एशिया में ऐसे अनेक मिसाल मिल जाएंगी, जब निवेशकों ने वास्तविक अर्थव्यवस्था से सृजित संपत्ति को बर्बादी कर दिया। जापान ने 1980 में ऐसा किया था।
इस दौरान रियल एस्टेट और फिल्म स्टूडियो में भारी खरीदारी की गई। आकर्षक कीमतों पर क्या नहीं खरीदा गया? इसके बाद 1990 की शुरुआत में आई मंदी के दौरान जापान को भारी मात्रा में धनराशि से हाथ धोना पड़ा और उसके बाद से वहां इस तरह के रोमांचक कामों में कोई खास दिलचस्पी देखने को नहीं मिली है।
चीनी फंडों सहित संप्रभु संपदा कोषों को वैश्विक वित्तीय बाजार में आए मौजूदा तूफान के दौरान सैकड़ों अरब रुपये गंवाने पड़े हैं। इन फंडों में से ज्यादातर एशियाई हैं। अमेरिकी टे्रजरी (अन्य डॉलर प्रतिभूतियों) में किए गए भारी निवेश की कीमत घटने के कारण भी चीनी प्राधिकरणों को गहरा आघात लगा है।
चीन ने अमेरिकी प्रतिभूतियों में करीब 1,500 अरब डॉलर का निवेश किया है, जो उसके कुल जीडीपी का 40 प्रतिशत है। क्या अंकल सैम द्वारा जारी किए गए आईओयू (ऋण की स्वीकारोक्ति) को ‘एक दिवालिया बैंक के पोस्ट डेटेड चेक’ के रूप में तब्दील किया जाएगा? चीन के संप्रभु संपदा कोष चाइना इनवेस्टमेंट कॉर्पोरेशन (सीआईसी) को बड़ी संख्या में मीडिया की आलोचना का सामना करना पड़ा है।
सीआईसी के अलावा विदेशी मुद्रा प्रबधंन एजेंसी स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ फॉरेन एक्सचेंज (एसएएफई) भी अपने विशाल भंडार का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा इक्विटी जैसी असुरक्षित (जोखिमपूर्ण) परिसंपत्तियों में निवेश कर रहा है और निश्चित तौर से बीते दिनों उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा है।
लेकिन निश्चित तौर से सबसे बड़ी चिंता अमेरिकी टे्रजरी सिक्योरिटी की एसएएफई होल्डिंग्स को लेकर है। इस मद में किया गया निवेश 1,000 अरब डॉलर से भी अधिक है। इसके दो संभावित खतरे हैं। ब्याज दरों से जुड़ा जोखिम। ऐतिहासिक स्तर के मुकाबले बॉन्ड प्रतिफल काफी कम है और आर्थिक हालात में सुधार के साथ ही इनमें तेजी देखने को मिलेगी।
दूसरा जोखिम दुनिया की दूसरी मुद्राओं और खासकर युआन के मुकाबले डॉलर की कीमतों में संभावित उतार-चढ़ाव से जुड़ा हुआ है। भारी चालू खाता घाटे और राजकोषीय घाटे को देखते हुए कहा जा सकता है कि निश्चित तौर से देर-सबेर बाजार में एक सुधार देखने को जरूर मिलेगा।
उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के बजट पूर्व अनुमानों के मुताबिक वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान राजकोषीय घाटे के बढ़कर जीडीपी का 14 प्रतिशत होने का अनुमान है। अगर यह गिरावट तेजी से होती है तो केंद्रीय बैंक तक दिवालिया हो सकता है।
जहां तक डॉलर युआन विनिमय दर की बात है तो ओबामा प्रशासन ने आरोप लगाया है कि चीन इसमें हेराफेरी कर रहा है। जाहिर तौर पर यह बकवास है। ऐसी कोई भी अंतरराष्ट्रीय संधि नहीं है जिसके तहत किसी देश के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार का प्रबंधन किसी खास तरह से करना जरूरी हो – और चीन ने तुरंत इस आरोप पर पलटवार करते हुए अमेरिका को सलाह दे डाली कि वह अपने विदेशी खातों को संतुलित करने के लिए खपत में कमी और बचत पर जोर देने पर ध्यान केंद्र्रित करे।
आर्थिक मंदी के कारण चीन पहले ही निर्यात बाजार में करीब दो करोड़ रोजगार खो चुका है और अब वह मुश्किल से ही मुद्रा में किसी तरह की तेजी को बर्दाश्त कर सकता है। लेकिन साफ तौर से चीन इस समय डॉलर प्रतिभूतियों में किए गए अपने भारी निवेश को लेकर चिंतित है।
इसलिए जब प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने अमेरिका से अपने निवेश की सुरक्षा तय करने के लिए कहा तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन मुख्य मसला सुरक्षा का नहीं है। अभी तो बात मूलधन को बचा लेने की है। इस बारे में आप जितना ही सोचेंगे, उतना ही आपको महसूस होगा कि इतने बड़े निवेश के मद्देनजर कुछ समाधान हो सकते हैं।
जिस क्षण ही चीन अपने भारी डॉलर भंडार को किसी दूसरी मुद्रा में परिवर्तित करना शुरू करेगा, तो इस हस्तांतरण के पूरा होने से काफी पहले ही डॉलर बुरी तरह से टूट जाएगा। इसके अलावा युआन की तेजी से द्विपक्षीय व्यापार असंतुलन को कम करने में मदद नहीं मिलेगी, क्योंकि चीन से आयातित होने वाले ज्यादातर उत्पादों का विनिर्माण अब अमेरिका में नहीं होता है।
यह सुनिश्चित करने के लिए डॉलर पर चीन की निर्भरता एकतरफा नहीं है: मुद्रास्फीति और ब्याज दरों को कम रखने के लिए अमेरिका को चीन के आयात और ट्रेजरी में उसके द्वारा किए जाने वाले निवेश की जरूरत है। और दुनिया की दूसरी मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की कीमतों में अगर तेजी से गिरावट होती है तो इसके चलते वित्तीय बाजार में और अधिक अस्थिरता देखने को मिलेगी।
यह कुछ ऐसी दशा होगी, जिसे संभाल पाना वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए काफी मुश्किल होगा। शायद, व्यापार घाटे के बजाए, बचत निवेश संतुलन पर ध्यान देकर और इसे दुरुस्त करने इसका समाधान तलाशा जा सकता है। हालांकि, व्यापक आर्थिक नजरिए से देखें तो दोनों में खास अंतर नहीं है।
अगर अमेरिकी बचत पर अधिक जोर देना शुरू करते हैं और चीनी अधिक खर्च करने लगते हैं, तो मुद्रा विनिमय में बिना किसी फेरबदल के वैश्विक असंतुलन का प्रबंधन किया जा सकता है। हालांकि अमेरिका में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा होना मुश्किल दिखता है। (जापान और तेल निर्यातक देशों का सरप्लस तेजी से घट रहा है और यूरो क्षेत्र कमोबेश संतुलित है)।
कुछ भी अप्रत्याशित होने का अर्थ है कि चीन को निश्चित तौर से अपने विदेशी मुद्रा भंडार से सैकड़ों अरब डॉलर खोने पड़ेंगे। चीन के केन्द्रीय बैंक के गवर्नर ने हाल में एसडीआर की भूमिका को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा था।
एसडीआर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रबंधित आरक्षित मुद्रा है। अब हम जरा देखते हैं कि इस सप्ताह जी-20 की बैठक से क्या नतीजे निकले हैं। अंत में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को दिए गए वित्तीय राहत पैकेज के कारण मार्क फैबर के मासिक बुलेटिन (जून 2008) में की गई यह टिप्पणी काफी रोचक है:
‘अगर हम वालमार्ट में खरीदारी करेंगे तो धन चीन चला जाएगा।
अगर हम इसे गैसोलीन पर खर्च करेंगे तो यह अरब देशों को चला जाएगा।
अगर हम एक कंप्यूटर खरीदेंगे तो यह धन भारत चला जाएगा।
अगर हम फल और सब्जियां खरीदेंगे तो यह मैक्सिको, होंडुरास और ग्वाटेमाला चला जाएगा।
अगर हम अच्छी कार खरीदेंगे तो यह जर्मनी चला जाएगा।
अगर हम निरर्थक घटिया माल खरीदेंगे तो यह धन ताइवान को चला जाएगा और इनमें से कुछ भी करके अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कोई फायदा नहीं मिलने वाला है।
इस धन को अपने घर में बचाए रखने का एक ही तरीका है कि इसे सिर्फ शराब और वेश्याओं पर खर्च कीजिए, क्योंकि आज अमेरिका केवल इनका ही उत्पादन करता है।
और इस दिशा में मैं अपने हिस्से का काम कर रहा हूं।’
