राजस्थान सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तर्ज पर प्रदेश के शहरी क्षेत्रों के लिए शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू करने का निर्णय लिया है। कांग्रेस शासित राजस्थान इसे इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना का नाम देने जा रहा है और मनरेगा की तरह इसमें भी मांग के आधार पर 100 दिन का रोजगार दिया जाएगा। प्रदेश ने इसके लिए 800 करोड़ रुपये की राशि अलग की है। योजना के कई ब्योरों की प्रतीक्षा है लेकिन इसे शहरी बेरोजगारी की समस्या को लेकर पहली संस्थागत प्रतिक्रिया माना जा सकता है। शहरी बेरोजगारी की समस्या 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान लगे देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान सामने आई थी। कुछ अन्य राज्यों ने भी शहरी गरीबी राहत कार्यक्रम घोषित किए लेकिन उनमें संसाधनों की कमी थी और वे अस्थायी उपाय थे। उस दृष्टि से देखें तो यह सवाल बनता है कि क्या ऐसे कार्यक्रम के लिए 800 करोड़ रुपये की राशि पर्याप्त होगी। राज्य सरकार का कर्ज सकल घरेलू उत्पाद के तकरीबन एक तिहाई हिस्से के बराबर है और वह पहले ही जोखिम भरे स्तर तक पहुंच चुका है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने सितंबर 2021 में राजस्थान को उन आठ राज्यों में से एक माना था जिनका कर्ज चिंताजनक स्तर पर था। इस संदर्भ में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर पेंशन को दोबारा शुरू करने की घोषणा और दिक्कतदेह है। भारी कर्ज के बीच बिना समुचित राजकोषीय समर्थन के पात्रता योजनाओं का विस्तार करना आपदा को न्योता है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि शहरी इलाकों में बेरोजगारी और अनिश्चितता की समस्या एक ऐसी समस्या है जिससे राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सरकार को निपटना होगा। सच यह है कि रोजगार निर्माण, खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में रोजगार तैयार करना जरूरतों के अनुरूप नहीं रहा है और यह बात तमाम संकेतकों और सर्वेक्षणों से साबित हो चुकी है। सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण से पता चला कि कृषि क्षेत्र में श्रम शक्ति दशकों में पहली बार बढ़ी। यह बात शहरी क्षेत्र में रोजगार की खराब स्थिति को दर्शाती है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप संसद की श्रम संबंधी स्थायी समिति ने राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी की मांग की थी जिसकी केंद्र सरकार ने संभवत: इसलिए अनदेखी कर दी क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर नया कार्यक्रम शुरू करने का व्यापक राजकोषीय प्रभाव भी होता। ऐसे में राजस्थान के प्रयास को प्रारंभिक प्रयोग के तौर पर देखा जा सकता है जिससे पता चलेगा कि देशव्यापी स्तर पर ऐसा प्रयास व्यावहारिक होगा अथवा नहीं।
यह बात ध्यान रखनी होगी कि किसी भी शहरी रोजगार गारंटी योजना को लेकर कई तरह की चिंताएं हैं। मसलन ऐसी किसी योजना का क्रियान्वयन मनरेगा की तुलना में काफी जटिल होगा। अकुशल श्रमिकों के लिए शहरी इलाकों के सार्वजनिक रोजगारों में बहुत सीमित अवसर हैं। संभव है कि श्रमिकों की रिहाइश के आसपास उन्हें काम न मिले। दूसरा प्रश्न अर्हता से जुड़ा हुआ है। क्या दूसरे राज्य के कामगारों को भी किसी राज्य की शहरी रोजगार गारंटी योजना के तहत काम मिलेगा? क्या रोजगार के अधिकार को विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जा सकेगा? इनमें से कुछ सवालों के जवाब किसी भी प्रस्तावित राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी योजना में मिल सकते हैं लेकिन अगर राज्य सरकारें उन्हें प्रस्तुत करती हैं तो इन्हें खास अवसर माना जाना चाहिए। ऐसी योजनाओं की मदद से कम रोजगार सृजन की समस्या को हल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए मध्यम और दीर्घावधि के हलों की आवश्यकता है लेकिन सभी स्तरों पर सरकारें इस मामले में बहुत शिथिल रही हैं। आशा की जानी चाहिए कि राजस्थान सरकार एक जरूरी समस्या हल करने की कोशिश में अपनी क्षमता से आगे निकलकर प्रयास न कर रही हो।
