चीन का आर्थिक उभार और तकनीकी महारत को पूरी दुनिया स्वीकार करती है। मगर हाल तक यह बहुत कम स्वीकार किया गया है कि भारतीय क्षेत्र में सैन्य घुसपैठ, अरुणाचल प्रदेश पर लंबे-चौड़े दावों और पश्चिम के साथ बातचीत समेत वैदेशिक मोर्चे पर चीन के आक्रामक रुख की वजह उसकी आर्थिक ताकत में बढ़ोतरी है। भारत सरकार ने अपनी विदेश नीति के समीकरणों में पड़ोसियों और प्रमुख शक्तियों के आर्थिक आकार, व्यापार, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से संबंधित आंकड़ों और सैन्य ताकत में बदलाव पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।
इसकी एक मुख्य वजह यह है कि भारत का विदेश मंत्रालय, वाणिज्य एवं उद्योग और वित्त मंत्रालय आम तौर पर दिल्ली या विदेशी राजधानियों में सरकार के प्रमुखों की बैठकों से पहले समन्वित बैठकों को छोड़कर अलग-अलग काम करते हैं। हालांकि विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय में बेहतर समन्वय है और उम्मीद है कि अब यह चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भावी घटनाक्रम के परिदृश्य का विश्लेषण कर रहा है।
पश्चिम और सोवियत संघ के बीच पहले की दुश्मनी 21वीं सदी में भी जारी है। हालांकि रूस के खिलाफ दुश्मनी थोड़ी कमजोर पड़ी है। सीरिया में बाल्टिक रिपब्लिक्स, यूक्रेन, पोलैंड और रूस के दखल की चिंताओं के कारण अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस से पैदा खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। वर्ष 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया पर रूस के कब्जा कर लेने के बाद पश्चिम की चिंताएं वाजिब लगी थीं। लेकिन पश्चिम को भी यह समझने की जरूरत है कि रूस भी यूरोपीय संघ के पूर्व वारसा संधि में शामिल देशों को शामिल करने के लिए पूर्व की तरफ कदम बढ़ाने से चिंतित है। इकॉनमिस्ट के 13 नवंबर के अंक में एक आलेख का शीर्षक है- ‘व्लादीमिर पुतिन- रूस का दमन का नया युग- इससे पश्चिम से टकराव बढ़ेगा।’ पश्चिमी प्रकाशनों में इकॉनमिस्ट का पुतिन के मानवाधिकार हनन करने जैसे एलेक्सी नवालनी को निशाना बनाने की आलोचना करना उचित है।
रूस की सैन्य तकनीकी महारत का भी हवाला दिया जाता है, जो इस तथ्य से साफ है कि भारत और चीन ने हाल में उससे एच-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदी है। हालांकि रूस की व्यापक आर्थिक संभावनाओं को अंग्रेजी मीडिया में कम जगह मिलती है क्योंकि उसकी शेष विश्व के साथ व्यापार और निवेश की बातचीत मुख्य रूप से तेल, गैस और खनिजों का एक अहम स्रोत बनी हुई है।
इसके विपरीत पश्चिम की प्रवृत्ति रही है कि उसने चीन के अपनी सीमाओं के भीतर रहने वाले उइगुर और तिब्बतियों जैसे करोड़ों लोगों के दमन की अनदेखी की है। साफ तौर पर चीन और रूस को लेकर पश्चिम के रुख में अंतर की वजह यह है कि पश्चिम की वित्तीय क्षेत्र की कंपनियां चीन में बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए निवेश कर भारी मुनाफा कमा रही हैं। यह आर्थिक लिहाज से उपयुक्त है क्योंकि चीन में विश्व में सबसे अधिक पर्याप्त प्रशिक्षित कामगार हैं और उनका वेतन विकसित देशों और रूस से भी काफी कम है। इस वेतन लागत के लाभ की बदौलत ही चीन विभिन्न इंजीनियरिंग उत्पादों का बड़ा निर्यातक है।
चीन के अंतरराष्ट्रीय दबदबे की वजह उसका दुनिया भर में भारी निवेश भी है और इसी वजह से वह इस समय कोयला, लौह अयस्क, तेल और कृषि उत्पादों जैसी जिंसों का सबसे बड़ा आयातक है।
किसी भी देश का राजस्व संग्रह और इसलिए निवेश एवं वृद्धि की क्षमता मुख्य रूप से उस देश की अर्थव्यवस्था के आकार और उसके घटकों से तय होती है। वर्ष 2010 से 2020 तक चीन की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका की तुलना में 16.2 से बढ़कर 27 फीसदी हो गई। 1990-91 में सोवियत संघ के विभाजन के बाद रूस की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका के मुकाबले 53.1 फीसदी से घटकर 2020 में 44.3 फीसदी पर आ गई। इसके बावजूद 2020 में चीन की प्रति व्यक्ति आय रूस की केवल 61 फीसदी ही है। साधारण प्रति व्यक्ति तुलना में अंतर-देश मूल्य शृंखला के साथ समन्वय और वैश्विक निगमों के साथ तकनीकी गठजोड़ जैसे अन्य बहुत से संकेतकों को भी जोडऩे की जरूरत है। असल में घरेलू उत्पादित माल, सैन्य उपकरणों और सेवाओं की गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धी क्षमता किसी देश की आर्थिक सेहत और विदेश नीति के विकल्पों का एक मापक होती है। चीन की प्रति व्यक्ति आय तो अधिक है ही, इसने भारत को तकनीकी उपलब्धियों में भी काफी पीछे छोड़ दिया है।
आंतरिक कारकों और आर्थिक एवं सैन्य ताकत से चीन की आक्रामकता बढ़ी है। इसके नतीजतन लोकतंत्रों खास तौर पर एशियाई लोकतंत्रों के लिए खतरा चीन है। रूस अपने जीवाश्म ईंधन के निर्यात के लिए चीन पर निर्भर है। ऐसे में यह आश्चर्यजनक है कि पश्चिम रूस को चीन की तरफ धकेल रहा है। माना जाता है कि 19वीं सदी के रूसी नाटककार और लघु कहानीकार एंटनी चेखोव ने टिप्पणी की थी कि ‘किसी भी मूर्ख को संकट का सामना करना पड़ सकता है -यह रोजमर्रा का जीवन है जो आपको थका देता है।’ यह बात विदेश नीति के मुद्दों पर भी लागू होती है। वर्ष 2020 में भारतीय क्षेत्र में चीन की घुसपैठ के बाद भारतीय सशस्त्र बल चुनौती देने के लिए बहादुरी से उठ खड़े हुए। हालांकि प्रत्याशित खुफिया-विदेश नीति विश्लेषण और सैन्य तैयारी की कमी थी। यह कहा जाता है कि जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एमईए को भारत की छवि को मजबूत करने के लिए कुछ और कदम उठाने को कहा तो पूर्व विदेश सचिव एपी वेंकटेश्वरन ने कहा कि ‘तस्वीर मूल से ज्यादा चमकदार नहीं हो सकती।’
इसी तरह भारतीय रणनीतिक सोच के बारे में निष्कर्ष यह है कि यह कितनी भी बेहतर हो, लेकिन देश की व्यवस्थागत आर्थिक-तकनीकी खामियों और सामाजिक मतभेदों की भरपाई नहीं कर सकती।
(लेखक पूर्व भारतीय राजदूत, विश्व बैंक में कॉरपोरेट फाइनैंस प्रमुख और इस समय सीएसईपी में प्रतिष्ठित फेलो हैं)
