भारत में सीमेंट सहित कई जिंसों पर दोहरी मूल्य प्रणाली लागू करने का प्रयोग हो चुका है और चीनी में अभी भी यह जारी है।
पर जैसा कि हर मामले में देखने को मिलता है कि दोहरी मूल्य प्रणाली लागू किए जाने से वितरण व्यवस्था में कुछ खामियां उजागर होती हैं और कई रैकेट भी होने लगते हैं। इसे सरकार का बिना सोचे विचारे उठाया गया कदम ही कहेंगे कि उसने चतुर्वेदी रिपोर्ट की इस सिफारिश पर विचार करने का मन बना लिया और तमाम दूसरे सुझाए गए महत्त्वपूर्ण उपायों को एक तरह से दफना दिया है।
जब भी किसी उत्पाद की बिक्री के लिए दोहरी मूल्य प्रणाली का इस्तेमाल किया जाता है तो गोरखधंधा और कालाबाजारी शुरू हो जाती है। हम केरोसिन की बिक्री में आई गड़बड़ियों से सबक सीख सकते हैं। जब राशन कार्ड के जरिए और खुले बाजार में बेचने के लिए अलग अलग दर तय की गई, तब ही यह अंदाजा लगा लिया गया था कि राशन पर खरीद कर इसे खुले बाजार में बेचने की कोशिश की जाएगी और हुआ भी बिल्कुल ऐसा ही।
सब्सिडी की दर पर बेचे जाने वाले केरोसिन में कुछ अलग रंग भी डाला गया पर उससे भी कालाबाजारी पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। कुकिंग गैस के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिला। घरों में इस्तेमाल किए जाने वाले गैस को सब्सिडी की दर पर बेचा जाता है फिर भी बड़ी आसानी से इन्हें दुकानों में भी इस्तेमाल होते देखा जा सकता है।
सवाल यह उठता है कि यह सब देखने के बाद भी सरकार को ऐसा क्यों लगता है कि डीजल के मामले में दोहरी मूल्य प्रणाली कारगर रहेगी। हम पहले से ही इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि देश में बेचे जा रहे डीजल के एक बहुत बड़े हिस्से में केरोसिन की मिलावट होती है। साथ ही कुछ ऐसा ही मामला पेट्रोल के साथ भी है (याद होगा कि एक तेल मार्केटिंग कंपनी ने अपने प्रचार अभियान में गारंटी दी थी कि अपने कुछ खास पेट्रोल पंपों पर वह 100 फीसदी शुद्ध पेट्रोल उपलब्ध कराएगी)।
ऐसे बाजार में जहां मिलावट पहले से ही जारी है वहां दोहरी मूल्य प्रणाली लागू करने का विचार करना ही बेकार है। कुछ लोगों का यह मानना हो सकता है कि तकनीक (स्मार्ट कार्ड) और बेहतर प्रबंधन कारगर साबित हो सकता है। पर ऐसा भी शायद ही हो सकेगा। सरकार डीजल को पेट्रोल से कम कीमत पर बेच रही है क्योंकि वह चाहती है कि सार्वजनिक परिवहन और कृषि बाजार (सिंचाई के लिए डीजल के जनरेटर) को कम कीमत पर ईंधन उपलब्ध हो सके।
अब अगर सरकार चाहती है कि डीजल की निजी खपत को कम किया जाए तो उसे डीजल कारों के इंजन पर ज्यादा शुल्क वसूलना चाहिए। इससे पेट्रोल कार की तुलना में डीजल कार महंगी हो जाएंगी। भारतीय ऑटोमोबाइल बाजार को डीजल ने पिछले कुछ सालों में इतना आकर्षित किया है कि पहले जिन कार उत्पादकों के बेड़े में डीजल कार का मॉडल नहीं हुआ करता था, वह भी अब बाजार में डीजल संस्करण को उतार रही हैं।
अब 30 फीसदी अधिक डीजल कारें बिकने लगी हैं और अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो इन कारों की बिक्री का ग्राफ और ऊपर चढ़ेगा। इसलिए डीजल की बिक्री पर दोहरी मूल्य प्रणाली लागू करने से तो बेहतर है कि इसकी कीमत को काबू में रखने के लिए डीजल कारों पर अतिरिक्त शुल्क वसूला जाए, जिससे खुद ब खुद इन कारों की बिक्री कम होगी। इससे भारी मात्रा में डीजल की खपत भी कम हो सकेगी।