‘इतिहास में विरले ही सही, पर ऐसा मौका जरूर आता है, जब हम पुराने से नए युग में प्रवेश करते हैं। जब एक युग का अंत होता है और जब किसी राष्ट्र की अर्से से दबाई गई आत्मा को स्वर मिलता है।’- जवाहर लाल नेहरू
भारत के आजाद होने के वक्त ये शब्द कहे गए थे और अचानक यह बात फिर पूरी तरह प्रासंगिक हो गई है। इसके अलावा इसकी प्रासंगिकता को कम किए बगैर चीन के लिए भी यह बात लागू होती है। दोनों देशों में ऐसा कुछ हो रहा है, जो क्रांति से तनिक भी कम नहीं है।
पिछले तीन दशकों में चीन ने अपने आप को बदल दिया है और हर साल यह मुल्क लाखों लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने में कामयाब हो रहा है। भारत में सुधार की प्रक्रिया चीन से काफी बाद में शुरू हुई, लेकिन इस सिलसिले में जो बात मायने रखती है, वह यह कि आखिकार यह प्रक्रिया शुरू तो हुई। हालांकि दोनों देश आर्थिक विकास के अलग-अलग पड़ाव पर हैं, लेकिन आने वाले वर्षों में आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए दोनों को बहुत कुछ हासिल करना है।
कई लोगों का मानना है कि भारत चीन से काफी पीछे है। वास्तव में भारत को चीन का ‘गरीब भाई’ माना जाता है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई), निर्यात, सेल फोन इस्तेमाल करने वालों की तादाद आदि मामलों में भारत और चीन की तुलना अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों का पसंदीदा शगल है। इस बात में कोई शक नहीं है कि सभी मामलों में चीन आगे नजर आता है। इसके मद्देनजर फैसला हमेशा चीन के पक्ष में जाता है।
हालांकि, चीजें इतनी सरल नहीं हैं, जितनी नजर आती हैं। चीन के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, 2006 में यहां विरोध-प्रदर्शन की 87 हजार घटनाएं हुईं। इससे साफ है कि चीन में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है और इस देश की जितनी गुलाबी तस्वीर पेश की जा रही है, हालात वैसे नहीं हैं। हालांकि चीन और भारत को ‘जुड़वां’ माना जाता है, लेकिन दोनों देश उतने ही अलग हैं, जितना देशों को होना चाहिए।
एक लोकतांत्रित देश है, जबकि दूसे देश में अधिनायकवाद है। एक देश वंचित तबकों को ऊपर उठाने में यकीन रखता है, जब दूसरा ऊपर के लोगों को नीचे लाने में। एक ने घरेलू व्यवसायियों को फलने-फूलने का मौका दिया, तो दूसरे ने विदेशी रूट का फॉरम्युला अख्तियार किया। एक लोगों और मीडिया की आजादी के प्रति प्रतिबध्द है, तो दूसरा सरकार सबसे ऊपर के सिध्दांत पर अमल करता है। एक मुल्क की अर्थव्यवस्था सेवाओं पर आधारित है तो दूसरे की निर्माण पर।
दोनों मुल्क एक-दूसरे से उतने ही अलग है, जितना सेब और संतरा। इसलिए मैं दोनों को तुलना के लायक मानता ही नहीं हूं। भारत और चीन ने विकास के अलग-अलग मॉडलों को अपनाया है। दोनों मॉडलों की अपनी-अपनी खूबियां और खामियां हैं। अगर दो बिल्कुल अलग-अलग मॉडलों की तुलना करनी है, तो यह काम समग्रता से होना चाहिए न कि महज कुछ पहलुओं के आधार पर।
लोग अक्सर चीनी मॉडल के सकारात्मक पहलू पर विचार करते हैं, जबकि भारत के नकारात्मक पहलुओं पर। नतीजतन, चीन का पलड़ा भारी हो जाता है। मिसाल के तौर पर चीन के शहरों के लिए इस देश की तारीफ की जाती है। हकीकत भी इससे अलग नहीं है। चीन में झुग्गी बस्तियां नहीं के बराबर हैं। लेकिन लोग यह बात भूल जाते हैं कि चीन में लोगों की आवाजाही पर काफी बंदिशें हैं।
मसलन अगर आपको शंघाई से बीजिंग जाकर बसना है या काम शुरू करना है, तो परमिट लेना पड़ेगा। जरा इस स्थिति की कल्पना कीजिए जब आपको अपने देश के भीतर ही एक शहर से दूसरे शहर में बसने के लिए सरकार से परमिट लेना पड़ेगा। क्या भारत के लोग शहरों से झुग्गी बस्तियों को हटाने की खातिर इस आजादी का परित्याग करने को तैयार है?
इसके अलावा चीन की ताकत इसका मैक्रोइकनॉमिक प्रदर्शन है, जबकि भारत का मजबूत पक्ष इसकी माइक्रोइकनॉमिक बुनियाद है। लेकिन दोनों देशों की तुलना मुख्यतया सिर्फ मैक्रोइकनॉमिक पहलुओं तक ही सीमित रहती है। मैक्रो लेवल पर (जीडीपी, एफडीआई, निर्यात और विदेशी मुद्रा आदि) चीन की स्थिति भारत से काफी बेहतर है। लेकिन भारत की ताकत कहीं और है। यहां मजबूत प्राइवेट सेक्टर है, बेहतर न्यायिक प्रणाली और संपत्ति के अधिकार का सम्मान करने वाली संस्थाएं मौजूद हैं।
वैश्विक प्रतिस्पर्धा रिपोर्ट (2006 -07) के मुताबिक, मैक्रोइकनॉमिक प्रदर्शन के मामले में चीन को छठे स्थान में शुमार किया गया है, जबकि 125 देशों की इस सूची में भारत 88वें पायदान पर खड़ा है। इस आधार पर माना जा सकता है कि चीन मैक्रोइकनॉमिक मामले में भारत से काफी आगे है और दोनों देशों की तुलना करना अपराध से कम नहीं होगा।
लेकिन मैक्रोइकनॉमिक प्रदर्शन ही सब कुछ नहीं होता। इस रिपोर्ट में कई अन्य रैकिंग का भी जिक्र है और लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि ओवरऑल रैकिंग में भारत चीन से आगे है। वैश्विक प्रतिस्पर्धा इंडेक्स में भारत 43वें स्थान पर है, जबकि चीन 54वें पायदान पर।
कुछ लोग इस पर यकीन नहीं करेंगे और उन्हें लग सकता है कि यह रैकिंग गलत है और इसमें जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ी हुई होगी। लेकिन इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने वाली संस्था वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम एक सम्मानित संस्था है और वैश्विक प्रतिस्पर्धा इंडेक्स विभिन्न देशों की तुलना करने का सबसे भरोसेमंद हथियार माना जाता है। अब हम इस विरोधाभासी आंकड़े की वजहों को जानने की कोशिश करते हैं।
प्रतिस्पर्धा रिपोर्ट का कहना है कि तेज आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिए सिर्फ मैक्रोइकनॉमिक स्थायित्व की मजबूत बुनियाद ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए कई माइक्रो लेवल से जुड़े कई पहलू भी जिम्मेदार होते हैं। माइक्रो लेवल पर तकरीबन सभी मामलों में भारत ने चीन के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है।
बहरहाल इन बातों के जरिये चीन की उपलब्धियों को कमतर आकंने की कोशिश नहीं की जा रही है। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि इस देश की चमक-दमक का जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा है, स्थिति वैसी नहीं है। सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत चीन से उतना पीछे नहीं है, जितना प्रचारित किया जाता है। हालांकि कई मायनों में भारत का प्रदर्शन चीन से बेहतर है।
बहरहाल इस बात में कोई शक नहीं कि चीन ने अपना मजबूत आधारभूत ढांचा तैयार किया है और उसके उत्पाद अमेरिका और यूरोप के स्टोर्स में छाए हुए हैं और भारत को अभी लंबा सफर तय करना (खासकर इन्फ्रास्ट्रक्टर के मामले में) है। कुल मिलाकर कहें तो अगर ‘भारत और चीन’ के बजाय ‘भारत बनाम चीन’ के मद्देनजर भी विचार किया जाए तो भी हताश-निराश होने की जरूरत नहीं है।