कोविड-19 महामारी के प्रसार और इस पर काबू पाने के लिए लागू की गई नीतियों ने श्रम बाजारों के लिए एक असामान्य झटका दिया जिससे भारत में बेरोजगारी स्तर काफी बढ़ गया है। अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाली संस्था सीएमआईई के मुताबिक अप्रैल 2020 में ही करीब 12.2 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए थे। इतने बड़े पैमाने पर नौकरियां गंवाना इस लिहाज से आश्चर्यजनक है कि भारत की श्रमशक्ति का बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यों में संलग्न है जिनमें कार्यकाल एवं आय बनी रहने की सुरक्षा नहीं होती है। इनमें से बहुत लोग ऐसी नौकरियों में हैं जिन्हें घर से काम करने की सुविधा नहीं मिलती है। वेतनभोगी नियमित कर्मचारियों की तादाद 24 फीसदी है लेकिन इनमें से भी 69.5 फीसदी लोगों का रोजगार अवधि को लेकर अपने नियोक्ताओं के साथ कोई लिखित रोजगार (2018-19)अनुबंध नहीं था। इस वजह से वे अस्थायी कर्मचारियों की ही तरह महामारी एवं लॉकडाउन की दोहरी मार झेलने को मजबूर हैं।
नौकरियों एवं आय में चौतरफा गिरावट को देखते हुए फौरन रोजगार सृजन की दर बढ़ाने की जरूरत है। इसके लिए एक समग्र एवं स्पष्ट योजना बनाई जानी चाहिए। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) के प्रभावी क्रियान्वयन, इसका दायरा बढ़ाने और मजबूती देने के साथ शहरी क्षेत्रों के लिए भी रोजगार गारंटी योजना लेकर आना इसके महत्त्वपूर्ण अवयव हैं। हालांकि काम के बदले रोजगार के सार्वजनिक कार्यक्रमों से ही भारत के रोजगार संकट का दीर्घकालिक हल नहीं निकल सकता है। यह संकट तो कोविड महामारी के पहले से ही मौजूद है। हाल ही में प्रकाशित श्रमशक्ति सर्वे के आंकड़े दिखाते हैं कि 2018-19 में बेरोजगारी दर सामान्य स्थिति के लिहाज से 5.8 फीसदी और मौजूदा साप्ताहिक स्थिति के हिसाब से 8.8 फीसदी थी। युवाओं में बेरोजगारी की दर तो 17.3 फीसदी के खतरनाक स्तर पर थी।
महामारी की वजह से रोजगार संकट और भी गंभीर हो गया है। ऐसी स्थिति में भारत की वृद्धि रणनीति नए सिरे से निर्धारित करने की जरूरत है जिसमें रोजगार अधिक देने वाले और अकुशल एवं अद्र्ध-कुशल कामगारों की बड़ी संख्या के लिए भी रोजगार पैदा कर सकने वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जाए। यह श्रम की अधिकता वाले विनिर्माण क्षेत्र पर विशेष तवज्जो देता है। भारत के खास तरह के संरचनात्मक कायाकल्प को कृषि के स्थान पर सेवा क्षेत्र की अगुआई वाली आर्थिक वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है लेकिन इस दौरान हम विनिर्माण वृद्धि के चरण को छलांग मारकर निकल गए। इसका नतीजा यह हुआ कि रोजगार सृजन में अहम भूमिका निभाने वाले विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी तीन दशकों से कुल रोजगार के 12 फीसदी पर ही टिकी हुई है। विनिर्माण के भीतर वृद्धि का क्षेत्रवार संयोजन भी ऐसा रहा है कि पूंजी एवं कौशल की प्रधानता वाले उद्योगों का प्रदर्शन श्रम-प्रधानता वाले क्षेत्रों से बेहतर रहा है।
जहां कई लोगों ने दलील दी है कि यह भारत के कठोर समझे जाने वाले श्रम कानूनों का नतीजा है, वहीं हर कोई यह जानता है कि कंपनियों ने ठेके पर कर्मचारी रखने और कई तरह के काम बिना पंजीकरण वाली इकाइयों एवं घरों से काम करने वाले श्रमिकों को आउटसोर्स करने की तरकीबें अपना रखी हैं ताकि कानूनी दायरे में आने और श्रम लागत के बोझ से बचा जा सके। इन कानूनों को अक्सर ठीक से लागू भी नहीं किया जाता है। इसकी वजह यह है कि श्रम कानूनों में जमीनी एवं कानूनी स्तर पर लचीलेपन में खासा फर्क है। श्रम-साध्य विनिर्माण क्षेत्र का प्रदर्शन काफी हद तक औसत होना आजादी के बाद लागू उस औद्योगिक नीति का ही नतीजा है जिसमें पूंजीगत उत्पादों के मामले में आत्म-निर्भरता हासिल करने पर ध्यान दिया गया है जबकि श्रम-सघनता वाले विनिर्माण का जिम्मा लघु एवं कुटीर उद्योगों और घरों से संचालित इकाइयों पर डाल दिया गया है। वर्ष 1967 की लघु उद्योग नीति में मजदूरों की अधिक जरूरत वाले विनिर्माणों को लघु उद्योगों के लिए आरक्षित कर दिया गया और इस काम में मध्यम एवं बड़ी कंपनियों का प्रवेश एक तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। इससे श्रम-सघनता वाले उद्योगों की प्रगति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
इस नीति को क्रमिक रूप से तिलांजलि देने की शुरुआत 1997 में हुई और यह काम 2015 में जाकर पूरा हुआ। लेकिन आज भी श्रम-साध्य उद्योगों पर छोटी एवं अनौपचारिक इकाइयों का ही दबदबा है जो बड़े स्तर पर काम कर पाने में अक्षम होती हैं। मसलन, परिधान उद्योग में 50 फीसदी से अधिक रोजगार एक से नौ कर्मचारियों वाली इकाइयां देती हैं और ये मूलत: असंगठित हैं। ‘मेक इन इंडिया’ जैसी हालिया पहल में भी जोर पूंजी-प्रधानता एवं कौशल-साध्य वाले क्षेत्रों पर ही है क्योंकि अब भी हमारी यही राय है कि ये उद्योग ही आर्थिक सफलता एवं वृद्धि के अधिक सशक्त प्रतीक हैं। यह सोच इसके बावजूद है कि इन उद्योगों में कम शिक्षा एवं दक्षता वाले अधिक कर्मचारियों को समाहित करने की गुंजाइश नहीं होती है। परिधान उद्योग में पूंजी एवं श्रम का अनुपात काफी कम है जो अधिक तारीफें बटोरने वाले ऑटो उद्योग से बेहतर स्थिति है। परिधान उद्योग कम पूंजी में भी अधिक रोजगार देने की क्षमता रखता है।
इस पृष्ठभूमि में एक ऐसी औद्योगिक नीति की जरूरत है जिसमें श्रम-साध्य विनिर्माण पर विशेष जोर हो। यह नीति निर्यात एवं घरेलू मांग दोनों पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बनाई जानी चाहिए। हमें ध्यान रखना होगा कि भारत की गिनती अब भी एक निम्न-मध्यम आय वाले देशों में होती है जहां प्रति व्यक्ति सकल वार्षिक आय 2,000 डॉलर से थोड़ी ही अधिक है। यहां पर अब भी निम्न एवं मध्यम आय वर्ग की तरफ से किफायती वस्तुओं की मांग आने की पर्याप्त गुंजाइश है और विनिर्माण क्षेत्र को घरेलू मांग पूरा करने पर भी ध्यान देना होगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम केवल घरेलू मांग की ही पूर्ति के लिए उत्पादन करें और इसे आयात विकल्प की एक रणनीति के तौर पर ही देखें। अधिक रोजगार देने वाले क्षेत्रों में छोटी इकाइयों को प्रतिस्पद्र्धा से संरक्षण देने से असल में वे रोजगार सृजन की अपनी क्षमता का दोहन कर पाने से पीछे रह गए और इससे संरक्षणवाद का खतरा भी पैदा होता है। भारत को औद्योगिक नीति से ही अनुरूपता रखने वाली एक तटकर नीति की भी जरूरत है ताकि इसके रोजगार-प्रधान उद्योगों की प्रतिस्पद्र्धात्मकता बढ़ सके। परिधान उद्योग का अनुभव यह बताता है कि सिंथेटिक कपड़े जैसे कच्चे माल पर अधिक आयात शुल्क लगने से इन इकाइयों की प्रतिस्पद्र्धा क्षमता पर किस तरह चोट पहुंचती है?
श्रम-साध्य औद्योगीकरण की रणनीति का एक जरूरी बिंदु यह भी है कि सभी कामगारों को सामाजिक सुरक्षा का बुनियादी न्यूनतम स्तर जरूर मिले। इससे न केवल श्रमिकों की खुशहाली और उसकी वजह से उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी बल्कि सार्थक श्रम सुधारों की नींव भी तैयार होगी। श्रम सुधार एक तरफ कंपनियों को लगातार बदलते बाजार हालात के मुताबिक खुद को ढालने की जरूरत और दूसरी तरफ श्रमिकों की सुरक्षा के बीच संतुलन साधने का काम करेंगे। हमें यह मानना होगा कि भारत की श्रमशक्ति के लिए सुरक्षित एवं बढिय़ा रोजगार पैदा करना न केवल मौजूदा रोजगार संकट के समाधान बल्कि पहले से चली आ रही कमजोर समग्र मांग की समस्या दूर करने और श्रम बाजार की असमानताएं कम करने में भी मददगार होगा।
(लेखिका इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च आन इंटरनैशनल इकनॉमिक रिलेशंस में सीनियर फेलो हैं)
