विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के काफी चुस्त महानिदेशक पास्कल लेमी की दोहा दौर की वार्ता की अटकी हुई गाड़ी को आगे बढ़ाने की कोशिशें एक बार से नाकामयाब हो चुकी हैं।
इसी के साथ निकट भविष्य में एक बहुस्तरीय कारोबारी समझौते की उम्मीदों पर भी पानी फिर चुका है। उनकी योजना जिनेवा में इस महीने की आखिर में एक छोटी सी मंत्रिस्तरीय बैठक करवाने की थी, लेकिन उन्हें अपनी इस योजना को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा।
वजह वही पुरानी थी, विकसित और विकासशील मुल्कों के बीच कृषि सब्सिडी और गैर कृषि उत्पादों के लिए अपने बाजार को खोलने के मुद्दे पर मौजूद गहरी खाई। यह बात छह दिसंबर को ही साफ हो गई थी कि जिनेवा वार्ता पर संकट के काले घने बादल मंडरा रहे हैं।
उस दिन कृषि और गैर कृषि उत्पादों को अपने बाजारों के लिए खोलने के मुद्दे पर जारी डब्ल्यूटीओ के नए मसौदे को ज्यादातर पक्षों ने ठुकरा दिया था।
उस मसौदे में सबसे बड़ी गलती तो यही थी कि उसमें अमेरिका और दूसरे विकसित मुल्कों की रसायन, बिजली, इलेक्ट्रोनिक्स और औद्योगिक उत्पादों पर शुल्क को खत्म करने की मांगों को मान लिया गया था।
वहीं इसमें विकासशील मुल्कों के नजरिये से अहम, कमाई के मुद्दों के बारे में कोई खास पहल की चर्चा नहीं की गई। भारत, चीन और दूसरे मुल्क किसी भी हालत में शुल्कों में इस कटौती को नहीं मान सकते थे। खास तौर पर ऐसे वक्त में तो कतई नहीं, जब वे खुद भी मंदी के दौर से गुजर रहे हों।
वैसे कई और भी मुद्दे थे, जिसकी वजह से इस मसौदे को नामंजूर किया जाना तय था। इस मसौदे में बौध्दिक संपदा अधिकार, सेवा क्षेत्र से जुड़े नियमों, विवाद निपटारे और कारोबार पर खराब असर डालने वाली सब्सिडी जैसे कई अहम मुद्दों का संतोषजनक हल गायब था।
विकासशील मुल्कों में आयात की मात्रा को सीमा में रखने के लिए बनाए जाने वाले खास सुरक्षा मानदंडों के मुद्दे पर भी इस नए मसौदे में कुछ खास नहीं था। इसमें विकासशील मुल्कों में डंपिंग रोकने के लिए सिर्फ ऊंचे आयात शुल्कों का ही सहारा लेने को कहा गया है।
इसमें डंपिंग को रोकने के लिए जरूरत पड़ने पर दोहा दौर की वार्ता से पहले की आयात शुल्क दरों से भी ऊंची दरों का सहारा लेने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
जब तक इन मुद्दों को भारत, चीन और दूसरे विकासशील मुल्कों को भा सकने वाला हल नहीं आ जाता, किसी समझौते की उम्मीद करना बेकार है।
वे दिन हवा हुए, जब अमेरिका और यूरोपीय संघ अपनी शर्तों को विकासशील मुल्कों पर लाद सकते थे। दरअसल, ‘विकास दौर’ के नाम से शुरू हुई इस वार्ता ने विकसित मुल्कों, खास तौर पर अमेरिका के आक्रामक रवैये की शक्ल अख्तियार कर ली।
लेकिन विश्व के आर्थिक पटल पर चीन, भारत और ब्राजील के बड़े खिलाड़ियों के तौर पर उभार ने कारोबारी समझौतों के गणित को ही बदल कर रख डाला। यह वार्ता सिर्फ एक ही शर्त पर कामयाब हो सकती है। जब वैश्विक अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी-खासी हो।
एक ऐसा वक्त, जब तेजी से उभर रहे मुल्क बड़ी छूट को देने को तैयार हों। इस वक्त विकसित अर्थव्यवस्थाओं का बाजा बजा हुआ है। ऊपर से विकासशील मुल्कों के सामने भी उनकी अपनी दिक्कतें है। इसलिए बेहतर यही होगा कि दोहा दौर की वार्ता के सभी पक्षों को कुछ वक्त दिया जाए।