया हो लेकिन उसे स्थायी बाधा नहीं बनने देना चाहिए। जीएसटी परिषद दरों में ढेर सारे बदलाव करती है लेकिन सुधार के मोर्चे पर कुछ खास नहीं करती। इसके चलते ही राज्य सरकारें कमजोर महसूस करने लगी हैं।
