सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अब दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के सार्वजनिक मंच की भूमिका निभा रहे हैं। राजनेता इन्हीं के माध्यम से नागरिकों से बातचीत करते हैं, मतदाता एक दूसरे से संपर्क में रहते हैं और विभिन्न प्रकार की धारणा तैयार करने का काम किया जाता है। ऐसे में अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में इस बात को लेकर खुली बहस हो रही है कि इन प्लेटफॉर्म का स्वयं का आचरण किस प्रकार का हो। जाहिर है भारत में भी ऐसी चर्चा लंबे समय से लंबित है। हालांकि फेसबुक ने कहा है कि उसकी एक नीति है जिसके तहत किसी भी तरह के राजनीतिक कदम या राजनीतिक दल से संबद्धता से दूर ही रहा जाता है लेकिन हाल ही में वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में फेसबुक की एक वरिष्ठ अधिकारी ने बार-बार हस्तक्षेप करके सत्ताधारी दल के नेताओं की उन पोस्ट को बचाया जो अन्यथा फेसबुक के घृणा फैलाने वाले भाषणों के आंतरिक मानक पर खरी नहीं उतर पाती। ऐसा तब है जब फेसबुक के चेयरमैन मार्क जुकरबर्ग स्वयं अपने कर्मचारियों को यह बताने के लिए दिल्ली दंगों के संदर्भ का उदाहरण दे चुके हैं कि कब फेसबुक को दखल देना चाहिए और अपने मंच पर अभिव्यक्ति को नियंत्रित करना चाहिए।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के संचालन में राजनीतिक पूर्वग्रह का होना स्वाभाविक है। इसे पूरी तरह समाप्त कर पाना बहुत मुश्किल है। फिर भी यह स्पष्ट है कि कम से कम भारत में वे तमाम संरक्षणात्मक उपाय पूरी तरह लागू नहीं किए जा रहे हैं जिन्हें लागू करने का वादा इन प्लेटफॉर्म ने दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में किया है। फेसबुक जैसी कंपनियों को भारत जैसे भौगोलिक संवेदनशीलता वाले देशों में राजनीतिक भाषणों के प्रबंधन में अधिक पारदर्शी होना होगा और कम स्वेच्छाचारिता का परिचय देना होगा। वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट से यही पता चलता है कि केवल एक कर्मचारी भी अपने स्तर पर फेसबुक की आंतरिक प्रबंधन एवं नियमन प्रक्रिया को बेपटरी कर सकता है। यानी ये प्रक्रियाएं मजबूत नहीं हैं और ऐसा कोई भी व्यक्ति उसे क्षति पहुंचा सकता है जिसका काम संस्थान को राजनीतिक सत्ता के करीब रखना हो, बजाय कि विषयवस्तु का औचित्य तय करने के। फेसबुक को भारत में अपनी विषयवस्तु को लेकर आंतरिक तंत्र में बदलाव करना होगा। उसे इन बदलावों का प्रचार करने के साथ-साथ इसे क्षति पहुंचाने वाले कर्मचारी या कर्मचाारियों की जवाबदेही भी तय करनी होगी। यदि ये प्लेटफॉर्म ऐसे सुधार नहीं करेंगे तो इसकी उन्हें और उन देशों को भारी कीमत चुकानी होगी जहां ये काम करते हैं। नफरत फैलाने वाले भाषण को हल्के में नहीं लिया जा सकता। पहले ही तनाव और हिंसा से जूझ रहे देशों में और हिंसा भड़काने को मंच नहीं मिलना चाहिए। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि लोकतांत्रिक देशों में इनका संचालन ऐसे सुधारों पर निर्भर हो। लोकतांत्रिक देशों में बतौर मंच उनकी विश्वसनीयता और परिचालन की सुरक्षा इस बात पर निर्भर करती है वे सत्ता को लेकर कितने निष्पक्ष दिखते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें राजनीतिक जोखिम का सामना करना होगा जो उनके अंशधारकों और मालिकों को प्रभावित करेगा।
राजनेताओं को भी यह प्रोत्साहन मिल सकता है कि वे मांग करें कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के विषयवस्तु प्रबंधन में उन्हें भी दखल का मौका मिले। इससे न केवल इन कंपनियों का परिचालन प्रभावित होगा बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी भी प्रभावित होगी। फेसबुक ने अमेरिका और यूरोप में चुनाव जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ छेड़छाड़ के आरोपों से उपजे क्रोध के बाद ऐसी ताकतों को शांत करने का प्रयास किया है। भारत में भी वह तथा ऐसे अन्य मंच यदि सार्वजनिक रूप से संशोधन नहीं करते उनके लिए जगह नहीं रहेगी।
