कोविड-19 के कारण लगे झटके से प्रभावित कंपनियों को लेकर सहानुभूति रखना सहज मानवीय गुण है। परंतु हर चीज की कीमत चुकानी पड़ी है। यदि हम कर्जदारों के प्रति नरमी बरतें तो इसकी कीमत कर्ज देने वालों को चुकानी पड़ेगी। ध्यान रहे हमारे देश मेंं कर्ज देने वाले भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं। एक संगठन को हमेशा विश्वस्तर का विश्लेषण जारी रखना चाहिए और छोटे बड़े झटकों को लेकर प्रतिक्रिया की तैयारी रखनी चाहिए। एक स्वस्थ बाजार अर्थव्यवस्था में संसाधनों के आवंटन में काफी लचीलापन रहता है। वहां फर्म अपनी प्रक्रियाओं में बदलाव करती हैं और विभिन्न प्रकार के अच्छे बुरे अनुभवों को लेकर सहज रहती हैं। अब जबकि कोविड-19 का शुरुआती झटका गुजर चुका है तो कंपनियों के लिए निस्तारण योजना की आवश्यकता है।
जनवरी 2020 की बात करें तो उस वक्त भारतीय आर्थिक नीति की अहम बात क्या थी? कंपनियों का एक हिस्सा संकट में था और देनदारी में चूक के कगार पर था। बैंलेंस शीट का ऐसा दबाव अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है। संकटग्रस्त कंपनियां नकदी की कमी और नाराज कर्जदाताओं के कारण निरंतर संघर्ष करती रहती हैं। नकदी की तलाश में उनके प्रति शेयर कम प्रतिफल वाले लेनदेन करने की आशंका रहती है। तनावग्रस्त वित्तीय स्थिति वाली कंपनियां जोखिम और पुरस्कार संबंधी निर्णय भी सही ढंग से नहीं ले पातीं। इतना ही नहीं वे अपने वित्तीय दस्तावेजों में हेरफेर कर सकती हैं। तनावग्रस्त कंपनियों के उत्पादकता बढ़ाने या उसमें निवेश करने की संभावना कम रहती है। आर्थिक वृद्धि प्रक्रिया में उनका योगदान कम रहता है। यदि किसी उद्योग में संकटग्रस्त कंपनियां हैं तो उस क्षेत्र की अच्छी कंपनियों का मुनाफा भी प्रभावित होता है।
दुनिया के इतिहास में हमने ऐसी कई परिस्थितियां देखी हैं जहां विभिन्न देश ऐसी समस्याओं का सामना करने में नाकाम रहे। संकटग्रस्त कंपनियों की लंबे समय तक सहायता करने से जो स्थगन आता है उसे ‘जापानीकरण’ के नाम से जाना जाता है। चीन में सन 2010 के बाद से जो गिरावट देखने को मिली उसके लिए आंशिक तौर पर इसी जापानीकरण को उत्तरदायी माना जाता है। सन 2008 के संकट के बाद ब्रिटेन और अमेरिका ने निस्तारण (रेजलूशन) के क्षेत्र में काम किया जबकि यूरोप ने ऐसा नहीं किया। वहां की कठिनाइयों की यही वजह है।
अवधारणा के स्तर पर बाजार अर्थव्यवस्था में उपभोक्ताओं के व्यवहार और तकनीकी संभावनाओं में आ रहे बदलाव को लेकर निरंतर प्रतिक्रिया देनी पड़ती है। हर संस्थान को बाहर देखना है और बदलते विश्व के बारे में अपना नजरिया विकसित करना होता है। उसे इस नई दुनिया के हिसाब से खुद को ढालना होता है। एक स्वस्थ देश वही है जो निरंतर बदलाव के लिए तैयार हो और जहां पूंजी और श्रम का निरंतर पुनर्आवंटन होता हो जिससे झटकों से बचा जा सके।
यही कारण है जिसके चलते कोविड पूर्व की भारतीय आर्थिक नीति का प्रमुख सिद्धांत यही था कि जापानीकरण से बचा जाए ताकि मजबूत निस्तारण प्रक्रिया को विकसित किया जाए। निस्तारण तीन तरह से हो सकता है: मौजूदा अंशधारक कर्ज पुनर्गठन के साथ नई पूंजी लाएं, या फर्म को बेच दिया जाए या फिर उसका नकदीकरण किया जाए। इन तीन तरीकों के साथ आर्थिक नीति निर्माताओं का लक्ष्य यह था कि कंपनियों की वित्तीय स्थिति को बेहतर किया जा सके। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए ऋणशोधन और दिवालिया संहिता का यही तर्क था। वित्तीय नियमन एवं जमा बीमा विधेयक में जिस निस्तारण निगम की परिकल्पना की गई थी उसकी दलील भी ऐसी ही थी।
कोविड-19 के कारण लगे झटके ने इन हालात को कैसे बदला? गत 22 मार्च को अर्थव्यवस्था उस समय संकट में आ गई जब सभी निर्णय लेने वाले नए हालात को समझने में व्यस्त हो गए। हर संस्थान कारोबारी मॉडल और आंतरिक मॉडल में नवाचार करने लगा ताकि नए माहौल से निपटा जा सके। देश की हर प्रबंधन टीम ने फरवरी की अपनी कारोबारी गतिविधि को आधार बनाया और उसके 100 फीसदी तक पहुंचने को लक्ष्य बनाया। कुछ संस्थान यकीनन दूसरों से अधिक प्रभावित हुए। उदाहरण के लिए विमानन उद्योग फरवरी के स्तर का बमुश्किल 50 फीसदी ही हासिल कर पाया है।
मार्च के अंत में हर किसी के लिए अत्यधिक अनिश्चितता थी। दिवालिया प्रक्रिया के सही ढंग से काम करने के लिए हमें अपेक्षाकृत स्थिर दुनिया चाहिए जहां निजी क्षेत्र के तमाम लोग फर्म की संभावनाओं का आकलन कर ऋणदाता समिति के सामने आकलन पेश कर सकें। मार्च के अंतिम दिनों की घनी अनिश्चितता के बाद दिवालिया प्रक्रिया से ऐसी अपेक्षा सही नहीं थी। इसलिए इसके कामकाज को स्थगित करना उचित निर्णय था।
अब अनिश्चितता का वह दौर पीछे छूट चुका है। अनगिनत छोटे और बड़े संगठनों ने अपने लिए नए तरीके तलाशे हैं। शहरी श्रम भागीदारी जो 22 मार्च को 40.14 फीसदी थी वह 26 अप्रैल को 31.77 फीसदी रह गई थी और 30 अगस्त को यह सुधरकर पुन: 38.49 फीसदी हुई। इस परिदृश्य पर नजर डालें तो पता चलता है कि ब्रॉडबैंड, दूरसंचार और ई-कॉमर्स जैसे कुछ उद्योगों का प्रदर्शन वाकई बेहतर रहा। जबकि विमानन, खुदरा सेवाओं और वाणिज्यिक अचल संपत्ति आदि में गिरावट आई। दुनिया बदल चुकी है।
बाजार अर्थव्यवस्था का काम है झटकों को सहन कर उत्पादन कारकों का बेहतर आवंटन करना। अब वक्त आ गया है कि कोविड-19 को एक और झटके के रूप में देखा जाए। यह अन्य झटकों से किसी तरह अलग नहीं है। उदाहरण के लिए ई-कॉमर्स ने आकर अपनी जगह बनाई लेकिन इसमें पारंपरिक खुदरा कारोबारियों की कोई गलती नहीं थी। गलती किसकी है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि ऐसे हालात बनाना महत्त्वपूर्ण है जिनमेंं बाजार अर्थव्यवस्था सही ढंग से काम कर सके। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि निस्तारण को प्राथमिकता दी जाए।
एक और पहलू है जहां कर्जदारों के साथ सहानुभूति का रुख कठिनाई पैदा करता है। बेहतर आर्थिक वृद्धि के लिए वित्तीय कंपनियों का स्वस्थ होना महत्त्वपूर्ण है। यदि संयम का परिचय दिया जाए और कर्जदारों की मदद के लिए ऋण स्थगन तथा कर्ज माफी योजनाएं पेश की जाएं तो इसका कर्जदाताओं पर बुरा असर होगा। अनिश्चित कर प्रवर्तन के अधीन वित्तीय कंपनियों की समस्या का निराकरण करना आसान नहीं है। ऋण अनुबंधों के मामले में हालात सामान्य करने या गैर वित्तीय कंपनियों तथा वित्तीय कंपनियों का निस्तारण करने का एजेंडा आपस में संबंधित है।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)
