भारत के आवासीय बाजार में मालिकाना नियंत्रण का चलन अधिक है। खासकर, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में किराये पर मकान बहुत कम दिए जाते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी 70 प्रतिशत से अधिक मकान उनके वास्तविक मालिक स्वयं इस्तेमाल करते हैं या अपने नियंत्रण में रखते हैं। इस तरह, शहरी बाजार में किराया बाजार की हिस्सेदारी महज एक चौथाई है। हालांकि यह आंकड़ा कम नहीं माना जा सकता है। इसलिए यह बिल्कुल उचित है कि केंद्र सरकार आदर्श किराया कानून लेकर आई है। अब राज्य सरकारों को यह कानून लागू करना है और इस संबंध में कानून बनाने और विशेष न्यायालय स्थापित करने में कुछ वर्ष लग जाएंगे। बहरहाल नया कानून किराया कारोबार और आवास खंड में मूलभूत बदलाव ला सकता है।
तीन दशक पहले तक अर्थव्यवस्था में आवास निर्माण की प्रक्रिया धीमी थी। देश के ज्यादातर शहरों और गांवों में यह पूरी तरह राज्य के नियंत्रण में था और निर्माण धीमा होने से खरीदारों को मकान देरी से मिलते थे और मकान की भारी किल्लत बनी रहती थी। जैसे ही निजी डेवलपरों का प्रवेश हुआ, दिल्ली के निकट नए उपनगर बसने शुरू हो गए। हालांकि कोलकाता और पुणे जैसे शहरों के इर्द-गिर्द उपनगर तेजी से नहीं उभर पाए, जबकि बेंगलूरु और हैदराबाद के लिए तो यह किसी सपने जैसे था। वर्ष 1991 में आवास वित्त जीडीपी का महज 1 प्रतिशत के बराबर था।
मकान खरीदने के लिए ऋण की व्यवस्था शुरू होने पर आवास वित्त का अनुपात 2005 में जीडीपी का 7 प्रतिशत तक पहुंच गया। बाद में यह थोड़ा कम हो गया लेकिन अब करीब 10 प्रतिशत है। आवास ऋण नहीं चुकाने की घटनाएं यदा-कदा ही सामने आती हैं, इसलिए इसे सर्वाधिक सुरक्षित ऋण माना जाता है। अगर इस खंड का सही प्रबंधन हो तो यह अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हो सकता है। इससे न केवल वित्त प्रदत्त करने की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी बल्कि कई उत्पादों एवं सेवाओं की मांग भी बढ़ेगी।
लेकिन इस क्षेत्र में अनियमितताओं की कमी नहीं है। सांठगांठ से जमीन की कीमतें बढ़ाए जाने से रियल एस्टेट की लागत बहुत ज्यादा हो गई है। यही वजह है कि दो-तिहाई मकानों में एक या दो कमरे होते हैं लेकिन उनकी कीमतें मकान खरीदार के कई वर्षों के वेतन के बराबर होती हैं।
मकान खरीदने पर आने वाले खर्च की तुलना में किराये से प्राप्त आय ज्यादातर मामलों में कम (महज 2 प्रतिशत) होती है। किरायेदारों की मदद करने वाले किराया कानून से कोई फायदा नहीं होता है। इस समय देश में 1 करोड़ मकान खाली पड़े हैं क्योंकि मालिक मकान किराया पर देने का जोखिम मोल नहीं लेना चाहते हैं। इससे जायदाद बिना उपयोग के धूल फांकती रहती है। जर्मनी का संदर्भ लें तो वहां 60 प्रतिशत लोग अपने मकान किराये पर लगाते हैं। आदर्श किराया कानून मकान मालिक और किरायेदारों दोनों के हितों की रक्षा करते हुए एक संतुलन कायम कर सकता है। मोदी सरकार ने इस क्षेत्र के लिए अच्छी पहल की है। प्र्रधानमंत्री आवास योजना से ग्रामीण क्षेत्रों में 1.2 करोड़ से अधिक आवास बनाने में मदद मिली है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों और कामगारों को किराये पर आवास संकुल देने का कार्यक्रम आवास बाजार में बड़ा बदलाव ला सकता है। इससे उन लोगों का जीवन बदल जाएगा जो बदतर स्थिति में रहते हैं। रियल एस्टेट नियमन एवं विकास अधिनियम (रेरा) ने निर्माण कारोबार का ताना-बाना बदल दिया है और अपार्टमेंट खरीदने वाले लोगों के हित पहले से अधिक सुरक्षित हो गए हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 23 करोड़़ आवासीय इकाइयों में मात्र आधी ही ‘अच्छी’ स्थिति में थी। यहां कुछ बेहतर करने की संभावनाएं हैं। लेकिन डेवलपर-राजनीतिक नेताओं की सांठगांठ से नहीं निपटा गया तो तो फिर ऐसा संभव नहीं हो पाएगा। दिल्ली में अब भी जमीन का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास है, जिनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। मुंबई में झुग्गी पुनर्वास योजना का उतना लाभ नहीं मिल पाया है जितना मिल सकता था। जहां भी आवासीय बाजार में जमीन का एक छोटा हिस्सा आता है वहां इसकी कृत्रिम कमी पैदा की जाती है। वहां कुछ लोग (रॉबर्ट वाड्रा इसके एक अच्छे उदाहरण हैं) अच्छी तरह जानते हैं कि इस स्थिति का फायदा कैसे उठाया जा सकता है।
बदलाव धीमी गति से हो रहा है और यह पेचीदा भी है। इसकी वजह यह है कि निगम, राज्य एवं राष्ट्रीय तीनों स्तर पर सरकार शामिल है। इनमें सभी को कुछ न कुछ करना होगा। हाल के वर्षों में ज्यादातर पहल केंद्र सरकार की तरफ से ही हुई है। वास्तविक बदलाव तभी आ पाएगा जब कार्य राज्य और निगम स्तरों पर संपादित होंगे। आवास तक सही अर्थ में सबकी पहुंच सुनिश्चित करने और उसे एक लाभदायक निवेश बनाने की दिशा में काफी कुछ करना होगा।