राजनीतिक टीकाकारों की कई बार यह कहकर आलोचना की जाती है कि वे बौद्धिक कलाबाज हैं। इसे सही साबित करते हुए हम वोडाफोन कंपनी से संबंधित एक मामले पर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता पंचाट के फैसले और बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव में रिश्ता जोड़ते हैं। जिस समय मैं यह आलेख लिख रहा था, उसी समय एक अंतरराष्ट्रीय पंचाट ने वोडाफोन के पक्ष में फैसला देते हुए भारत सरकार का पिछली तारीख से 20,000 करोड़ रुपये कर वसूलने का दावा खारिज कर दिया और लगभग उसी समय बिहार चुनाव की तारीख भी घोषित की गई।
दोनों मामले अलग-अलग तरह से नई अर्थव्यवस्था और राजनीति की ओर से पुरानी व्यवस्था को चुनौती भी देते हैं और एक अवसर भी मुहैया कराते हैं। वोडाफोन मामले पर निर्णय तब आया है जब इसके पटकथाकार और शायद पुरानी राजनीति और आर्थिकी में सबसे अधिक यकीन करने वाले राजनेता प्रणव मुखर्जी का हाल ही में निधन हुआ है। जाहिर है इन दोनों पुरानी धारणाओं में यकीन करने वाला व्यक्ति राज्यसत्तावादी भी होता है और मुखर्जी भी ऐसे ही थे। प्रणव मुखर्जी के साथ दशकों के संवाद के बाद मैं कह सकता हूं कि मुझे उनसे ज्यादा राज्यसत्तावादी कोई और व्यक्ति नहीं मिला। मध्यस्थता पंचाट के इस निर्णय पर उनकी प्रतिक्रिया बहुत नाराजगी भरी होती। शायद वह दांत भींचकर कहते कि वे कौन हैं, हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं। उन्होंने इसे तुरंत चुनौती दी होती और पूरी ताकत इसके खिलाफ लगा दी होती।
उनके संस्मरणों का तीसरा खंड पढि़ए जिसके बारे में मैं पहले ही लिख चुका हूं। बचाव की मुद्रा अपनाने के बजाय उन्होंने अपने संशोधनों को लेकर कहा कि कोई कुछ भी कहे लेकिन एक दशक तक किसी ने उन प्रावधानों को उलटने का साहस नहीं किया। इसमें मोदी सरकार के शुरुआती तीन वर्ष शामिल थे। उन्होंने इस बात से निष्कर्ष निकाला कि यह विचार राजनीतिक रूप से इतना जबरदस्त था कि न तो 1991 के सुधारों के शिल्पकार मनमोहन सिंह और न ही गुजरात मॉडल के प्रवर्तक नरेंद्र मोदी इसे चुनौती दे सके। बिहार चुनाव के ऐन पहले मोदी सरकार ने ऐसे सुधार किए हैं जिन्हें वह गर्व से अपने सबसे बड़े सुधार बता रही है। आलोचकों पर तंज कसते हुए मानो उसका कहना है कि आप तो कहते थे कि हमने कोई बड़ा सुधार नहीं किया? इसे आप क्या कहेंगे? कृषि और श्रम से जुड़े ये दोनों सुधार अल्पावधि में मतदाताओं के बड़े हिस्से को नाराज कर सकते हैं जो पहले ही आर्थिक संकट से दो-चार हैं। मोदी और अमित शाह बिहार चुनाव अभियान को कैसे तैयार करते हैं यह देखना दिलचस्प होगा। क्या वे इन नए और बड़े सुधारों, बदलाव और जोखिम लेने की क्षमता का प्रचार करेंगे? या वे इन बातों को छिपाकर केवल महामारी के दौरान बांटे गए अनाज और पैसों की बात करेंगे?
राजनीतिक अनुभव कहता है कि प्रचार अभियान में सुधारों का जिक्र या भविष्य की समृद्धि का वादा करने से बचा जाए। जैसा कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने अपने संस्मरण ‘बैकस्टेज’ में लिखा और मेरे शो ‘ऑफ द कफ’ में कहा भी, भारत में सुधार चोरी-छिपे होते हैं। किसी राजनेता को नहीं लगता कि आर्थिक सुधार से वोट पाए जा सकते हैं। वोट पाने के लिए पुरानी गरीबी को रेखांकित करती राजनीति जरूरी है। मैं कहना चाहूंगा कि मोदी की 2019 की जीत के लिए काफी हद तक घरेलू गैस, शौचालय और मुद्रा ऋण जैसी योजनाएं वजह थीं जिन्होंने गरीबों को प्रभावित किया। देश के अत्यंत बड़े लेकिन गरीब राज्य बिहार में मोदी कौन सी राह चुनेंगे?
यहां वोडाफोन से जुड़ा आदेश और बिहार चुनाव उनके सामने दोहरी चुनौती पेश करते हैं। पुरानी अर्थव्यवस्था और पुरानी राजनीति के मुताबिक देखें तो वह वोडाफोन ऑर्डर को चुनौती दें और बिहार में रेवड़ी बांटने का काम करें। परंतु यदि वह साहस दिखाते हैं तो वोडाफोन मामले में निर्णय स्वीकार करेंगे और बिहार में सुधार और समृद्धि के आधार पर प्रचार करेंगे। यदि यह एक साथ किया जाए तो देश में एक नए आर्थिक आशावाद का जन्म हो सकता है। परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि इससे बिहार में उनके गठबंधन को चुनाव जीतने में मदद मिलेगी या नहीं।
नई, सुधारों वाली अर्थव्यवस्था के खिलाफ पुरानी राजनीति के तर्क भी कम नहीं। सुधारों के कारण तात्कालिक कष्ट होता है और तमाम लोगों को प्रभावित करता है। उसके लाभ बहुत बाद में नजर आते हैं लेकिन फिर भी बड़ी तादाद में लोग नाखुश रह जाते हैं। इसलिए नहीं कि उनकी हालत बुरी होती है बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें अन्य लोग बेहतर स्थिति में नजर आते हैं।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के सत्ता में आने के बाद सन 2006 में जब बिल क्लिंटन भारत यात्रा पर आए तो राष्ट्रपति भवन में अपने संक्षिप्त भाषण में उन्होंने इस बात को बहुत अच्छी तरह पेश किया था। उन्होंने कहा कि वह और तमाम लोग इस बात से चकित रह गए कि भारत की विकास दर 7 प्रतिशत तक पहुंचाने के बावजूद वाजपेयी सरकार चुनाव हार गई। इतनी ऊंची वृद्धि दर के बावजूद आप हार कैसे सकते हैं? उन्होंने कहा कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उससे लाभान्वित होने वाले बहुत कम नजर आते हैं जबकि तुलनात्मक रूप से पीछे छूट गए लोग ज्यादा होते हैं। यह राजनीति की कड़वी सच्चाई है। एक बार लोगों को सुधार के लाभ मिलने लगे तो उनकी राजनीति आश्चर्यजनक तरीके से बदल सकती है। देश का शहरी मध्य वर्ग, जो बीते तीन दशक में मनमोहन सिंह और कांग्रेस के कारण समृद्ध हुआ उसने 2014 में भाजपा को जमकर वोट दिया। बल्कि उनका कांग्रेस और गांधी परिवार से इस कदर मोहभंग हुआ है कि वे आर्थिक पतन के लिए उन्हें दोष देना और मोदी तथा भाजपा को वोट देना जारी रखेंगे।
यही वजह है कि वाम दलों और लालू प्रसाद यादव ने अपने-अपने राज्यों में दशकों तक आधुनिकीकरण और वृद्धि नहीं आने दी और उन्हें जाति और विचारधारा के बंकर में सडऩे दिया। सुधार आधारित वृद्धि से जुड़ी तीसरी दिक्कत यह है कि इससे असमानता बढ़ती है। पुरानी कहावत है कि समुद्र में आने वाला ज्वार सभी नौकाओं को उठाता है लेकिन वह छोटी नावों को पहले उठाता है। इस बात को बिहार पर लागू कीजिए जो अर्थव्यवस्था की मूल्य शृंखला में सबसे नीचे और तेज विकास वाले राज्यों को सस्ते श्रम की आपूर्ति करने वाला राज्य है। इसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि यह सुधारों से सबसे अधिक दूर है। वहां के किसान अधिशेष फसल नहीं उगाते और वहां अचानक रोजगार भी नहीं पैदा होने वाले। ऐसे में इस चुनाव में कोई पंगा न लेना ही बेहतर माना जाएगा।
बिहार की राजनीति हमेशा जटिल और स्थानीय मुद्दों पर आधारित रही है। परंतु आगामी चुनाव लंबे समय बाद एक बुरे दौर में होने वाला चुनाव है। महामारी बढ़ रही है, मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं, चीन समस्या पैदा कर रहा है और अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट है। इसके अलावा हमारे पास यह अनुभव भी है कि सुधार और वृद्धि की बातें चुनाव में काम नहीं आतीं। खासतौर पर जब आप सत्ताधारी होने के बाद दोबारा जीतना चाहते हों। मोदी ने 2014 में वृद्धि का वादा किया था लेकिन वह तत्कालीन सत्ता को चुनौती दे रहे थे। 2019 में जब वह दोबारा जीतने के लिए लड़े तब पाकिस्तान और भ्रष्टाचार मुद्दा थे, गुजरात का विकास मॉडल नहीं। सन 2004 में वाजपेयी इंडिया शाइनिंग के प्रचार के बावजूद चुनाव हार गए थे। कांग्रेस को अभी भी यकीन है कि वह 1996 और 2014 का चुनाव सुधारों के कारण हारी बकि 2009 में इनके बिना जीती। तो मोदी कोई जोखिम क्यों लेंगे? यही कारण है कि यह दोहरी परीक्षा महत्त्वपूर्ण है। यदि वह सही मायनों में सुधारक और न्यूनतम सरकार में विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं तो वह वोडाफोन मामले को भुला देंगे और बिहार में अपने राजनीतिक रूप से विवादास्पद सुधारों के साथ चुनाव प्रचार करेंगे। इन दोनों कामों के लिए उन्हें अपनी राजनीतिक पूंजी दांव पर लगानी होगी। वह ऐसा कर पाते हैं या नहीं इससे ही हमारे केंद्रीय प्रश्न का उत्तर तय होगा: वह प्रश्न यह है कि क्या सुधारों को हमारी राजनीति के केंद्र में लाया जा सकता है? वरना इन्हें किस्तों में और चोरी छिपे करने का सिलसिला चलता रहेगा।
