महामारी से जुड़ी खबरों की तथ्यपरक रिपोर्टिंग करने वाले ‘दैनिक भास्कर’ की खूब तारीफ हुई। महामारी के दौरान गंगा में बह रहे शवों पर उसकी रिपोर्ट खास रही। इन रिपोर्टों से यही लगता है कि दूसरी लहर में कोरोना से होने वाली मौतों की असल संख्या सरकारी आंकड़ों से 5-10 गुना ज्यादा हैं। ‘द इकनॉमिस्ट’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस दावे का समर्थन भी करती है। उसमें कहा गया कि भारत में कोविड मौतों की संख्या करीब 20 लाख है जो आधिकारिक आंकड़ों का पांच से सात गुना है। यह संख्या देश के विभाजन के समय मारे गए लोगों की संख्या की दोगुनी है।
दैनिक भास्कर के अलावा द टेलीग्राफ जैसे कुछ भारतीय समाचारपत्र और द न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी एवं सीएनएन जैसे विदेशी समाचार प्रतिष्ठान ही महामारी पर बेहतरीन खबरें देते रहे हैं। दैनिक भास्कर को ‘अपना काम’ बखूबी अंजाम देने के लिए तारीफें मिल रही हैं। महामारी के असली असर को आंकने के लिए भारत के लोग विदेशी समाचार प्रतिष्ठानों का रुख कर रहे हैं। इन विदेशी मीडिया के भारत में गिने-चुने संवाददाता ही होते हैं जबकि भारत के बड़े अखबारों के पास सैकड़ों संवाददाताओं की फौज होती है।
यह ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ के लिए असल त्रासदी है। भारत के समाचार मीडिया खासकर समाचार चैनलों की ऐसी दशा इसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया और कुछ ऐसे भारतीय ब्रांडों के रहम पर छोड़ देती है जिनके पास महामारी जैसी बड़ी घटना की कवरेज के लिए महारत, साहस एवं पैसे हैं।
हम इस स्थिति में कब और कैसे पहुंच गए? और इसे बदलने के लिए क्या किया जा सकता है? आज के शीर्ष प्रकाशनों में शुमार मलयाला मनोरमा, आनंद बाजार पत्रिका, एवं द हिंदू भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के समय के ही दिग्गज हैं। इन प्रतिष्ठानों को परोपकारी व्यवसायी वित्तीय मदद पहुंचाते थे। उनका झुकाव एवं मिजाज चाहे जो भी रहा हो, अधिकांश समाचारपत्र दशकों तक तथ्यपरक खबरें परोसने और एक नागरिक, उपभोक्ता या इंसान के तौर पर जरूरी जानकारियां पहुंचाने का काम अंजाम देते रहे। भारत के साथ ही आजाद हुए कई देश तानाशाही या सैन्य शासन के चंगुल में फंसते गए। लेकिन भारत एक शांतिप्रिय लोकतांत्रिक देश ही बना रहा। इसके पीछे स्वतंत्र प्रेस की बड़ी भूमिका रही।
भारत में आए उदारीकरण ने समाचार मीडिया को फलने-फूलने का खूब मौका दिया। हर बड़े अखबार ने अपने राज्य से बाहर भी संस्करणों का प्रकाशन शुरू कर दिया। वर्ष 2000 में जहां देश में नौ समाचार चैनल हुआ करते थे वहीं 2005 में यह संख्या 39 हो गई और अब तो यह आंकड़ा 383 के रिकॉर्ड स्तर पर जा पहुंचा है। लेकिन किसी नीतिगत मसौदे या स्तरीय आत्म-नियमन के बगैर इतना तीव्र विस्तार होने से तीन चीजें हुईं। पहली, मीडिया प्रतिष्ठानों के मालिकों के अन्य कारोबारी हितों की अच्छी पत्रकारिता के मापदंडोंं से टकराहट हुई। ऐसा पहले भी हो चुका था लेकिन तब के संपादक मालिकों के खिलाफ खड़े हो गए थे। कई मालिकों को भी यह लगा कि प्रतिष्ठान-विरोधी होना कारोबार के लिहाज से मुफीद है। दूसरी, मीडिया में लगे धन एवं स्वामित्व का रंग ही बदल गया। गलत तरीके से आए पैसे ने फिल्म कारोबार का रंग-ढंग जिस तरह से 1980-90 के दशक में बदले थे, उसी तरह से इसने नई सदी आने पर समाचार टीवी कारोबार की सूरत बदल दी। रियल एस्टेट, केबल एवं राजनीति से जुड़े लोग इस कारोबार में पैसे लगाने लगे और उनकी नजरें दुष्प्रचार या प्रभाव-विस्तार पर ही टिक गईं। यह सिलसिला ऑनलाइन मीडिया की वृद्धि के समय भी जारी रहा।
तीसरी, गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और विज्ञापन राजस्व पर अतिशय निर्भरता के मेल ने इसे एक घातक कॉकटेल बना दिया। देश भर के 383 समाचार चैनलों को 24 घंटे खबरें प्रसारित करनी होती हैं और इस मजबूरी ने समाचार प्रस्तुति के मापदंड धराशायी कर दिए हैं। समाचार चैनल कानफोड़ू बहस एवं गाली-गलौज भरी भाषा के लिए चर्चित हो चुके हैं। ढंग की रिपोर्टिंग भी नहीं होती है।
और इस साल आए नए आईटी नियम उभरती एवं ठोस पत्रकारिता करने वाली वेबसाइटों पर राज्य को अधिक नियंत्रण देते हैं। महामारी ने उनके राजस्व एवं बिक्री दोनों पर तगड़ी चोट पहुंचाई है। अखबार महीने भर में 42.1 करोड़ लोगों तक पहुंचते हैं, समाचार चैनल 60 करोड़ से अधिक और डिजिटल चैनल करीब 45.4 करोड़ लोग देखते हैं। शीर्ष 20 ऑनलाइन समाचार ब्रांड में से 17 ब्रांड एनडीटीवी या एक्सप्रेस जैसे पुराने मीडिया समूहों से जुड़े हुए हैं। उनका दखल नए माध्यम में भी बना हुआ है। इसी में एक समाधान भी छिपा हुआ है। मांग पर पढऩे (बिज़नेस स्टैंडर्ड ऑनलाइन), सुनने (स्पॉटिफाई) और देखने (नेटफ्लिक्स) ने राजस्व भुगतान को नए पंख दिए हैं। लोग टीवी देखने और अखबार पढऩे के लिए भुगतान करते हैं लेकिन सिर्फ 10 लाख लोग ही ऑनलाइन खबरों के लिए पैसे देते हैं। संस्थानों का जोर इस आंकड़े को बढ़ाने पर है। सोच यह है कि उनका आधा राजस्व ऑनलाइन कंटेंट से आए ताकि वे पत्रकारिता कार्यों में अधिक पैसे लगा सकें और संवाददाताओं एवं विशेषज्ञों को तैनात कर सकें।
यहीं से समाधान का दूसरा संकेत भी मिलता है- समाचार सुनने-देखने वाले लोगों को जोडऩा। इसमें टीवी चैनलों के खतरों से आगाह करने के साथ ही वेबसाइट एवं समाचारपत्रों से उनकी तुलना करते हुए अच्छी खबरों की अहमियत बतानी है। पैसे देकर खबरें पढऩे वाले लोग अधिक जागरूक होते हैं जिससे स्तर भी सुधरेगा। क्या इसका यह मतलब है कि भुगतान नहीं करने वाले पाठकों को गलत सूचनाओं से भरी खबरें परोसी जाएं?
मीडिया में गलत स्रोतों से आने वाले पैसे को रोकने के लिए स्वामित्व संबंधी नियमों में बदलाव, दूरदर्शन को बंधन-मुक्त करने और रिपोर्टिंग के लिए सुरक्षित माहौल बनाने जैसे तरीके भी हैं। लेकिन उनके लिए अधिक मजबूत एवं परिपक्व लोकतंत्र की जरूरत है। उसके लिए अधिक बेहतर समाचार मीडिया की दरकार है जो हमें अपने पुराने मुकाम पर ले जा सके।
