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  लेख  पराली न जलाने पर भुगतान गलत परंपरा को प्रोत्साहन
लेख

पराली न जलाने पर भुगतान गलत परंपरा को प्रोत्साहन

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 3, 2020 12:23 AM IST
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क्या किसानों को अपने खेतों में फसल कटाई के बाद बचे डंठल, ठूंठ आदि अवशिष्ट (पराली)नहीं जलाने के लिए भुगतान किया जाना चाहिए? इस समय यह अत्यंत विवादास्पद मुद्दा है क्योंकि उत्तर भारत में जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। इस मौसम में खेतों में पराली जलाई जाती है और हवा इससे होने वाले प्रदूषण को दिल्ली की ओर ले आती है जो पहले ही वाहनों से होने वाले प्रदूषण समेत तमाम तरह के वायु प्रदूषण से जूझ रही है। दलील दी जा रही है कि अगर किसानों को नकद प्रोत्साहन मिलेगा तो वे शायद अपने खेतों में फसल अवशेष जलाना बंद कर दें।
परंतु एक पर्यावरणविद और स्वच्छ हवा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता के रूप में मेरा मानना है कि यह प्रतिकूल किस्म का प्रोत्साहन होगा। इसका आसानी से दुरुपयोग शुरू हो जाएगा और हर वर्ष इनाम की राशि में इजाफा करना होगा क्योंकि इनाम का वादा होने के कारण लोग ज्यादा मात्रा में अवशिष्ट जलाना शुरू कर देंगे। ऐसा कोई भी प्रोत्साहन गलत काम को बढ़ावा देने जैसा होगा। परंतु विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर लोग मुझसे नाराज हैं। मुझे बुर्जुआ, अनभिज्ञ और हकीकत से दूर, यहां तक कि किसान विरोधी तक ठहरा रहे हैं।
पंजाब का उदाहरण हमारे सामने है। पिछले वर्ष पंजाब सरकार ने 31,231 किसानों को पराली नहीं जलाने के लिए 29 करोड़ रुपये की राशि दी थी लेकिन वहां पराली जलाने की घटनाएं उससे पिछले वर्ष की तुलना में बढ़ गईं। इसमें दो राय नहीं कि किसानों को सहायता की जरूरत है लेकिन फिलहाल मैं व्यापक कृषि संकट की बात नहीं कर रही हूं। उस संकट में किसान कच्चे माल की ऊंची कीमत और उपभोक्ताओं के लिए खाद्य पदार्थों की सस्ती कीमत के भंवर में उलझ जाते हैं। इस प्रणाली में किसानों के श्रम को तो तवज्जो नहीं ही दी जाती, खेत तैयार करने और सिंचाई में लगने वाली मेहनत भी जाया होती है। इस समस्या को दूर करने की जरूरत है। हमें समस्या को पहचानना होगा और आगे की राह तलाश करनी होगी। ऐसा तरीका निकालना होगा जिससे किसानों की आय और पर्यावरण दोनों में बेहतरी आए।
किसान पराली इसलिए जलाते हैं क्योंकि धान की फसल कटने के बाद अगली फसल बोने तक उनके पास बहुत कम समय रहता है। हम यह भी जानते हैं कि यह अवधि इसलिए कम हो गई क्योंकि सरकार ने धान की बुआई देर से करने की अधिसूचना जारी की। उसने इसे करीब एक महीने टाल दिया ताकि धान उस समय बोया जाए जब क्षेत्र में मॉनसून आने वाला होता है। यह इसलिए किया गया ताकि किसान भूजल की अत्यधिक निकासी न करें।
आप कह सकते हैं कि किसानों को पानी की कमी वाले इस इलाके में धान नहीं बोना चाहिए। आप सही होंगे लेकिन जवाब काफी जटिल है क्योंकि सरकार खुद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर धान खरीदती है। ऐसे में किसान क्या करे? बासमती धान की पराली नहीं जलाई जाती क्योंकि उसे चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। परंतु बासमती धान एमएसपी के दायरे में नहीं आता क्योंकि इसका अंतरराष्ट्रीय व्यापार संभव है। ऐसे में किसान एमएसपी के लिए गैर बासमती धान उगाते हैं और उसके बाद उनके पास पराली जलाने के अलावा कोई चारा ही नहीं रहता।
इससे बचने के लिए मशीनों का इस्तेमाल किया जा सकता है ताकि अवशेष को वापस मिट्टी में मिलाया जा सके। ऐसा करते वक्त समय का भी ध्यान रखना होगा कि गेहूं की बुआई प्रभावित न हो। इसलिए बीते दो वर्ष केंद्र सरकार ने धन मुहैया कराया ताकि राज्य सरकारें  ये मशीनें खरीद सकें और किसानों को नि:शुल्क अथवा न्यूनतम शुल्क पर मुहैया करा सकें। सन 2020 का पराली जलाने का मौसम शुरू होते ही अकेले पंजाब में 50,000 मशीनें किसानों तथा उन्हें मुहैया कराने वाले केंद्रों को 80 प्रतिशत रियायत पर दी गई हैं। गौरतलब है कि अवशेष को मिट्टी में वापस मिला देने से उसकी उर्वरता भी बढ़ती है।
दूसरा उपाय यह है कि बायोमास को तवज्जो दी जाए। यदि किसानों को अवशेष डंठलों के लिए धनराशि मिलेगी तो वे उसे नहीं जलाएंगे। इसमें काफी संभावना है। इससे बिजली भी बन सकती है और इन डंठलों की मदद से कंप्रेस्ड बायोगैस भी बनाई जा सकती है। इस दिशा में भी काफी कुछ हो रहा है। पहली कंप्रेस्ड बायोगैस परियोजना 2021 के आरंभ में शुरू हो जानी चाहिए। अनेक अन्य योजनाएं अभी प्रक्रियाधीन हैं। गत माह भारतीय रिजर्व बैंक ने इस क्षेत्र को यानी कंप्रेस्ड बायोगैस को प्राथमिकता पर ऋण देने वाले क्षेत्र में शामिल किया। भारतीय स्टेट बैंक ने एक ऋण योजना पेश की और तेल कंपनियों ने पांच साल तक 46 रुपये प्रति किलो की दर पर पुनर्खरीद पर सहमति जताई। यानी आज जो डंठल जलाया जा रहा है वह आने वाले समय में हमारे वाहनों के लिए ईंधन का काम भी करेगा। भविष्य में बिजली संयंत्रों में कोयले की जगह इसका इस्तेमाल करने का विकल्प भी है। इससे न केवल मौजूदा बुनियादी ढांचों को लंबे समय तक काम में लाया जा सकेगा बल्कि इससे पर्यावरण की लागत में भी कमी आएगी। तीसरा विकल्प है किसानों को धान की खेती नहीं करने के लिए प्रेरित करना और उनके फसली विकल्प में विविधता लाना। यह काम यकीनन चुनौतीपूर्ण है लेकिन इसे करना जरूरी है।
किसानों को वास्तविक विकल्प मुहैया कराने के लिए हमें काफी कुछ करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए उनको मिट्टी के जैविक कार्बन अधिग्रहण के पर्यावास के लिए भुगतान किया जा सकता है। परंतु यह सब इस तरह किया जाना चाहिए कि भविष्य में सही कदम उठाने की बुनियाद पड़ सके। इस बात को उचित ठहराना कि अगर किसानों को भुगतान नहीं किया जाता तो उन्हें पराली जलानी ही चाहिए, दरअसल किसानों के साथ तो अन्याय है ही, उनके और हमारे बच्चों के लिए भी यह नुकसानदेह है।

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