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  लेख  जीत का नशा कहीं डुबो न दे लुटिया
लेख

जीत का नशा कहीं डुबो न दे लुटिया

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता | आदिति फडणीस—May 30, 2008 10:48 PM IST0
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कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी फूली नहीं समा रही है। एक बार मात खाने के बाद यदि दूसरी बार भाजपा की सरकार नहीं बनती तो बलवा हो जाता।


वैसे कर्नाटक में भाजपा एक राजनैतिक ताकत के रूप में 1975 के आपातकाल के बाद ही उभर कर आई थी। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के बाद यदि किसी दक्षिण के प्रदेश में हिंदू एकीकरण हुआ था तो कर्नाटक में।

वहां रामकृष्ण हेगड़े के भाजपा से गठबंधन करने के बाद और जनता दल के विलीन होने के बाद समाजवादी शक्तियां तितर बितर हो गईं। इससे कुछ लाभ हुआ कांग्रेस को लेकिन अधिक फायदा हुआ भाजपा को।

ऐसा क्यों? क्योंकि कांग्रेस एक स्थापित शक्ति थी जो अपने आप में कई छोटे गुटों का दल थी। लेकिन जब जनता दल चरमरा कर गिर पड़ा तो उसका तीन-तरफा विभाजन हुआ। एक धड़ा गया कंाग्रेस में, एक ठहरा भाजपा में। और एक ने अपने आप को व्यवस्थित कर माना एच. डी. देवेगौड़ा को अपना नेता। जाहिर है कि जो व्यक्ति कांग्रेस में गए उन्हें अपनी जगह एक ऐसे संगठन में बनानी पड़ी जो एक बरगद के पेड़ की तरह था।

जो नेता कई सालों से कांग्रेस में थे और जिन्होंने जद्दोजहद कर अपनी राजनीतिक पहचान बनाई थी, उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उधर देवेगौड़ा – जो वोक्कालिगा जाति के हैं, एक ऐसी जाति जो समृद्ध भी है, भीरु भी और राजनीतिक सामर्थ्य रखने वाली – ने जनता दल के लोगों को जनता दल (सेक्युलर) में ले लिया लेकिन अपनी इस शर्त पर  कि वे जाति के मामले में दब कर रहेंगे और उनके दो बेटों, रेवन्ना और कुमारस्वामी की राजनीतिक आकांक्षाओं को समझेंगे (याद रहे यह वही देवेगौड़ा हैं जो, जब प्रधानमंत्री थे तब अपने खास हवाई जहाज में अपने परिवार के 32 सदस्यों को अपनी औपचारिक विदेश यात्रा में साथ ले गए थे।)

पिता और पुत्रों से दबने के बाद, एक के बाद एक जनता दल (सेक्यूलर) के नेताओं ने विद्रोह का झंडा फहराया। इनमें से शीर्ष और सबसे पहले थे सिद्दरामैया जो कुरुबा जाति के थे और जिन्हें देवगौड़ा ने जातीय समीकरण के चलते उप मुख्यमंत्री बनाया था। सिद्दरामैया 2004 में जनता दल सेक्युलर से इस्तीफा देकर कांग्रेस चले गए। कांग्रेस में जाने वालों का तांता सा लग गया।

यह गुट अपने आप में कांग्रेस के अंदर बागी हो गया और सुनियोजित तरीके से कांग्रेस को एक दिशा में धकेलने लगा- भले ही भाजपा की सरकार बने लेकिन देवेगौड़ा के साथ गठबंधन? कभी नहीं। इसीलिए इस चुनाव के बाद कांग्रेस बार बार कह रही है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ वोट का बंटवारा होने से उनकी पार्टी हार गई। सुनने में अच्छा लगता है।

सवाल है जिम्मेदारी किसकी थी? उधर भाजपा खुश जरूर होगी लेकिन एक बार बैठ कर उसे अपना मन टटोलना चाहिए। पिछले नवंबर में जब कुमारस्वामी ने भाजपा के येदियुरप्पा को सरकार नहीं बनाने दी तो उसी समय, बजाय शक्ति प्रदर्शन के भाजपा को चुनाव लड़ना चाहिए था। लेकिन अंत तक मुख्यमंत्री पद का मोह येदियुरप्पा को ललचाता रहा और अंत में राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया लेकिन तब जब येदियुरप्पा पांच दिन के लिए  मुख्यमंत्री बने।

भाजपा की जो भद्द उस समय उड़ी उसका असर अब तक हावी है। तब चुनाव करवाते तो 224 में से 140 सीटें मिलती। खैर अब सरकार बन रही है और यह भी कहा जा रहा है कि यह सिग्नल है, पूरे राष्ट्र में भाजपा की लहर का, जो अगले लोकसभा चुनाव तक हवा में व्याप्त होगी। वहीं बिहार से भाजपा के नेता आ रहे हैं दिल्ली, सुशील मोदी की शिकायत करने। अंदर बातचीत यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पछाड़ कर जो जीत कर्नाटक में हासिल हुई है, उत्तर प्रदेश में भी दोहरानी चाहिए।

राजस्थान में भाजपा का अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को स्थगित करना पड़ा है- यह अब दिल्ली में होगी। ‘पहले पांच प्रदेश, फिर सारा देश’ का नारा एक बार भाजपा अपनाकर हार चुकी है। यदि अपने घर को ठीक ठाक कर दल पुख्ता नहीं किया तो भाजपा का भी वही हाल होगा जो कांग्रेस का हो रहा है। ऐसे कई विषय हैं जिन पर भाजपा को अपनी सोच साफ करनी होगी- अर्थनीति पर, बाजार पर, समाज की संरचना पर, विदेश नीति पर। कर्नाटक ने दिखा दिया है कि भ्रम की राजनीति के लिए अब लोगों के पास टाइम नहीं है।

hang over of victory should not dipped up ship
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