भारत के क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) व्यापार समझौते से अंतिम समय में बाहर निकलने के एक साल बाद उसके लिए समस्त व्यापारिक माहौल में आमूलचूल बदलाव आ चुका है। आरसेप में शामिल अन्य देश- दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों का समूह आसियान और जापान, चीन, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड आदि ने आगे बढ़कर संधि पर हस्ताक्षर किए। इस बीच भारत सरकार की नीतियां काफी हद तक संरक्षणवादी हो गई हैं। इसके लिए आयात शुल्क अपनाया गया, विभिन्न प्रतिबंध लगाए गए और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन लागू किए गए जो अब कई क्षेत्रों की घेराबंदी कर रहे हैं। ऐसे में किसी अन्य सार्थक कारोबारी ब्लॉक में शामिल होना और मुश्किल हो रहा है। हालांकि आरसेप तमाम अन्य विकल्पों की तुलना में हल्का समझौता है। अटलांटिक पार साझेदारी की ही बात करें तो 20वीं सदी के आरसेप की तुलना में वह 21वीं सदी के व्यापारिक गतिरोधों पर अधिक ध्यान देती है। बहरहाल इसके बावजूद यह भारत के मौजूदा कारोबारी साझेदारों और इस क्षेत्र पर व्यापक प्रभाव डालेगी। आसियान देशों का अनुमान है कि आरसेप देशों में अभी जितनी वस्तुओं का कारोबार हो रहा है उनमें से दोतिहाई शुल्क और कोटा मुक्त होंगी। वस्तुओं के निर्माण स्थल से संबंधित तथा अन्य नियमन को आसान किया जाएगा। इससे आरसेप देशों के बीच आपूर्ति शृंखला प्रभावी और मजबूत होगी।
भारत और चीन के बीच भूराजनीतिक माहौल भी गत वर्ष के अंत से ही सर्द है लेकिन इसके बावजूद व्यापार एकीकरण से जुड़ी आर्थिक दलील में कोई बदलाव नहीं आया है। ऐसा नहीं है कि भारत विश्व व्यवस्था में गहराई से संबद्ध नहीं है। न ही सरकार के उन दावों को निकट भविष्य में कोई विश्वसनीयता मिलने वाली है कि चालू या समाप्ति की दिशा में बढ़ चुके मुक्त व्यापार समझौते असल समस्या हैं और भविष्य में बेहतर मुक्त व्यापार समझौते उपलब्ध होंगे। ऐसा कोई मुक्त व्यापार समझौता नहीं हो सकता जो भारत को बिना किसी समस्या के लाभान्वित करे। दरअसल उन अवसरों का लाभ लेने की जरूरत है जो उपलब्ध हैं। चीन की इस बात पर नजर है कि भारत ने स्वेच्छा से वैश्विक एकीकरण के अगले दौर से स्वयं को अलग रखा है। इससे भी बुरी बात यह है कि आरसेप जैसा समझौता जिसमें जापान जैसे भारत के साझेदार देश इस आशा में शामिल हुए कि उन्हें इससे भारत और इस क्षेत्र के साथ करीबी आर्थिक रिश्ते कायम करने में मदद मिलेगी, वे आखिरकार चीन को समृद्ध करने में मददगार होंगे। भारत ने जब समझौते से अलग होने का निर्णय लिया था तब शायद इस विषय में विचार नहीं किया होगा।
अब अगर भारत का मन बदले और वह इसमें शामिल होना भी चाहे तो राह आसान नहीं होगी क्योंकि चीन तमाम बाधाएं पैदा करेगा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारतीय आयात के लिए अगला कदम क्या होगा। संरक्षणवादी उद्योगों की लॉबी भारत- यूरोपीय संघ मुक्त व्यापार समझौते को लंबे समय से सफलतापूर्वक बाधित कर रही है। भारतीय राजनयिक निरंतर यह दावा करते रहे हैं कि यूरोपीय संघ के साथ एक छोटा समझौता बस होने ही वाला है। जबकि संघ ने बार-बार कहा है कि यूरोपीय संघ की आंतरिक जटिलता के कारण हस्ताक्षर नहीं हुए और न होंगे। वह केवल व्यापक समझौते पर हस्ताक्षर करेगा। अमेरिका के साथ व्यापार समझौता अभी दूर की कौड़ी है। यदि एशिया-प्रशांत और अफ्रीका अपने आंतरिक मुक्त व्यापार ब्लॉक में शामिल होते हैं तो भारत अलग थलग पड़ जाएगा। इसका असर निर्यात और वृद्धि पर पड़ेगा। यह आर्थिक दृष्टि से आत्मघाती है। यह विनिर्माण और कुछ हद तक कृषि क्षेत्र में घरेलू प्रतिस्पर्धा को लेकर सरकार की असुरक्षा भी दर्शाता है। आत्मनिर्भरता मुक्त व्यापार का बेहतर विकल्प नहीं है और यह दर्शाता है कि हमारी नीतिगत दिशा सही नहीं है।
