मान लेते हैं कि भारत अपने विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ाकर जीडीपी का 25 प्रतिशत करने के प्रति गंभीर है। यह लक्ष्य सबसे पहले मनमोहन सिंह सरकार ने 2012 में तय किया था और इसके लिए एक दशक (सन 2022) तक की समय सीमा तय की गई थी। मोदी सरकार ने जब मेक इन इंडिया कार्यक्रम की घोषणा की तो उसने भी 2022 तक 25 फीसदी के इस लक्ष्य को दोहराया। परंतु इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई बल्कि 2012 से विनिर्माण हिस्सेदारी में गिरावट ही आई। नए आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम के तहत भी मान लेते हैं कि जीडीपी के 25 फीसदी का यह लक्ष्य अब सन 2030 तक के लिए निर्धारित हो सकता है और पहले की तरह इसके लिए भी एक दशक आगे का समय तय हो सकता है। इन आंकड़ों से क्या तात्पर्य निकाला जाए?
मान लेते हैं कि सन 2021-22 तक जीडीपी दोबारा 204 लाख करोड़ रुपये के साथ 2019-20 के कोविड पूर्व के स्तर पर पहुंच जाएगा। यह भी कि अगले आठ वर्ष तक अर्थव्यवस्था 6 फीसदी की दर से विकसित होती है तो सन 2029-30 तक यह 325 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। यदि विनिर्माण 204 लाख करोड़ रुपये के 14 प्रतिशत की दर से बढ़ता हुआ 2029-30 में 25 फीसदी की बढ़त हासिल करता है तो यह लगभग तीन गुना होकर 28 लाख करोड़ रुपये से 81 लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। ऐसे में चरणबद्ध वृद्धि वाले जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 44 फीसदी हो जाएगी। ऐसे में सन 2022 से 2030 के बीच सालाना विनिर्माण वृद्धि 14 फीसदी से अधिक होनी होगी।
ये तमाम आंकड़े भारतीय विनिर्माण की अब तक उपलब्धियों से परे हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आयात प्रतिस्थापन को गति देने से कोई बड़ा अंतर नहीं आएगा। यदि विनिर्माण में अनुमानित वृद्धि का कुछ हिस्सा, मान लेते हैं मौजूदा वस्तु आयात का 10 प्रतिशत (3.4 लाख करोड़ रुपये वार्षिक) प्रतिस्थापन से आना है, और भविष्य में ऐसे आयात में वृद्धि से दूर रहना है तो कुल विनिर्माण में ऐसे आयात प्रतिस्थापन का योगदान अपेक्षाकृत कम ही रहेगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि ऐसे घरेलू उत्पादन में आयात अहम घटक बना रहेगा और इसमें घरेलू मूल्यवर्धन आंशिक ही होगा।
यदि तेज विनिर्माण वृद्धि के परिदृश्य में मान लिया जाए कि समग्र जीडीपी वृद्धि 6 फीसदी की गति से होगी तो सेवा क्षेत्र को तेजी से धीमा होना होगा। चूंकि विनिर्माण के लिए सहायक सेवाओं की आवश्यकता होती है (व्यापार, परिवहन, वित्तीय सेवाएं आदि) इसलिए ऐसा परिदृश्य हकीकत से दूर होगा जहां यह सेवा क्षेत्र की वृद्धि की तुलना में कई गुना तेजी से विकसित हो। वैकल्पिक रूप से यदि हमें यह मानना होता कि कुल वृद्धि 6 फीसदी नहीं बल्कि 8 फीसदी होगी और सन 2029-30 तक विनिर्माण तेजी से बढ़ते जीडीपी में 20 फीसदी तक हिस्सेदार होगा तो भी विनिर्माण वृद्धि के सालाना आंकड़े हकीकत से दूर होते।
इससे पता चलता है कि घरेलू बाजार पर ध्यान केंद्रित रखते हुए विनिर्माण को गति देकर तेज वृद्धि हासिल करने के प्रयासों की क्या सीमा है। खासतौर पर तब जबकि कुछ प्रमुख क्षेत्र मसलन सोलर पैनल और दूरसंचार किट आदि काफी पूंजी आधारित हैं और रोजगार में बहुत अधिक योगदान नहीं करने वाले हैं। जाहिर है कि आत्मनिर्भर की अवधारणा काफी हद तक नेहरूवादी है, इतनी कि जितनी शायद मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान स्वीकार न करना चाहे। जबकि उससे दूरी तब बनती जब सही मायनों में श्रम आधारित क्षेत्रों और निर्यात बाजारों पर ध्यान केंद्रित किया जाता और नेहरू के युग के निर्यात से जुड़े नैराश्य को खारिज किया जाता।
क्या भारत के आकार की बड़ी अर्थव्यवस्था को पर्याप्त निर्यात बाजार मिल सकते हैं? व्यापारिक ब्लॉक में बंटते जा रहे विश्व में इसका केवल एक तरीका है और वह यह कि हम किसी न किसी ब्लॉक में शामिल हो जाएं। यही कारण है कि क्षेत्रीय व्यापार आर्थिक साझेदारी (आरसेप) से बाहर रहना मोदी सरकार की बड़ी चूक साबित हो सकता है।
कहा जाता है कि आरसेप से देश में औद्योगिक गतिविधियों में धीमापन आता, हालांकि इसके विरोध में भी तर्क हैं। केवल चीन ही समस्या हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि एशिया-प्रशांत में हर देश के साथ भारत व्यापार घाटे में है। समस्या हमारी प्रतिस्पर्धा की है जिसमें सुधार जरूरी है। केवल तभी खुलेपन के अधिकाधिक लाभ हासिल किए जा सकें। हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि निकट भविष्य में वैश्विक वृद्धि में बड़ी हिस्सेदारी निभाने जा रहे इस क्षेत्र में हम अलग न छूट जाएं। आरसेप की दो दशक की समय सीमा को देखते हुए भारत के पास तैयारी का वक्त है। यदि अब भी हम आत्मनिर्भर को प्राथमिकता देते हैं तो यह हार स्वीकारने जैसा होगा।
