इस हफ्ते राजनीतिक दलों की ‘मुफ्त उपहारों की घोषणा’ (फ्रीबीज) से जुड़ी बहस एक अहम पड़ाव पर पहुंच गई। भारतीय निर्वाचन आयोग ने मंगलवार को राजनीतिक दलों को पत्र लिखकर आदर्श आचार संहिता में संशोधन करने से पहले उनकी राय मांगी है। इस पूरी कवायद का मकसद यह है कि चुनाव घोषणापत्र में राजनीतिक दलों द्वारा किए गए चुनावी वादों के राजकोषीय प्रभाव की बात भी शामिल की जा सके।
मुफ्त उपहारों के इस मुद्दे पर तब अधिक ध्यान दिया जाने लगा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में इस पर बात की और उच्चतम न्यायालय ने भी मामले से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया। निर्वाचन आयोग के मुताबिक आदर्श आचार संहिता के मौजूदा दिशानिर्देशों में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को अपने वादों के औचित्य और ऐसे वादे पूरा करने के लिए पूंजी का इंतजाम करने के संभावित तरीकों का भी पूरा ब्योरा देना होगा। आमतौर पर राजनीतिक दल नियमित रूप से मुफ्त उपहारों की घोषणा करते हैं लेकिन इससे कोई पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती है। इस प्रकार प्रस्तावित बदलाव में अधिक विवरण की मांग की जाएगी।
उदाहरण के लिए, निर्वाचन आयोग के मौजूदा प्रारूप के मुताबिक राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा होगी कि वे अपेक्षित खर्च के साथ ही व्यक्तियों/परिवारों के संदर्भ में वादों के कवरेज की सीमा की घोषणा करें। राजनीतिक दलों से यह उम्मीद की जाएगी कि वे ऐसे सभी वादों का ब्योरा अलग से उपलब्ध कराएं। उन्हें सभी चुनावी वादों को पूरा करने के लिए कुल आवश्यक खर्च की भी जानकारी देनी होगी।
इसके अलावा राजनीतिक दलों से यह भी उम्मीद होगी कि वे इस बात की जानकारी दें कि वादे पूरे करने के लिए पूंजी का इंतजाम कैसे किए जाएगा। उदाहरण के तौर पर राजस्व में वृद्धि की जाएगी या खर्च को तर्कसंगत बनाया जाएगा। साथ ही इन मदों के तहत व्यापक विवरण देने होंगे। सैद्धांतिक रूप से सरकारी फंडिंग पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही सार्वजनिक मंच पर अधिक जानकारी देने के प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि आयोग के प्रस्ताव का सावधानी से आकलन करने की आवश्यकता है।
संभावना यह है कि इस तरह की विस्तृत जानकारी मांगने से विपक्षी दलों को नुकसान होगा। उदाहरण के तौर पर आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले किसी भी योजना को शुरू करने से सत्तारूढ़ पार्टी को रोकने के लिए कोई भी उपाय नहीं है क्योंकि यह विधानसभा या संसद की मंजूरी पर निर्भर करता है।
लेकिन अगर कोई विपक्षी दल इसी तरह की योजना का वादा करता है, तो उसे इस बात का विवरण देना होगा कि योजना पर अमल करने के लिए पूंजी का इंतजाम कैसे किया जाएगा। इस तरह विस्तार से जानकारी देने के लिए सभी राजनीतिक दलों को राजकोषीय मुद्दों में विशेषज्ञता हासिल करने की आवश्यकता होगी जिसकी अक्सर कमी देखी जाती है।
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आयोग इस स्तर की जानकारी पर किस तरह से गौर करेगा। उसके पास न तो ऐसी क्षमताएं हैं और न ही इसकी उम्मीद की जा सकती है। ऐसे में यह जरूरी है कि आयोग इस मोर्चे पर सावधानी से आगे बढ़े और सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर सुनिश्चित किए जाएं जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है।
व्यापक तौर पर देखा जाए तो फ्रीबीज के राजकोषीय प्रबंधन का मुद्दा चुनावी मौसम तक सीमित नहीं है। सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अक्सर फिर से चुनाव की संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिए कई लोक-लुभावन या कल्याणकारी योजनाओं का लागू करते हैं। हालांकि सांसद और विधायक राज्यों और केंद्र में खर्च या अपेक्षित राजस्व हानि की मंजूरी देते हैं लेकिन वे हमेशा इसके दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं होते हैं।
इसी वजह से एक स्वतंत्र राजकोषीय निकाय होना महत्त्वपूर्ण है, जिसमें निरंतर केंद्र और राज्य दोनों के लिए बजट प्रावधानों का आकलन करने की विशेषज्ञता हो। कई वित्त आयोगों ने ऐसी संस्था स्थापित करने की सिफारिश की है। इससे न केवल सांसद और विधायक सशक्त होंगे बल्कि वे आम जनता को राजकोषीय मुद्दों के बारे में भी बताने में सक्षम होंगे।
हालांकि ये सिफारिशें सरकारों पर बाध्यकारी नहीं होंगी लेकिन सूचनाओं से लैस सार्वजनिक विमर्श के माध्यम से निर्णय प्रभावित होंगे। निष्पक्ष रूप से कहा जाए तो निर्वाचन आयोग या अदालतें राजकोषीय जिम्मेदारी के मुद्दे को हल करने की स्थिति में नहीं हैं। दोनों स्तरों पर सरकारों और विधायिका को ही पहल करनी होगी।
